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सार्थक न रहा कांग्रेस का चिंतन शिविर

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कांग्रेस को गैर-एनडीए दलों की आलोचना से परहेज करना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के साथ आगे तालमेल करना है.

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उदयपुर में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर को लेकर उत्साह था. उम्मीद की जा रही थी कि वहां से कांग्रेस देशभर में ऐसा संदेश भेजेगी, जिससे पार्टी में नयी ऊर्जा का संचार होगा और आगामी चुनावों में वह अपना दमखम दिखायेगी. साथ ही, एक रोडमैप की अपेक्षा थी, जिसके आधार पर पार्टी राजनीतिक चुनौतियों का सामना करेगी, लेकिन हुआ यह कि इस आयोजन से कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार का वर्चस्व और मजबूत हुआ है.

असंतुष्ट खेमा भी संतुष्ट दिखा और उसने ऐसी कोई बात नहीं की, जो आलाकमान को नापसंद हो या जिससे कांग्रेस की कार्यशैली को चुनौती मिले. इस खेमे, जिसे जी-23 कहा जाता है, के कई बड़े नेता वहां उपस्थित थे. इस शिविर में चर्चा तो सकारात्मक माहौल में हुई, पर कांग्रेस का सामान्य कार्यकर्ता या भाजपा सरकार से नाराज मतदाता को इस आयोजन से कुछ मायूसी हुई.

इस आयोजन में छह समूह बनाये गये थे, जिन्होंने सभी विषयों पर चर्चा की, लेकिन उन चर्चाओं पर पार्टी ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया. इस समय दो मुद्दे देश के लिए चिंता और बेचैनी का कारण बने हुए हैं- धर्म और राजनीति का मिश्रण तथा उग्र राष्ट्रवाद का उभार. इन पर कांग्रेस की सोच क्या है और इनको लेकर उसके पास क्या वैकल्पिक रणनीति है, यह भी स्पष्ट नहीं हो सका.

चिंतन शिविर में यह बात खुलकर हुई और उत्तर भारत के कई नेताओं ने जोर दिया कि कांग्रेस को बहुसंख्यक हिंदू समाज को जोड़ने की कोशिश करनी होगी. उन्होंने रेखांकित किया कि इस समाज का हर व्यक्ति अपने को भाजपा या उसकी राजनीति से संबद्ध नहीं करता है. इस संदर्भ में यह भी कहा गया कि धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजनों से भी कांग्रेस अपने को जोड़े. मध्य प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करने पर दक्षिण के कुछ नेताओं ने आपत्ति भी जतायी.

कुछ नेताओं ने यह भी कहा कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है और इसे पार्टी कार्यालयों से जोड़ना ठीक नहीं है. अगर दूसरे धर्म के लोग भी इस तरह करने लगेंगे, तो नये तरह का बखेड़ा खड़ा हो जायेगा. चर्चा के बारे में तो हमें नेताओं से पता चला, पर कांग्रेस के बयान में या सोनिया गांधी व राहुल गांधी के भाषणों में उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया. जो 430 नेता शिविर में मौजूद थे, उनके अलावा किसी को विस्तृत जानकारी नहीं है. अभी ऐसे संकेत भी नहीं हैं कि पार्टी की ओर से प्रेस कांफ्रेंस कर या लिखित पत्र के द्वारा विस्तार से बताया जायेगा.

उदयपुर में जो बातें हुईं, उनमें प्रशांत किशोर के सुझावों या कांग्रेस की पूर्ववर्ती समितियों- प्रणब मुखर्जी समिति, एके एंटनी समिति, रामनिवास मिर्धा समिति, पीए संगमा समिति आदि की सलाहों की झलक नजर आयी, पर यह सब आधा-अधूरा ही दिखता है. यह निर्णय प्रथम दृष्टि में स्वागतयोग्य लगता है कि पार्टी के पचास प्रतिशत टिकट पचास साल से कम आयु के लोगों को दिये जायेंगे, लेकिन एक राजनीतिक दल का प्रयास होता है कि वह चुनाव जीते.

क्या कांग्रेस के पास सौ से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनकी उम्र पचास साल से कम है? राहुल गांधी भी बावन साल के हो गये हैं. प्रियंका गांधी भी इस साल पचास साल की हो गयी हैं. संजय गांधी ने 1977 के चुनाव में यह प्रस्ताव दिया था कि लोकसभा की सौ सीटें युवा कांग्रेस के लोगों को दी जाएं. लेकिन संजय गांधी के होने के बाद भी यह प्रस्ताव नहीं माना गया था. उत्तर प्रदेश विधानसभा के हालिया चुनाव में प्रियंका गांधी ने चालीस प्रतिशत सीटें महिला उम्मीदवारों को दी थीं, लेकिन नतीजा क्या रहा- ढाई फीसदी वोट और 403 में से महज दो सीटें! ऐसे निर्णयों को यथार्थ के धरातल पर देखे-परखे जाने की जरूरत है़.

वंशवाद के संदर्भ में चिंतन शिविर में कहा गया कि पार्टी एक परिवार को एक सीट देगी, पर उसमें यह जोड़ा गया है कि परिवार का कोई अन्य सदस्य पांच साल से पार्टी में सक्रिय होगा, उसे टिकट दिया जा सकता है. यह प्रावधान वास्तव में नियम जैसा ही है. इसका मतलब यह है कि जिसने भी लोकसभा का पिछला चुनाव या हालिया विधानसभा चुनाव लड़ा होगा, वह आगे टिकट का दावेदार हो सकता है. यह प्रावधान उन पर लागू होगा, जो आज पार्टी में शामिल हो रहे हैं.

इससे कोई फायदा नहीं होनेवाला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा में वंशवाद की परिभाषा बदल दी है. इसके अनुसार शुरुआती स्तर पर पारिवारिक पृष्ठभूमि के नेताओं से कोई परेशानी नहीं है, पर शीर्ष पद वैसे लोगों के लिए नहीं होने चाहिए. इस शिविर को लेकर एक उत्सुकता यह थी कि पार्टी नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न के मसले पर निर्णय होगा. दूसरी उत्सुकता यह थी कि क्या पार्टी चुनाव जीतने के लिए कोई ठोस रणनीति प्रस्तावित करेगी.

इससे भावी गठबंधन के स्वरूप का आभास मिल सकता है. इन मसलों पर इस आयोजन से कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सका है. यह कहना तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है कि चिंतन शिविर में नेतृत्व पर बात नहीं होती है. साल 2013 के जयपुर शिविर में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाया गया था.

गठबंधन को लेकर कांग्रेस का रवैया रक्षात्मक है. उसे लगता है कि आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां गठबंधन को लेकर कांग्रेस की उत्सुकता को कहीं उसकी कमजोरी न समझ लें. उस पर राहुल गांधी ने यह कह दिया कि क्षेत्रीय दलों की कोई विचारधारा नहीं है. यह आलोचना अपनी जगह सही हो सकती है, पर कांग्रेस को गैर-एनडीए दलों की आलोचना से परहेज करना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के साथ आगे तालमेल करना है.

आगामी लोकसभा चुनाव की स्थिति यह है कि कांग्रेस के बिना कोई गठबंधन नहीं बन सकता है और क्षेत्रीय दलों के बिना कांग्रेस भाजपा को चुनौती नहीं दे सकती है. पदयात्रा से जनसंपर्क करने का विचार ठीक है, लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी की दूरी तय करने में डेढ़-दो साल का समय लग सकता है. अगर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कुछ दूर चल कर और झंडा दिखा कर बसों को रवाना कर देते हैं, तो उससे कोई फायदा नहीं होगा.

मुझे लगता है कि कांग्रेस को सोच-समझ कर इस तरह के कार्यक्रमों की घोषणा करनी चाहिए, ताकि आगे कोई सवाल नहीं खड़ा हो. साल 2014 में कांग्रेस को 44 और 2019 में 52 सीटें मिली थीं. क्या आज कांग्रेस को यह भरोसा है कि वह अगले चुनाव में 80-100 सीटें जीत सकती है? कई कांग्रेसियों को तो लगता है कि सीटें कम हो सकती हैं. इस चिंतन शिविर से पार्टी को निचले स्तर तक उत्साहित करने का माध्यम बनना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. (बातचीत पर आधारित).

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