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यूपी चुनाव में आमने-सामने की लड़ाई

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भाजपा के पास मोदी की लोकप्रियता और योगी की कट्टर हिंदू नेता की छवि के अलावा अमित शाह समेत स्टार प्रचारकों की बड़ी फौज है.

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अखिलेश जीते तो राम मंदिर पर बुलडोजर चलवा देंगे.’ भाजपा नेता उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को आगाह करते फिर रहे हैं. उधर, अखिलेश मंदिरों में पूजा-अर्चना कर रहे हैं, ‘ब्राह्मण भगवान’ परशुराम की मूर्तियां लगवा रहे हैं और कहते हैं कि राम मंदिर बन गया, तो दर्शन करने अवश्य जाऊंगा. उत्तर प्रदेश का चुनाव कई दृष्टियों से घमासान है.

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समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की रैलियों में जिस तरह भीड़ उमड़ी (फिलहाल कोरोना के कारण इस पर रोक लगा दी गयी है), उससे भाजपा नेताओं के कान खड़े हुए हैं. मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा में दिख रहा है. वहीं मायावती के अब तक प्रचार में नहीं निकलने के कारण बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की लड़ाई की तस्वीर साफ नहीं है. प्रियंका गांधी ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे के साथ महिलाओं को आगे करके अभियान चला रही हैं. इससे भीड़ तो जुटी, लेकिन कांग्रेस लड़ाई में आ पायेगी, इसमें संदेह है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा के बड़े नेता चुनाव की घोषणा होने और सभाओं-रैलियों पर रोक लगने से पहले ही उत्तर प्रदेश के तूफानी दौरे कर चुके हैं. मोदी जी ने उत्तर प्रदेश में अरबों-खरबों रुपये की विकास योजनाओं की घोषणा की है.

गरीबों के कल्याण और विकास योजनाओं के जरिये ‘प्रश्न प्रदेश’ को ‘उत्तर प्रदेश’ बनाने का उनका ऐलान यह दिखाने का प्रयास है कि भाजपा का मुख्य फोकस विकास पर है. मुख्यमंत्री योगी भी सरकार की उपलब्धियों को गिनाना नहीं भूलते, किंतु भाजपा का असली चुनावी तुरुप धार्मिक ध्रुवीकरण और मंदिर की राजनीति ही है. योगीजी ने खुलेआम कहा है कि ‘मुकाबला अस्सी बनाम बीस है.’ उनका इशारा लगभग बीस प्रतिशत मुसलमानों की ओर ही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आक्रामक हिंदू नेता की छवि को पेश किया जा रहा है.

प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर का नींव पूजन किया था और अभी हाल में उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर का उद्घाटन किया. इन कार्यक्रमों का सजीव प्रसारण किया गया. भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सामूहिक दौरा कराकर उन्हें ‘योगी के यूपी मॉडल’ के दर्शन कराये गये.

मोदी, शाह और योगी समेत भाजपा नेता बार-बार याद दिलाते हैं कि उनकी सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद-370 को समाप्त किया, पाकिस्तानी आतंकवाद को करारा जवाब दिया. वे समाजवादी पार्टी को मुस्लिम परस्त और आतंकियों के मददगार के रूप में पेश करते हैं. कांग्रेस और बसपा पर उनके हमले अब कम हो गये हैं. समाजवादी पार्टी मुख्य निशाने पर है, ताकि हिंदुओं के मन में उसकी छवि हिंदू-विरोधी एवं मुस्लिम-हितैषी की बनी रहे. यही कारण है कि ‘अब्बाजान,’ ‘कब्रिस्तान’ और ‘जिन्ना’ का बार-बार उल्लेख किये बिना भाजपा नेताओं के भाषण पूरे नहीं होते.

उधर, अखिलेश यादव पूरी कोशिश में हैं कि भाजपा की यह चाल पूरी तरह सफल न हो. उन्होंने 2017 के चुनाव में भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के जवाब में मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश की थी. तब उनकी सरकार ने कब्रिस्तानों की चारदीवारी के लिए अनुदान जारी किये थे, आतंकवादी गतिविधियों के अभियुक्त ‘निर्दोष’ मुसलमान युवकों को रिहा कराया और हाईस्कूल-इंटर पास करनेवाली मुस्लिम लड़कियों के लिए वजीफे घोषित किये. भाजपा ने इन फैसलों से उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने में सफलता पायी. प्रधानमंत्री मोदी तक ने ‘कब्रिस्तान बनाम श्मशान’ के ताने कस कर तालियां लूटी थीं.

इस बार अखिलेश मंदिरों में जा रहे हैं, बाबरी मस्जिद गिराये जाने का कोई उल्लेख नहीं कर रहे, बल्कि राम मंदिर बनने पर दर्शन करने की बात कर रहे हैं. वे जगह-जगह ‘भगवान परशुराम’ की मूर्ति लगवा रहे हैं. वे कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा उन्हें हिंदू-विरोधी साबित न कर सके. भाजपा से नाराज ब्राह्मणों को खुश करने की उनकी पूरी कोशिश है.

यह सच है कि यादवों के अलावा मुसलमान वोट उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं, लेकिन इस बार वे मुसलमानों को खुश करने की कोई ऐसी कोशिश नहीं कर रहे कि वह नजर में आये. इसी कारण उन्होंने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से गठबंधन नहीं किया. इससे हिंदुओं में सपा के विरुद्ध ध्रुवीकरण तेज ही होता. मुस्लिम आबादी के बीच सपा का चुपचाप प्रचार अभियान चल रहा है. वे मानते हैं कि भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों के पास समाजवादी पार्टी ही एकमात्र विकल्प है.

अखिलेश यादव ने राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए इस बार न केवल अपने ‘बागी’ चाचा शिवपाल यादव की पार्टी को गले लगा लिया, बल्कि पिछड़ी जातियों के अन्य छोटे-छोटे दलों से भी चुनाव समझौता करने की पहल की. भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 2014 से अति पिछड़ी और अति दलित जातियों को जोड़ने की जो पहल की है, उसके मुकाबले के लिए अखिलेश ने भी गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों की कम से कम पांच छोटी पार्टियों से चुनाव समझौता किया है.

पश्चिम में जयंत चौधरी उनके सहयोगी हैं ही. दलित जातियों में सेंध लगाने के लिए उन्होंने मायावती से खिन्न और बसपा से बहिष्कृत कई दलित नेताओं को सपा में शामिल किया है. कांग्रेस और बसपा के कई नेताओं के अलावा भाजपा के चंद असंतुष्ट नेता भी सपा में शामिल हुए हैं. इसे सपा की बढ़ती दावेदारी का संकेत माना जा रहा है. मीडिया में भाजपा का वृहद विज्ञापन अभियान सपा के विरुद्ध ही केंद्रित है.

उत्तर प्रदेश की सत्ता कायम रखना भाजपा के लिए 2024 के आम चुनाव की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, तो अखिलेश के लिए उसे अपदस्थ करना अपना राजनीतिक अस्तित्व कायम रखने के लिए बहुत जरूरी है. बसपा और कांग्रेस अभी हाशिये की पार्टियां नजर आती हैं. भाजपा के पास मोदी की लोकप्रियता और योगी की कट्टर हिंदू नेता की छवि के अलावा अमित शाह समेत स्टार प्रचारकों की बड़ी फौज है. कोरोना काल में डिजिटल प्रचार में भी भाजपा बहुत आगे है. बूढ़े और बीमार पिता मुलायम सिंह यादव की अनुपस्थिति में अखिलेश अकेले दम पर इस विशाल सेना के खिलाफ डटे हैं. मुकाबला वास्तव में घमासान और रोचक है.

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