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बढ़ते तापमान के भयावह खतरे

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केन्या की पर्यावरणविद् और नोबेल पुरस्कार विजेता बंगारी मथाई ने एक समय कहा था कि सभ्य होना है, तो जंगलों का साथी बनो, प्रकृति से जुड़ो, उससे प्रेम करो.

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आज पर्यावरण का सवाल इसलिए अहम है, क्योंकि पृथ्वी की चिंता किसी को नहीं है. हालात की भयावहता की ओर किसी का ध्यान नहीं है. राजनीतिक दलों से तो उम्मीद करना ही बेमानी है, क्योंकि पृथ्वी और पर्यावरण उनके वोट बैंक नहीं हैं. पृथ्वी और पर्यावरण आज जिस स्थिति में हैं, उसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं. पृथ्वी मानव जीवन के साथ-साथ लाखों-लाख वनस्पतियों, जीव-जंतुओं की आश्रय स्थली है. इसके लिए किसी खास वर्ग को दोषी ठहराना उचित नहीं है, बल्कि सभी जिम्मेदार हैं.

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हम प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का अपनी सुविधा की खातिर बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं. पर्यावरण विनाश ही बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का मूल है. इन हालातों ने ही पर्यावरण के खतरों को चिंता का विषय बना दिया है. ताजा अध्ययन के अनुसार, अगले पांच वर्षों में तापमान बढ़ कर एक नये स्तर तक पहुंच सकता है. ब्रिटेन के मौसम विभाग के अलावा अमेरिका, चीन समेत दुनिया के 10 देशों के शोधकर्ताओं के साझा अध्ययन में कहा गया है कि 2025 तक औसत तापमान पूर्व औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक अधिक हो सकता है.

इसकी 40 प्रतिशत तक आशंका बलवती हो गयी है. धरती का तापमान बढ़ने से बेमौसम बरसात, जंगलों की आग, भयंकर चक्रवात और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बढ़ गयी है. ब्रिटेन के वरिष्ठ मौसम विज्ञानी लियन हरमैनसन की मानें, तो ‘जब हम 1850-1900 के समय के तापमान से तुलना करते हैं, तो अंतर साफ दिखता है कि इस दौरान औसत तापमान में लगभग 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी हो रही है. यह चेतावनी है कि कड़े निर्णय लेने हैं, ताकि हमारे हाथ से समय न निकल जाए.’

पर्यावरण और जलवायु की सुरक्षा के लिए अब तक किये गये हमारे प्रयास नाकाफी हैं. हमें अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करना होगा, ताकि जलवायु परिवर्तन की बेढंगी चाल को रोका जा सके. हमारे ग्रह का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. विश्व मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव प्रो पेटेरी तालस की मानें, तो नये शोध के परिणाम सिर्फ नंबर नहीं हैं, बल्कि गंभीर खतरे के संकेत हैं.

हर इंसान यह भलीभांति जानता है कि यह बढ़ोतरी क्यों है? यदि तापमान निर्धारित सीमा को पार कर गया, तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जायेगा. बीस लाख प्रजातियां हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगी. दुनिया का 20-30 फीसदी हिस्सा सूखाग्रस्त हो जायेगा. नतीजतन, 150 करोड़ लोग प्रभावित होंगे. बाढ़ और चक्रवाती तूफानों से भीषण तबाही होगी. खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व कम हो जायेंगे. ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, जिससे समुद्री जलस्तर बढ़ेगा और दुनिया के कई देश डूब जायेंगे.

जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बढ़ोतरी का सबसे ज्यादा असर भारत समेत दक्षिण-पूर्व एशिया, दक्षिण यूरोप, मध्य अमेरिका व दक्षिण आस्ट्रेलिया पर पड़ेगा. दुनिया की अच्छी गुणवत्ता वाली खेतिहर जमीन बंजर हो रही है. इसे नहीं रोका गया, तो बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के अलावा दूसरे संसाधनों पर निर्भरता बढ़ जायेगी.

आने वाले तीन दशकों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका को इस चुनौती का सामना करना होगा. उस हालत में 2050 में वर्तमान की तुलना में डेढ़ गुना अधिक अनाज की जरूरत होगी. इन इलाकों में सदी के अंत तक तापमान 50 डिग्री के पार पहुंच जायेगा. इसका असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन और पेयजल पर पड़ेगा.

मौसम में यह बदलाव अविश्वसनीय रूप से भयानक है. यह न तो सरकारों की सोच में है और न ही इनकी प्राथमिकता में. प्रकृति और पर्यावरण से की गयी छेड़छाड़ की भरपाई असंभव है. इसका निराकरण इस समस्या को बढ़ानेवाला ही कर सकता है. वह अपनी जीवनशैली बदले और पर्यावरण केंद्रित विकास का ऐसा दौर शुरू करे, जो स्थायी भविष्य का आधार बने. इससे निश्चित ही धरती पर हो रहे बदलावों में कमी आयेगी. उसी दशा में धरती, मानव जीवन और पर्यावरण को विनाश से बचाया जा सकता है. यही आशा का एक ऐसा बिंदु है जो उज्ज्वल भविष्य की गारंटी दे सकता है. ऐसा किये बिना इस समस्या का निदान असंभव है.

इस संबंध में केन्या की पर्यावरणविद् और नोबेल पुरस्कार विजेता बंगारी मथाई ने एक समय कहा था कि सभ्य होना है, तो जंगलों का साथी बनो, प्रकृति से जुड़ो, उससे प्रेम करो. असल में बंगारी मथाई ने अपने कहे को जिया भी. उन्होंने लाखों पेड़ लगाये. अपने आसपास जंगल को बरकरार रखने की भरपूर कोशिश की. असलियत में आज हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं. साथ ही अपनी पहचान खोते चले जा रहे हैं.

इसको पहचानने का काम किया हिरोशिमा के महापौर रहे परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित तादातोशी अकाबा ने. उन्होंने कहा कि जिन शहरों में जितने पेड़ होंगे, वहां के लोग उतने ही आत्मीय होंगे. इसमें दो राय नहीं कि दावे कुछ भी किये जाएं, पर्यावरण बचाने की वैश्विक मुहिम आज भी अनसुलझी पहेली है. दुनिया के शोध-अध्ययन इस बात के सबूत हैं कि हालात बहुत भयावह हैं. कोरोना काल ने यह साबित भी किया है. ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को नजरअंदाज करना बहुत बड़ी भूल होगी, इसलिए अब भी चेतो. अगर अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा.

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