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बैडमिंटन के लिए गौरवपूर्ण क्षण

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व्यक्तिगत खेलों में तो विभिन्न खिलाड़ियों की उल्लेखनीय उपलब्धियां तो रही हैं, पर टीम गेम में थॉमस कप की जीत का यह अवसर बेशक सबसे बड़ा है.

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यदि स्वतंत्र भारत के खेल इतिहास के गौरवपूर्ण क्षणों को देखें, तो 1948 में लंदन ओलिंपिक में हॉकी का स्वर्ण पदक, 1983 का क्रिकेट विश्व कप, 2011 का क्रिकेट विश्व कप, 1975 में हॉकी विश्व कप, बीते ओलिंपिक में नीरज चोपड़ा का स्वर्ण पदक जैसी उपलब्धियां याद आती हैं. थॉमस कप में पुरुष बैडमिंटन टीम की जीत भी इसी श्रेणी में है. इसे अब तक का सबसे गौरव भी माना जा सकता है.

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इसके दो कारण हैं. पहला, अभी तक जिन टीम खेलों में हमने जीत हासिल की है, उन्हें किसी तरह कमतर न आंकते हुए यह कहा जा सकता है कि उन खेलों को बहुत कम देश खेलते हैं, लेकिन बैडमिंटन डेढ़ सौ देशों में खेला जाता है. इसमें जो चोटी के पचास खिलाड़ी हैं, वे लगभग बराबर क्षमता के हैं और कभी भी कोई खिलाड़ी ऊपर-नीचे जा सकता है. ऐसे में भारतीय टीम का थॉमस कप जीतना सबसे बड़ी खेल उपलब्धि है.

व्यक्तिगत खेलों में तो विभिन्न खिलाड़ियों की उल्लेखनीय उपलब्धियां रही हैं, पर टीम गेम में यह अवसर सबसे बड़ा है. दूसरी बात यह है कि अगर आप कुछ दिन पहले किसी से कहते कि भारतीय टीम डेनमार्क, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि देशों को हरा कर थॉमस कप जीत जायेगी, तो वह हंस देता. कहने का मतलब यह है कि इस जीत का दावा सबसे बड़ा आशावादी भी आसानी से नहीं कर सकता था.

यह जीत अचानक नहीं मिली है. बीते कई वर्षों से भारतीय बैडमिंटन में धीरे-धीरे निखार आता जा रहा था. आज भले ही हम लक्ष्य सेन या श्रीकांत जैसे खिलाड़ियों की चर्चा कर रहे हैं, जिसके वे हकदार भी हैं, लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने में अनेक लोगों का अहम योगदान रहा है. प्रकाश पादुकोण के दौर से ही आज की नींव पड़ चुकी थी, जिसे पुलेला गोपीचंद ने बहुत आगे बढ़ाया, जब उन्होंने ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप में जीत हासिल की.

फिर पीवी सिंधु और सायना नेहवाल ने इसे नये आयाम तक पहुंचाया. पर्दे के पीछे रह कर आरिफ साहब जैसे लोगों ने बैडमिंटन को आगे ले जाने में भूमिका निभायी. इन लोगों के कारण डेढ़ साल में इस खेल के लिए पुख्ता जमीन तैयार हो गयी थी.

थॉमस कप की जीत ने साबित कर दिया है कि अब बैडमिंटन में भारत बड़ी शक्ति के रूप में उभर चुका है. अगर आप खेल इतिहास को देखें, तो पायेंगे कि आम तौर पर जो बड़े खिलाड़ी होते हैं, वे विश्वसनीय कोच नहीं बन पाते हैं. लेकिन गोपीचंद ने पहले खिलाड़ी के रूप में और फिर प्रशिक्षक के रूप में कमाल कर दिखाया है. उनकी तुलना भारतीय खेल जगत में एक ही व्यक्ति से की जा सकती है, जिसका नाम राहुल द्रविड़ है. ये दोनों बड़े खिलाड़ी हैं, पर इन्होंने कोचिंग में भी अपनी छाप छोड़ी है.

गोपीचंद की एकेडमी में मुझे कई बार जाने का अवसर मिला है. इतने बड़े खिलाड़ी होने के बाद भी वे कहते थे कि कोचिंग में उन्हें बुनियाद से शुरुआत करनी है. वे अपने खिलाड़ी होने के रुतबे को हावी नहीं होने देते. देश में बड़े खिलाड़ियों के नाम पर कई एकेडमी चल रही हैं, पर उनमें उन खिलाड़ियों की विशेष भूमिका नहीं होती. वे साल में एक-दो बार जाते हैं और बाकी प्रशिक्षण अन्य कोच संभालते हैं.

गोपीचंद के साथ ऐसी बात नहीं है. वे और उनका पूरा परिवार सुबह से लेकर संस्थान बंद होने तक वहीं रहता है. इससे यह हुआ कि वहां के खिलाड़ियों में अंतरराष्ट्रीय स्तर का भरोसा पैदा हुआ. जब सायना नेहवाल आयीं, तो कहा गया कि यह उनकी प्रतिभा का कमाल है.

निश्चित रूप से प्रतिभा बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन अच्छा प्रशिक्षण भी आवश्यक है. जब सिंधु आयीं, तो लोगों को कहना पड़ा कि उसी एकेडमी से एक और अच्छा खिलाड़ी आया है. विमल कुमार और प्रकाश पादुकोण ने भी अच्छा योगदान दिया है. गोपीचंद ने जिस दिशा में काम किया है और उसके अच्छे परिणाम आज हमारे सामने हैं, उसे अन्य खेलों में भी लागू किया जाना चाहिए.

इस जीत के साथ भारतीय बैडमिंटन में बड़ी क्रांति घटित हो गयी है. अभी तक यह होता था कि किसी भी खेल में एक बड़ा नाम उभरता था और उसी के नाम पर खेल आगे बढ़ता था, लेकिन बैडमिंटन में कई हीरो आये हैं और ऐसा महिला व पुरुष दोनों वर्गों में हुआ है. थॉमस कप की जीत टीम की जीत है और दुनिया के सबसे बड़े प्रतिस्पर्द्धात्मक खेलों में से एक में यह जीत मिली है, पर अब भी बहुत काम करना होगा, क्योंकि इस खेल के शीर्षस्थ देशों में अभी हम नहीं हैं.

आगामी चार-पांच वर्षों तक जीत की निरंतरता बनानी होगी. इसके लिए जरूरी है कि हम देशभर की प्रतिभाओं को उभरने का मौका मुहैया कराएं. सभी खिलाड़ी हैदराबाद या बेंगलुरु में तो प्रशिक्षण नहीं ले सकते हैं, इसलिए गोपीचंद की एकेडमी की तर्ज पर अन्य जगहों पर भी कोचिंग दी जानी चाहिए.

इसमें राज्य सरकारों तथा निजी संस्थानों को सक्रिय होना चाहिए. बैडमिंटन कौशल का खेल है और हमारे पास कौशल की कमी नहीं है. शारीरिक क्षमता और फिटनेस में भी अब हमारे खिलाड़ी किसी अन्य देश के खिलाड़ियों से कम नहीं हैं. अब हमारे खिलाड़ी आखिरी सेट तक मुकाबला कर जीत रहे हैं. थॉमस कप की जीत से हौसला भी बढ़ा है और उम्मीद भी.

(बातचीत पर आधारित).

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