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My Mati: आदिवासी महिलाओं को क्यों नहीं मिलता समान अधिकार

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मात्र अचल संपत्ति या धार्मिक असमानता को दूर कर के समानता नहीं लायी जा सकती है. इसके अलावा भी आदिवासी समाज में महिलाओं के संदर्भ में अनेक विसंगतियां एवं चुनौतियां हैं. शैक्षिक चर्चा में आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त है. पर क्या इन समानाधिकार वाले समाज में सच में महिलाओं की स्थिति वैसी ही है.

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अभय सागर मिंज

जब भी आदिवासी समाज की महिलाओं की बात होती है तो विश्व के अनेक मानवशास्त्री समानाधिकार-वादी विचारधारा वाले आदिवासी समाज को अपने कृतियों में अहम स्थान देते हैं. शैक्षिक चर्चा में आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त है. पर क्या इन समानाधिकार वाले समाज में सच में महिलाओं की स्थिति वैसी ही है जैसा हमें दिखता या दिखाया जाता है?

जब कभी ठेठ देहात में रुकता हूं तो प्रातः कल ‘ढेंकी’ की आवाज से नींद टूटती है. मुंह-अंधेरे, घर की महिलाएं धान कूटने में लग जाती हैं. सूर्योदय से पहले फिर वे जंगल की ओर निकल पड़ती हैं. जब तक पुरुष पूरी तरह जगते हैं, तब ये जंगल से वापस लौट रहीं होतीं हैं. सर पर बोझा लिए, कभी कभी एक नन्हे को बेतरा किए वो दायित्वों का निर्वाहन करतीं हैं. उसके बाद बर्तन-बासन एवं अन्य गृह कार्य. घर के मवेशियों को चारा पानी या गोबर को खाद-गढ़ा तक ये ही पहुंचाती हैं. ‘केलवा’ से पहले फिर खेत की ओर और फिर दोपहर बाद फिर जंगल या ‘बारी’ में कार्य करती हैं. शाम को फिर भोजन व्यवस्था. रात जब आंगन में साथ में आग तापा करता था तब जा कर उनको फुरसत में देखता था.‘बीड़ी और हुक्का’ का दौर चलता था. बैठक में इतने संघर्ष के बाद भी जो स्वछंद खिलखिलाहट और हंसी सुनने को मिलती थी, वह अदभुत सुकून देती थी.

महिलाओं का योगदान पुरुषों से अधिक

बहरहाल, आदिवासियों के आर्थिक जीवन को हम निकट से देखें तो मेरा मानना है कि महिलाओं का योगदान पुरुषों से अधिक है. इस सीमित चर्चा में मैं दो प्रमुख पक्षों को रखना चाहूंगा. एक पक्ष में यह स्पष्ट करूंगा कि कैसे ‘चालाक पुरुष जाति’ ने कूटनीति के द्वारा उन्हें बराबर का अधिकार नहीं दिया. दूसरे पक्ष के अनुसार कैसे आदिवासी समाज में महिलाओं को समान अधिकार सामाजिक सांस्कृतिक कारकों के कारण नहीं मिला या अब भी नहीं मिल सकता.

आदिवासी समुदायों में दो निषेधों की चर्चा

आदिवासी समुदायों में दो निषेधों की चर्चा करूंगा. पहला, महिलाएं खेती के औजार का प्रयोग नहीं कर सकतीं और दूसरा, घर की छत छार नहीं सकती. यानी, जीविका और भोजन के लिए पुरुषों पर निर्भरता और निवास स्थान के लिए भी. पुरुष प्रधान आदिवासी समाजों में इस प्रकार का निषेध एक कूटनीति ही तो है. सामाजिक विज्ञान के अनुसार महिलाओं के इस निर्भरता के कारण परिवार विखंडन से बचता है.

दूसरा पक्ष जिसमें आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला है, इसका संयम से विश्लेषण आवश्यक है. महिलाएं ईश्वर की अनुपम रचना हैं और जैविक रूप में वही अपने गर्भ में शिशु को धारण कर सकती हैं, जन्म के बाद दूध पिला सकतीं है और सफलतापूर्वक लालन पालन कर सकतीं हैं. यहां ये अतुलनीय हैं. जैविक से हट कर जब हम इनकी सामाजिक भूमिका का विश्लेषण करते हैं, तभी असमानता अधिक स्पष्ट होती है.

दो मुद्दों पर चर्चा

इस सीमित चर्चा में दो मुद्दों पर पक्ष रखूंगा. पहला, प्राकृतिक पूजक आदिवासी समुदायों में आदिवासी महिलाओं का असमान धार्मिक अधिकार और दूसरा संपत्ति पर अधिकार. विगत कुछ वर्षों को छोड़ दें तो इनका सरनास्थल में प्रवेश तक निषेध था. पुरखा पूजा में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती है. इसका एक ठोस कारण है. पुरखा पूजा आदिवासी आस्था का अविभाज्य तत्व है. इन पुरखों का घर समाज को रोगमुक्त, संकट मुक्त एवं समृद्ध रखने में विशेष भूमिका होती है.‘गोहराने’ की प्रक्रिया में विशेष सतर्कता बरती जाती है. घर के पुरुष मुखिया एक एक कर के प्रत्येक पुरखे को याद करता है और उनसे घर परिवार, खेत-खलिहान, पशु-पक्षी, जंगल-पहाड़, वर्षा इत्यादि के लिए याचना करता है. अब चूंकि, यह आदिवासी समाज पुरुष प्रधान है तो सामाजिक निषेध के कारण महिला अपने ससुराल में अपने से वरीय पुरुष का नाम नहीं ले सकती है. दूसरा कारण यह है कि चूंकि वह विवाह के बाद आयी है तो पूजा के समय वह पुरखों का नाम क्रमबद्ध लेने में चूक कर सकती है. इससे पुरखे नाराज हो सकते हैं और परिवार पर विपदा आ सकती है. इस कारण से महिलाओं को समान धार्मिक अधिकार आदिवासी समुदाय में प्राप्त नहीं है.

हाल में आदिवासी महिलाओं का पैतृक संपत्ति पर अधिकार चर्चा का विषय रहा है. विश्व आदिवासी समाज संपत्ति को दो रूप में देखता है- चल और अचल संपत्ति. नाइजीरिया के ‘याको जनजाति’ और सूडान के ‘नुएर जनजाति’ पशुपालक हैं और उनमें महिलाओं को चल संपत्ति में बराबर का अधिकार प्राप्त होता है. असल विडंबना तब आती है जब अचल संपत्ति की बात होती है और वह भी विशेषकर जब वह भूमि केंद्रित हो.

आइए एक काल्पनिक स्थिति पर चर्चा करें. मैं उरांव समुदाय से हूं और स्थायी कृषि पर आधारित हूं. मेरी बहन या बेटी का विवाह मैंने सुदूर गांव में कर दिया है. यदि पैतृक संपत्ति का बंटवारा हुआ तो मेरी बहन को भूमि, अधिकार द्वारा प्राप्त होगा. अब उसके पास दो विकल्प है. या तो ससुराल से वह मेरे गांव कृषि के लिए आए जो अव्यावहारिक लगता है या वह उस भूमि को बेच दे. ऐसी परिस्थिति में मात्र मेरे घर का ही नहीं, किंतु पूरे गांव का सामाजिक और आर्थिक संरचना धराशायी हो जाएगा. याद रखें मैं अभी चर्चा में मात्र पैतृक संपत्ति की बात कर रहा, अर्जित संपत्ति की नहीं. वहीं आदिवासी समाज में अविवाहित स्त्री या विधवा को पैतृक संपत्ति में अनंत काल तक जीने-खाने का अधिकार है.

अध्ययन के लिए अपने छात्रों के साथ अनेक बार दुर्गम क्षेत्रों में गया हूं. ऐसी ही एक घटना साझा करना चाहता हूं. सुदूर तोरपा के घने जंगलों से घिरा एक गांव जाना हुआ था. रास्ते में एक मनोरम नदी के किनारे थोड़े समय के लिए हम सब रुके. एक गैर आदिवासी छात्र ने नदी की ओर रुख कर के कहा-‘ अरे यहां तो पैसा ही पैसा है’. बाकी छात्र अगल बगल झांकने लगे. तब उस छात्र ने स्पष्ट किया कि- तुम सब को नदी का बालू नहीं दिख रहा है? यहां एक महत्वपूर्ण बात है जिसे सभी को समझने की आवश्यकता है. आदिवासियों के लिए जमीन, नदी, जंगल और पहाड़ ‘बिक्री की वस्तु’ नहीं है. ये उनके जीवन का अभिन्न अंग है. बड़े बड़े विद्वान, जन प्रतिनिधि, नीति निर्माता इस अवधारणा को ना तो समझने का प्रयास करते हैं और ना ही आदिवासियत की इस गूढ़ भावना को विकासात्मक योजना में आत्मसात करते हैं. माननीय न्यायालय में ऐसे अनेक फैसले आये, जिनमें हराधन बनाम झारखंड राज्य, नरासु अप्पा मोली, मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य एवं सबरीमाला निर्णय का आप सब को अवलोकन करना चाहिए.

मात्र अचल संपत्ति या धार्मिक असमानता को दूर कर के समानता नहीं लायी जा सकती है. इसके अलावा भी आदिवासी समाज में महिलाओं के संदर्भ में अनेक विसंगतियां एवं चुनौतियां हैं जिन पर त्वरित ध्यानाकर्षण अपेक्षित है. क्या हमारे आदिवासी समाज में महिलाओं को प्रजनन में स्वतंत्र निर्णय का अधिकार है? गांव में यह आम दृश्य है कि एक शिशु पीठ में है तो दूसरा हाथ पकड़ के चल रहा. समाज में यदि महिला समानता लाना है तो हमें उनकी शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक दृढ़ता, अच्छी शिक्षा, उच्च मनोबल के लिए सम्मिलित प्रयास एवं सहयोग करना होगा. हमारा उनके प्रति संवेदनशील हो जाना ही एक बड़ा योगदान होगा. एक शिक्षित महिला स्वयं में सबल है. जिस प्रकार वह अपने भीतर एक जीवन सृजन एवं संरक्षण करने की ईश्वरीय क्षमता रखती हैं, ठीक उसी प्रकार उसमें एक परिवार और समाज को भी सृजित और संरक्षित करने की क्षमता है. यह ‘पुरुष’ के बस की बात नहीं.

असिस्टैंट प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपोलोजी, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची

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