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बंगाल घमासान के विविध आयाम

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तृणमूल को तोड़कर जो आये हैं, पार्टी ने सबको स्वीकार किया है और एक बड़ी रणनीति बनायी है.अब यह देखने की बात है कि मोदी बनाम ममता के इस कुरुक्षेत्र में कौन बनेगा कौरव और कौन बनेगा पांडव.

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पश्चिम बंगाल में कुरुक्षेत्र युद्ध चल रहा है. यह चुनाव भाजपा बनाम तृणमूल कांग्रेस नहीं है. यह लड़ाई नरेंद्र मोदी बनाम ममता बनर्जी है. ऐसा चुनाव अपने 35 साल के पत्रकारिता जीवन में मैंने कभी नहीं देखा. ममता बनर्जी की सरकार के दस साल हो चुके हैं, इस कारण एंटी-इनकंबेंसी मजबूत है. राज्य के हर जिले में संगठित उगाही एक लघु उद्योग बन गयी थी. माहौल यह था कि इलाके के दादा की अनुमति के बिना आप मकान बेच या खरीद नहीं सकते. इस संस्कृति और ममता बनर्जी के दौर के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने रणनीति बनायी है, जिसमें मुख्यमंत्री के भतीजे अभिषेक बनर्जी को भी मुद्दा बनाया है.

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इसमें उसे सफलता मिली है. भाजपा को वर्ष 2019 के आम चुनाव में राज्य में 18 सीटें मिल गयी थीं. ऐसा ममता बनर्जी के पक्ष में वर्ष 2016 की लामबंदी के टूटने और ध्रुवीकरण की भाजपा की पसंदीदा रणनीति के कारण हुआ है. जहां भी मुस्लिम समुदाय की आबादी अधिक है, वहां भाजपा की बढ़त अधिक होती है. इसीलिए असम में सफलता के बाद भाजपा को पश्चिम बंगाल में उम्मीद है.

पश्चिम बंगाल में लगभग 28 प्रतिशत आबादी मुसलमान समुदाय की है. इसमें उर्दूभाषी कम हैं और बांग्लाभाषी ज्यादा.

इन मतों का रुझान देखने की बात है. अभी तक मेरा अनुभव है कि भाजपा के इतना आक्रामक होने के कारण मुस्लिम वोट एकजुट होकर ममता बनर्जी के पक्ष में जा रहा है. लेकिन क्या ममता का जो हिंदू वोट है, उसमें कटौती होगी? वर्ष 2019 में भी उनकी पकड़ थी. दक्षिण बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल कर रहे हैं. बंगाल चुनाव में इतनी रुचि और सक्रियता कभी किसी प्रधानमंत्री ने नहीं दिखायी. महिला वोट भी प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में एक बड़ा वोट बैंक है, तो मुख्यमंत्री का भी इस वोट बैंक में मजबूत पकड़ है. छह साल में मोदी सरकार के खिलाफ कोई भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं आयी है. मनमोहन सरकार के दौर में कई मामले आये थे.

इसलिए ममता बनर्जी के बारे में व्यक्तिगत आरोप न लगाकर उनके भतीजे को मोदी निशाना बनाते हैं. यदि इसका असर नहीं हुआ, तो यह ममता की बहुत बड़ी जीत होगी. लोग बार-बार कह रहे हैं कि भाजपा इतनी बड़ी ताकतवर पार्टी है, पर लगता है एक चूहा मारने के लिए वह कमान का इस्तेमाल कर रही है. तो, क्या उसकी आक्रामकता का कुछ उल्टा असर हो सकता है? ममता ने चालाकी से इस चुनाव को दिल्ली बनाम बंगाल कर दिया है.

वह कह रही हैं कि बंगाल को दिल्ली ने कुछ दिया नहीं. पश्चिम बंगाल में शुरू से ही दिल्ली के खिलाफ एक भावना रही है. वह असल में एक रैडिकल जड़ है, जो बहुत पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चितरंजन दास, नक्सलबाड़ी आंदोलन आदि में दिखता रहा है. जब सीपीएम की सरकार 34 साल रही, तब वे भी बोलते रहे कि बंगाल को दिल्ली ने कुछ नहीं दिया. प्रणब मुखर्जी जब केंद्रीय वित्त मंत्री थे, तब लेफ्ट फ्रंट के वित्त मंत्री अशोक मित्रा ने उनके खिलाफ शिकायत की कि बंगाल को इंदिरा गांधी ने पैसा नहीं दिया, प्रणब ने पैसा नहीं दिया.

लोगों ने इस बात पर विश्वास किया. प्रणब मुखर्जी ने मुझसे बोला था कि सीपीएम ने यह अभियान इस स्तर पर चलाया था कि उन्हें जिंदगी भर बोलना पड़ता है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया. ममता बनर्जी का भी प्रचार इसी तरह है. बड़ी संख्या में ग्रामीण बेरोजगार युवा और महिलाएं अब भी यह मानते हैं कि भाजपा जबरदस्ती बंगाल की बेटी को सत्ता से हटाना चाहती है. भाजपा ममता बनर्जी के बंगाली पहचान की रणनीति का जवाब देने की कोशिश कर रही है, इसलिए मोदी बार-बार बंकिमचंद्र, रवींद्रनाथ और बंगाल के अन्य महापुरुषों का उल्लेख कर रहे हैं. मोदी ने बड़ी चतुराई से कहा है कि ‘दीदी, हमको अपमानित करो, लेकिन बंगाली को मत करो. हम सोनार बांग्ला गढ़ेंगे.’

मेरा कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जो मुख्य रणनीति है कि एक राज्य के चुनाव के लिए क्या क्या किया जा सकता है, यह राजनीति शास्त्र के छात्र के लिए सीखने लायक है. साम, दाम, दंड, भेद सब इस्तेमाल किया है प्रधानमंत्री मोदी और उनके सेनापति अमित शाह ने बंगाल के इस चुनाव में. यह सब आज अचानक नहीं हुआ है, बल्कि कई साल से वे कोशिश कर रहे हैं और इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी प्रमुख भूमिका है. संघ प्रमुख मोहन भागवत का बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत करना, सिविल सोसाइटी को साथ में लेना आदि उल्लेखनीय है, जिसका उद्देश्य ममता के साथ बुद्धिजीवियों के जुड़ाव को तोड़ना है.

इसके लिए मिथुन चक्रवर्ती, प्रसेनजित, सौरव गांगुली आदि को साथ लाने की कोशिश हुई है. भाजपा ने जो कोशिश वाजपेयी-आडवाणी के समय की पार्टी से दूरी की अवधारणा को तोड़ने के लिए की थी, उस समय जो जन-संपर्क संघ ने किया था, उसी सिलसिले को मोदी ने नये सिरे से लागू किया है. तो, भाजपा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राज्य में सरकार बनाने के वाजपेयी और आडवाणी के अधूरा सपने को पूरा करने के लिए कोशिश कर रही है. उस समय भाजपा के पास बहुमत नहीं था और गठबंधन से उसे सरकार चलाना पड़ता था. बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी का एक बड़ा उद्देश्य भाजपा को अखिल भारतीय पार्टी बनाने के लिए पश्चिम बंगाल को जीतना है.

अगर भाजपा जीतती है, तो 2024 नरेंद्र मोदी के लिए बहुत आसान हो जायेगा. विपक्ष को वे तोड़ देंगे और वह बचेगा नहीं. लेकिन अगर मामला इसके उल्टा होता है और ममता बनर्जी जीत जाती हैं, तो वे फिर भाजपा के लिए एक चुनौती हो सकती हैं अगले लोकसभा चुनाव में. अभी जो चुनौती है, वह ममता बनर्जी के लिए है, क्योंकि दस साल सत्ता में रहने के बाद हारना है, तो उन्हें हारना है.

भाजपा तो राज्य सरकार में नहीं है और विधानसभा में उसके केवल तीन विधायक हैं. लेकिन उसने वर्ष 2019 के चुनाव में 18 लोकसभा सीट जीती है, इस संदर्भ में सोचें, तो मत प्रतिशत के हिसाब से भाजपा की शक्ति बढ़ेगी. भाजपा ने खुद इसे चुनौती के रूप में लिया है. अगर भाजपा यह चुनाव जीत जाती है, तो इसके लिए उसने जोखिम भी उठाया है क्योंकि तृणमूल को तोड़कर जो आये हैं, पार्टी ने सबको स्वीकार किया है और एक बड़ी रणनीति बनायी है. अब यह देखने की बात है कि मोदी बनाम ममता के इस कुरुक्षेत्र में कौन बनेगा कौरव और कौन बनेगा पांडव.

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