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लोकतंत्र के लिए घातक परिवारवाद

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नीतीश कुमार ने लोक लाज के उच्च आदर्शों को स्वीकार किया. कभी अपने परिवार के किसी सदस्य का किसी भी प्रकार का दखल स्वीकार नहीं किया.

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राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दोनों सदनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परिवारवाद और पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को लेकर विपक्षी दलों पर काफी आक्रामक रहे. यद्यपि, उनका मुख्य हमला कांग्रेस पार्टी पर रहता है. अपनी पार्टी को असली समाजवादी घोषित करते हुए उन्होंने इसे सही मायनों में गरीबों को भोजन, पेयजल, स्वास्थ्य की सुविधा, कृषि के लिए मदद करने वाली पार्टी बताया.

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उन्होंने समाजवादी आंदोलन के प्रणेता डॉ लोहिया, जॉर्ज फर्नांडीस और जद (यू) नेता नीतीश कुमार को असली समाजवादी बताया. इन नेताओं के परिवार से कभी कोई पार्टी में पद ग्रहण अथवा चुनाव लड़ने के लिए आगे नहीं आया. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनेताओं ने वंशवाद के जरिये राजनीतिक हैसियत बढ़ाना शुरू कर दिया. स्वाभिमानी कार्यकर्ताओं का स्थान चापलूस और पदलोलुप लोगों ने ग्रहण कर लिया. पं मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू आजादी के अग्रणी नेताओं में शामिल थे.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वैचारिक परिवर्तन दिखने लगा, जब बड़े पदों पर आसीन नेताओं के परिवार जन रोजमर्रा की सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन गये. प्रारंभ में इसका विरोध भी हुआ. कांग्रेस में इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाते समय पं नेहरू को भी असहज परिस्थितियों से गुजरना पड़ा था. नागपुर में 1959 में कांग्रेस अधिवेशन में इंदिरा गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ.

प्रतिष्ठित कांग्रेसी महावीर त्यागी ने एक पत्र द्वारा पं नेहरू को मुगल साम्राज्य के दिनों का स्मरण करने को कहा कि किस प्रकार दरबारी बादशाहों की औलादों के साथ खेलते हुए उनका मनोरंजन करते थे. आज भी कांग्रेसी नेताओं का आचरण उसी तरह का है. कुछ चाटुकार ‘भोली-भाली इंदु’ का नाम अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित कर रहे हैं. यह इंंदु के व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं है, बल्कि आपको प्रसन्न करने के लिए किया जा रहा है.

पार्टी ने समाजवादी अर्थव्यवस्था का घोषणापत्र स्वीकार किया है, ऐसी परिस्थितियों को इंदिरा पार कर पायेगी, ऐसा प्रतीत नहीं होता है. महावीर त्यागी पत्र में लिखते हैं कि मैं चाहता हूं कि आप इंदु को कांग्रेस अध्यक्ष पद से चुनाव लड़ने से रोकें, अन्यथा आपको प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना चाहिए. आपके त्यागपत्र से कांग्रेस संसदीय पार्टी में लोकतंत्र बहाल होगा. मैं पिछले 15 दिन से इसी चिंता में सो नहीं पाया हूं और इस पत्र को लिखने के बाद आराम से सो पाऊंगा.’

पत्र के जवाब में नेहरू लिखते हैं कि मुमकिन है कि मेरे सामने कुछ लोग स्पष्टता से अपनी बात न रख पाते हों, लेकिन मैं किसी दरबारी गिरोह से घिरा हुआ हूं, ऐसा कहना उचित नहीं है. मैंने इंदु को अध्यक्ष बनाने के प्रस्ताव का जिक्र अधिवेशन के अंतिम दिन सुना. बैठक में कई राज्यों के प्रमुख नेता भी थे. मैंने कहा है कि इंदु का चयन न तो उनके लिए ठीक होगा, न ही मेरे लिए, लेकिन मैं इसमें अब दखल नहीं देना चाहता.

इससे इंदिरा को मानसिक तकलीफ होगी. पं नेहरू लिखते हैं कि किस प्रकार प्रारंभ में महासमिति के सर्वसम्मत प्रस्ताव को इंदु ने अस्वीकार किया, पर सदस्यों के अतिरिक्त दबाव में उसे स्वीकार करना पड़ा. प्रसिद्ध गांधीवादी यूएन ढेबर कांग्रेस के अध्यक्ष थे, इंदिरा के सामने दो अन्य नेता भी उम्मीदवार थे, निजलिंगप्पा ने समर्थन में नाम वापस ले लिया और कुंभाराम आर्य का नामांकन रद्द हो गया.

ये ज्वलंत प्रश्न परिवारवाद और आंतरिक लोकतंत्र की सशक्त स्थापना के काफी समय तक राजनीति में प्रासंगिक रहे. कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी के नेता अपने दलों को इन रोगों से बचाते रहे हैं.

दुर्भाग्यवश कांग्रेस इसे मजबूत करती रही. डॉ लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के प्रयासों से 1967 के बाद गैर-कांग्रेसवाद की बयार बही और विपक्ष के कद्दावर नेता उस राजनीति के केंद्र बिंदु बने. इसी बीच राज्यों के गैर-कांग्रेसी नेताओं के आचरण भी कांग्रेस नेताओं जैसे हो गये. मंडल की राजनीति में स्थापित नेतृत्व ने कांग्रेस को भी इस मुकाबले में पछाड़ दिया.

सामाजिक न्याय परिवारों को तो पालता-पोसता रहा, लेकिन जरूरतमंदों से दूरी बनी रही. समाजवादी आंदोलन से निकले दल इस रोग से सर्वाधिक प्रभावित हुए और निर्लज्ज तरीके से दूरदराज के परिवार भी सत्ता की मलाई खाने के प्रयासों में जुट गये. सिर्फ साम्यवादी आंदोलन और भाजपा के शीर्ष नेता इस रोग का शिकार होने से बच गये.

समाजवादी आंदोलन की श्रेष्ठतम धारा से निकले जॉर्ज फर्नांडीज और नीतीश कुमार अवश्य अपवाद रहे. नीतीश कुमार ने लोक लाज के उच्च आदर्शों को स्वीकार किया. कभी अपने परिवार के किसी भी सदस्य का किसी भी प्रकार का दखल स्वीकार नहीं किया. समता पार्टी और जनता दल (यू) का सर्वोच्च नेता बनने के बाद भी उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद पर पार्टी के अन्य साथियों को आसीन होने दिया. प्रधानमंत्री द्वारा उनकी प्रशंसा स्वागत योग्य है और नये समाजवादियों के लिए अनुकरणीय भी.

विगत दिनों नेपाल की शासकीय पार्टी नेपाल कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर हुए चुनावों ने लोकतंत्र प्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर दिया है. इस देश के लोकतंत्र निर्माण में कोइराला परिवार की मुख्य भूमिका रही है. पहले राणाशाही और बाद में राजशाही के विरुद्ध लोकतंत्र की स्थापना के लिए लंबे संघर्ष करने पड़े और जेल यातना भी सहनी पड़ी. पिछले दिनों नेपाली कांग्रेस के 14वें राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ.

शेर बहादुर देउबा पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनकर अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे. बीपी कोइराला के दत्तक पुत्र शेखर कोइराला पार्टी के अध्यक्ष पद के दावेदारों में शामिल थे. दो अन्य दावेदारों में प्रकाश मान सिंह एवं विमलेंद्र निधि भी थे, जो लोकतंत्र बहाली आंदोलन के शीर्षस्थ परिवार से रहे हैं. बाद में निधि और प्रकाश मान सिंह द्वारा श्री देउबा का समर्थन कर दिया गया, इसके बावजूद कोइराला 35 प्रतिशत मत प्राप्त करने में सफल रहे.

प्रधानमंत्री के विरुद्ध पार्टी के अंदर उम्मीदवारी आंतरिक लोकतंत्र को जीवित करता है. कोइराला परिवार के विरुद्ध प्रतिनिधियों द्वारा किया गया मतदान इन परंपराओं को मजबूत कर गया. निर्भीक एवं स्वाभिमानी कार्यकर्ता अपने इस मशाल को जलाए रखेंगे, ऐसा विश्वास उपरोक्त घटनाओं से होता है़

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