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निर्माण क्षेत्र बने अधिक रोजगारोन्मुखी

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शोध व अनुसंधान को स्कूली शिक्षा से भी जोड़ना होगा. हमें अपनी इस सोच में भी बदलाव लाना होगा कि अधिक आर्थिक विकास से आर्थिक असमानता बढ़ेगी. रुपये व डॉलर की लगातार तुलना तथा रुपये की कमजोरी को आर्थिक अक्षमता मान लेना भी ठीक नहीं है.

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हर कोई यह मानता है कि बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या है. सरकारों की सफलता व असफलता का पैमाना भी बेरोजगारी दर में वृद्धि व कमी पर निर्भर करता है. सीएमआईए के अनुसार अभी यह दर शहरी क्षेत्र में नौ प्रतिशत से अधिक और ग्रामीण क्षेत्र में करीब सात प्रतिशत है. पिछले वर्ष की औसत दर 7. 5 प्रतिशत रही है. पिछले तीन दशकों से कभी भी बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत से नीचे नहीं रही है.

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इस अवधि में मुल्क की आबादी 50 करोड़ के आसपास बढ़ी है, यानी बेरोजगारों की संख्या लगातार तेजी से बढ़ती जा रही है. हमारे मुल्क को ‘रोजगार विहीन आर्थिक वृद्धि’ के तौर पर देखा जाता है. इस संदर्भ के पीछे मुख्य कारण यह है कि विनिर्माण क्षेत्र का योगदान व्यक्ति के आर्थिक जीवन में काफी कम है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2019 तक मात्र छह करोड़ लोग ही विनिर्माण क्षेत्र के विभिन्न रोजगारों में संलग्न थे. आगे के दो वित्तीय वर्ष महामारी की भेंट चढ़े थे, इसलिए इस आंकड़े में वृद्धि शायद नहीं हुई होगी.

पिछले तीन दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास की बागडोर सेवा क्षेत्र के हाथ में है, पर 2019 तक कुल श्रम संख्या के मात्र 32 प्रतिशत लोग ही सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए थे. बाकी बचे लोग कृषि क्षेत्र पर या विभिन्न तरह के असंगठित क्षेत्रों में संलग्न है. वर्ष 2011 के बाद सरकारी स्तर पर कोई ऐसा सर्वे उपलब्ध नहीं है, जो बता पाये कि जनसंख्या का कितना प्रतिशत भाग वास्तव में रोजगार प्राप्त कर रहा है और किन क्षेत्रों में.

फिर भी उपलब्ध कई रिपोर्टों के मुताबिक 44 प्रतिशत आबादी असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही है, जहां रोजगार की कोई गारंटी या सुरक्षा नहीं है. कर्मचारी कल्याण व वेतन बढ़ोतरी के संदर्भ में भी कोई नीतियां नहीं पायी जाती है. इसके अलावा करीब 46 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, पर वे वास्तव में कितना कमा रहे हैं, इसके आर्थिक आंकड़े उपलब्ध नहीं है. शेष 10 प्रतिशत आबादी औपचारिक रूप से विभिन्न प्रकार के रोजगार, नौकरियों और व्यापार-धंधों के माध्यम से, में संलग्न है. यह स्थिति आर्थिक विकास में कई अवरोध पैदा कर रही है. इसमें लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता मुख्य है.

इसके अलावा भारत तेजी से बढ़ता युवा मुल्क भी बन रहा है. आने वाले दो-तीन दशकों में हमारी युवा शक्ति को किन क्षेत्रों में उपयोग में लाया जायेगा, यह गहन सोच का विषय बनता जा रहा है. आर्थिक विकास के संदर्भ में एक मुख्य समस्या यह भी है कि भारत में साक्षरता दर का आंकड़ा अभी भी तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले काफी कम है. भारत की श्रम शक्ति भागीदार दर 49 प्रतिशत है, जो एशिया में सबसे कम है.

चीन में यह 68 प्रतिशत है. इसी कारण भारत में तकरीबन हर परिवार में कमाने वाले पर निर्भर रहने वालों की संख्या अधिक है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में 15 से 64 वर्ष के आयु वर्ग के कामकाजी समूह के अंतर्गत करीब 92 करोड़ लोग हैं, जबकि चीन में यह संख्या 100 करोड़ है.

आगामी 20 वर्षों के बाद इस आयु वर्ग के समूह में चीन भारत से पिछड़ जायेगा और नये 16 करोड़ व्यक्ति भारत में इस आयु वर्ग समूह में जुड़ जायेंगे यानी 2040 तक भारत में कामकाजी समूह के व्यक्तियों की संख्या करीब 109 करोड़ होगी. पाकिस्तान में इस दौरान छह करोड़, बांग्लादेश में 1.9 करोड़ और चीन में 11.4 करोड़ लोग जुड़ेंगे. स्पष्ट है कि आगामी 20 वर्षों में भारत एक ऐसा मुल्क बन जायेगा, जहां कामकाजी व्यक्तियों की संख्या सबसे अधिक होगी. प्रश्न यह है कि क्या हम आत्मनिर्भर बन कर उन्हें रोजगार के अवसर उपलब्ध करवायेंगे या वह स्थिति हमारे लिए आर्थिक संकट का नया कारण बन जायेगी.

विनिर्माण क्षेत्र के निर्यात में भारत का हिस्सा करीब 1.45 प्रतिशत ही है, जबकि हमारी आबादी के सात प्रतिशत के बराबर का मुल्क वियतनाम हमसे ज्यादा अंशदान रखता है. इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे यहां शोध व अनुसंधान पर बहुत कम निवेश है. पिछले वित्त वर्ष में जीडीपी का मात्र 0.7 प्रतिशत ही इस मद में निवेश किया गया था, जबकि इस्राइल में यह 4.6 प्रतिशत था, तो चीन में 2.1 प्रतिशत. शोध व अनुसंधान को स्कूली शिक्षा से भी जोड़ना होगा. हमें अपनी इस सोच में भी बदलाव लाना होगा कि अधिक आर्थिक विकास से आर्थिक असमानता बढ़ेगी. रुपये व डॉलर की लगातार तुलना तथा रुपये की कमजोरी को आर्थिक अक्षमता मान लेना भी ठीक नहीं है.

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