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दलहन उत्पादन को मिले बढ़ावा

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दलहन में आत्मनिर्भरता के लिए औसत उत्पादकता 811 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 2050 तक 1500 किलोग्राम करने की आवश्यकता है. विश्व औसत उत्पादकता 869 किलोग्राम है.

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संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरनेवाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है. दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है. राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में हुए सर्वेक्षणों में पाया गया है कि देश के सबसे गरीब इलाकों में आज भी बच्चे भुखमरी के कारण अपनी जान गंवा रहे हैं.

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संयुक्त राष्ट्र ने भारत में जो आंकड़े पाये हैं, वे अंतरराष्ट्रीय स्तर से कई गुना ज्यादा हैं. संयुक्त राष्ट्र ने स्थिति को ‘चिंताजनक’ बताया है. भारत में अनुसूचित जनजाति (28 प्रतिशत), अनुसूचित जाति (21 प्रतिशत), पिछड़ी जाति (20 प्रतिशत) और ग्रामीण समुदाय (21प्रतिशत) जनसंख्या में अत्यधिक कुपोषण है. विश्व बैंक ने कुपोषण की तुलना ब्लैक डेथ नामक महामारी से की है, जिसने 18वीं सदीं में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को निगल लिया था.

भारतीय संसद द्वारा पारित भोजन के अधिकार के आलोक में राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार ने बड़े स्तर पर प्रयास किये हैं, लेकिन जब तक भारतीय खेती को संतुलित नहीं किया जायेगा, तब तक समस्या से निजात पाना आसान नहीं है. खाद्य सुरक्षा एवं भोजन के अधिकार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि चक्र एवं फसलों के संतुलन की जरूरत है.

इस संदर्भ में दाल एक ऐसी फसल है, जिसके संतुलित और अनुपातिक उत्पादन से कुपोषण को सुपोषण में बदला जा सकता है. दाल हमारी खाद्य सुरक्षा का महत्वपूर्ण अंग है. दलहन से आहार में प्रोटीन एवं मिट्टी में उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने तथा पशुओं के चारे के रूप में उपयोग का महत्वपूर्ण लाभ मिलता है. वैश्विक स्तर पर प्रमुख उत्पादक देश होने के बावजूद भारत में औसत उत्पादकता अन्य विकसित देशों की तुलना में कम है.

सरकार की रणनीतियों एवं कृषि वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से इस दिशा में काफी अच्छे परिणाम सामने आये हैं, जिसके चलते देश में कुल दलहन का उत्पादन पिछले वर्ष 25.58 मिलियन टन प्राप्त हुआ (1950-51 में यह मात्र 8.40 मिलियन टन था), वहीं इसकी खेती लगभग 28 मिलियन हेक्टेयर में होती है.

दलहन में आत्मनिर्भरता के लिए औसत उत्पादकता 811 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (1950-51 में उत्पादकता 441 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) से बढ़ा कर 2050 तक 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर करने की आवश्यकता है. विश्व औसत उत्पादकता 869 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है.

वैश्विक स्तर पर कनाडा दलहन उत्पादकता (दो टन) में अग्रणी है. चीन में यह 1396 किलोग्राम है तथा ब्राजील और अमेरिका जैसे देशों में उत्पादकता एक टन से अधिक है. विश्व का लगभग एक चौथाई दलहन उत्पादन भारत में होता है, पर प्रमुख दलहन उत्पादक राज्यों की औसत उत्पादकता कम है. इसे बढ़ाने के लिए आधुनिक कृषि तकनीकों, प्रसार एवं नीतिगत प्रयासों पर ध्यान देने की जरूरत है.

गैर कृषि योग्य भूमि के उपयोग, वर्षा जल संरक्षण संरचना एवं सिंचाई सुविधाओं का विकास कर खेती को बढ़ावा देने की आवश्यकता है. साथ ही, गुणवत्तापूर्ण बीज उत्पादन के लिए सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों की साझेदारी को भी बढ़ावा देना चाहिए. भारत में मध्य प्रदेश दलहन का सबसे बड़ा उत्पादक है. उसके बाद राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा का स्थान है.

इन सात राज्यों का दलहन की खेती में 80 प्रतिशत का योगदान है. तमिलनाडु, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में दलहन की खेती के विस्तार की अच्छी संभावनाएं हैं और ये राज्य अच्छे परिणाम भी दे रहे हैं.

अनुमान के अनुसार, दालों की मांग 2030 तक 3.2 करोड़ टन और 2050 तक 3.9 करोड़ टन पर पहुंच जायेगी. यदि खेती के क्षेत्र के वर्तमान स्तर को बनाये रखा गया और उत्पादकता में न्यूनतम वृद्धि हासिल की गयी, तो भारत निकट भविष्य में दलहन पैदावार के मामले में आत्मनिर्भर बन सकता है. इसके लिए प्रत्येक पांच साल के अंतराल में 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उत्पादकता को प्राप्त करना होगा, तभी हम 2025 तक 950 किलोग्राम एवं 2050 तक 1335 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उत्पादकता को प्राप्त कर सकेंगे.

साथ ही, चार मिलियन हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को दलहनी फसलों से जोड़ना होगा. यदि विभिन्न प्रकार की दालों के फसलों को संतुलित आधार प्रदान कर दिया गया, तो आधे से अधिक कुपोषण की समस्या खत्म हो जायेगी. इसका बड़ा उदाहरण झारखंड है. राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में पहले दाल का उपयोग नहीं के बराबर होता था. इन क्षेत्रों में सबसे अधिक कुपोषण की समस्या थी, पर अब दाल का उपयोग बढ़ने के साथ झारखंड के इन क्षेत्रों में कुपोषण की समस्या दूर हो रही है.

मृदा शोध आधारित उत्पाद एवं उन्नत बीज के प्रयोग में इसके क्षेत्र विस्तार की असीमित संभावनाओं के बीज छिपे हुए हैं. स्थानीय उत्पादन की ओर प्रेरित करने के साथ दलहन के उपयोग को खानपान में शामिल करने से समृद्धि से स्वास्थ्य तक का सफर आसानी से पूरा हो सकता है.

झारखंड में दलहन की मौसमी प्रजाति की किस्मों की भरमार है, पर सीमित उपयोग एवं उत्पादन के कारण पोषण स्तर में वृद्धि के लिए इसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो पा रही है. जागरूकता के अभाव में उत्पादन की कमी और उपयोगिता की क्षीण जानकारी से यह क्षेत्र वंचित है. इसलिए सरकार को चाहिए कि दलहन फसलों को क्षेत्र और उत्पादन बढ़ाने की दिशा में पहल करे.

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