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आजादी का अमृत महोत्सव एवं नये संकल्प, पढ़े प्रभात खबर के प्रधान संपादक का विशेष आलेख

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आज देश आजादी के 75 वर्ष पूरे कर रहा है. यह बेहद महत्वपूर्ण अवसर है, जब हम इतिहास का सिंहावलोकन करें और भविष्य का चिंतन करें. अमृत महोत्सव आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर भी है.

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में अरुणोदय शीर्षक से एक कविता लिखी थी:

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मंगल-मुहूर्त; रवि! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं,

हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूंकने वाले हैं.

मंगल-मुहूर्त; तरुगण! फूलो, नदियों! अपना पय-दन करो,

जंजीर तोड़ता है भारत, किन्नरियों! जय-जय गान करो.

भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है,

दुनिया की महफिल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है.

आशीष दो वनदेवियों! बनी गंगा के मुख की लाज रहे,

माता के सिर पर सदा बना आजादी का यह ताज रहे.

आजादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है,

मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गंवाया है.

आज देश आजादी के 75 वर्ष पूरे कर रहा है. यह बेहद महत्वपूर्ण अवसर है, जब हम इतिहास का सिंहावलोकन करें और भविष्य का चिंतन करें. अमृत महोत्सव आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर भी है. युवा पीढ़ी को यह बताना भी जरूरी है कि स्वतंत्रता सेनानियों के कितने त्याग व संघर्ष के बाद हमें यह आजादी मिली थी. यह मौका है, जब हम पिछले 75 वर्षों में हुई भारत की प्रगति का जश्न मनाएं. अमृत महोत्सव देश की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रगति के आत्मावलोकन का भी अवसर है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मार्च, 2021 को साबरमती आश्रम से अमृत महोत्सव की शुरुआत की थी. उन्होंने कहा था कि यह उपयुक्त अवसर है, जब हम 2047 पर ध्यान केंद्रित करें, उस समय देश स्वतंत्रता के 100 वर्ष मनायेगा. उस समय कमान वर्तमान पीढ़ी के हाथों में होगी. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस अवसर पर हमें अपने पूर्वजों को नहीं भूलना चाहिए, जिन्होंने देश के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था. महात्मा गांधी ने 12 मार्च, 1930 को नमक सत्याग्रह की शुरुआत की थी.

अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीयों को इंग्लैंड से आने वाले नमक का ही इस्तेमाल करना पड़ता था. महात्मा गांधी ने देश के दर्द को महसूस किया और इसे जन-जन का आंदोलन बनाया. यह आंदोलन हर भारतीय को छू गया, क्योंकि नमक हमारे लिए श्रम और समानता का प्रतीक है. आजादी की लड़ाई में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम, महात्मा गांधी द्वारा देश को फिर से सत्याग्रह की शक्ति की याद दिलाना, लोकमान्य तिलक का पूर्ण स्वराज का आह्वान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज का दिल्ली चलो का नारा, हमें याद रखना चाहिए.

देश में धीरे-धीरे गरीबी घट रही है और विकास के अवसर बढ़े हैं, लेकिन समाज में भारी असमानताएं मौजूद हैं. बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों या शिक्षा के अवसर, अब भी ये अमीरों के पक्ष में हैं. यह तथ्य सर्वविदित है कि आर्थिक असमानता के कारण समाज में असंतोष पनपता है. मशहूर पत्रिका फोर्ब्स का कहना है कि महामारी के बावजूद दुनिया के रईस लोगों के लिए यह दौर बहुत अच्छा रहा है. उनकी दौलत में पांच खरब डॉलर की वृद्धि हुई है और नये अरबपतियों की संख्या बढ़ी है. दूसरी ओर गरीबों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है. विश्व बैंक का अनुमान है कि महामारी के दौरान दुनियाभर में 11.5 करोड़ लोग अत्यंत निर्धन श्रेणी में पहुंच गये है. आर्थिक सुधारों का अपेक्षित लाभ मध्य वर्ग और गरीब तबके तक नहीं पहुंचा है. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद हम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बहुत पिछड़े हैं.

कोरोना ने स्पष्ट कर दिया है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत चिंताजनक है. शहरी और ग्रामीण इलाकों में तो स्वास्थ्य सुविधाओं में खाई बहुत चौड़ी है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के आंकड़ों के अनुसार, सवा सौ करोड़ की आबादी का इलाज करने के लिए भारत में केवल 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं. इनमें से महज 1.1 लाख डॉक्टर सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्यरत हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए सीमित डॉक्टरों पर ही निर्भर है. बजट की कमी, राज्यों के वित्तीय संकट, डॉक्टरों और उपकरणों के अभाव से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरायी हुई है. आजादी के 75 वर्षों बाद भी हम हर जिले में एक अच्छा सरकारी अस्पताल उपलब्ध कराने में नाकामयाब रहे हैं.

कोरोना काल में यह भी साबित हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, मेहनतकश मजदूरों से चलता है. यह भी स्पष्ट हो गया है कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चल सकता है. गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो आभा और चमक-दमक है, उसमें प्रवासी मजदूरों का भारी योगदान है, लेकिन इन मजदूरों को समुचित आदर, सुविधाएं और वेतन नहीं मिलते. यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद ये राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं. हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे. बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है, लेकिन अब यह फायदे का सौदा नहीं है.

केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में दो गुना की वृद्धि की है, पर खेती में लागत भी बढ़ गयी है. यह समस्या भी है कि सरकारें देर से खरीद शुरू करती हैं, तब तक किसान आढ़तियों को फसल बेच चुके होते हैं. कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर भी विवाद पुराना है. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है, जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती है, तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.

बिजली-पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों में केंद्रित होकर रह गयी हैं. विकास की प्राथमिकता के केंद्र में गांव होने चाहिए. कोरोना ने शिक्षा के चरित्र को भी बदल दिया है. कुछ समय पहले तक माना जाता था कि बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था इन तीनों कड़ियों को जोड़ने में ही लगी थी कि इसमें डिजिटल की कड़ी भी जुड़ गयी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में एक बड़े तबके के पास न तो स्मार्ट फोन है, न ही कंप्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा. देश के नीति निर्धारकों को इन विषयों पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा.

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