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भारतीय सिनेमा और गांधी: जब सेक्रेटरी ने कहा था- फिल्म के लिए महात्मा को क्यों बर्बाद करना चाहते हो…

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महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केंद्र, कोलकाता फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' और 'रंग दे बसंती' फिल्में गांधीवादी मूल्यों को नये सिरे से देखने की दृष्टि देती हैं. 'लगे रहो मुन्ना भाई' गांधी की तस्वीरों व मूर्तियों में दर्ज छवि से तथा गांधी विचारों को गंभीरता से मुक्त करती है.

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भारत में सिनेमा और खेल मनोरंजन के लोकप्रिय साधन हैं. गांधी की इन मनोरंजन के साधनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. पर खेल पर प्रकाशित एक किताब की विषय सूची में गांधी का नाम चालीस बार आया है. गांधी जी की सिनेमा में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन उन्होंने भारतीय सिनेमा को भी प्रभावित किया है. डॉ राममनोहर लोहिया ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘इस देश को एक रखने वाली दो ताकतें हैं- पहले गांधी और दूसरा सिनेमा.’ यह जानना दिलचस्प होगा कि गांधी ने अपने जीवन में केवल दो ही फिल्में देखी थीं- ‘रामराज्य’ और ‘मिशन टू मॉस्को.’ वी शांताराम ने जब फिल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ के मुहूर्त पर गांधी जी को आमंत्रित किया था, तो उन्हें उनके सेक्रेटरी का जवाब मिला था- फिल्म के लिए तुम महात्मा का वक्त क्यों बर्बाद करना चाहते हो.

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इसके बावजूद भारतीय सिनेमा गांधी के प्रभाव के कारण ही सामाजिक हलचल से जुड़कर वह ताकत बन सका, जिसकी तुलना लोहिया ने गांधी की ताकत से की थी. उनके आह्वान पर ही निर्माताओं ने स्वेच्छा से फिल्मों में चुंबन दृश्यों का निषेध किया था. भारतीय सिनेमा ने अपनी विकास यात्रा का आरंभ आदर्शवादी फिल्मों से किया था, फिर यथार्थवादी, गांधीवादी, मार्क्सवादी, व्यावसायिक या लोकप्रिय सिनेमा के साथ कला सिनेमा व समानांतर सिनेमा तक की एक लंबी यात्रा तय की है. भारतीय सिनेमा में गांधी के प्रभाव को सिनेमा की दोनों धाराओं लोकप्रिय सिनेमा और कला सिनेमा में देखा जा सकता है.

कथा फिल्मों के इतिहास में गांधी पर फिल्म बनाने की पहली कोशिश एके चेट्टियार की तमिल फिल्म ‘महात्मा गांधी’ में मिलती है, जिसे 1940 में बनाया गया था. अलग अलग जगहों पर घूमकर चेट्टियार ने गांधी जी से संबंधित पचास हजार फुट फिल्म एकत्र की थी. गांधी जी पर जो फिल्में गांधी फिल्म फाउंडेशन और अन्य लोगों के द्वारा बनायी गयीं, उनके बारे में कहा जाता है कि वे उस संग्रहालय की महत्वपूर्ण सामग्री के बिना संभव नहीं थीं, जिनकी खोज चेट्टियार ने की थी. गांधी पर बनी सबसे चर्चित फिल्म ‘गांधी’ है, जिसे रिचर्ड एटेनबरो ने 1982 में बनायी थी. इसके निर्माण का अनुबंध जब एटेनबरो के साथ हुआ, तो एक विदेशी को अनुबंधित करने का विरोध भारतीय फिल्म उद्योग के द्वारा हुआ था. श्याम बेनेगल ने ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ बनायी, जो 12 लाख रुपये के कम बजट में बनी. एटेनबरो और बेनेगल की कोई तुलना नहीं की जा सकती है तथा दोनों फिल्में गांधी को जानने-समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं. ‘हे राम’, गांधी माय फादर, मैंने गांधी को नहीं मारा, नाइन आवर्स टू रामा, ‘पार्टिशन’ और भी कुछ फिल्मों को इस सूची में रखा जा सकता है.

कई निर्देशकों पर गांधी का प्रभाव देखा जा सकता है. ‘दो आंखें बारह हाथ’ में खूनी, लुटेरे, बदमाश और खूंखार कैदियों का हृदय परिवर्तन जेलर के द्वारा किया जाता है. इसमें मुख्य भूमिका निर्देशक शांताराम की है, जो गांधी की हृदय परिवर्तन की अवधारणा को मानते हैं और उसका प्रयोग कैदियों पर करते हैं. वर्ष 2009 में तेलुगु में बनी ‘महात्मा’ में भी एक उपद्रवी गांधीवाद से प्रभावित होकर हिंसा का मार्ग को छोड़ देता है.

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फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ और ‘रंग दे बसंती’ फिल्में गांधीवादी मूल्यों को नये सिरे से देखने की दृष्टि देती हैं. ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ गांधी की तस्वीरों व मूर्तियों में दर्ज छवि से तथा गांधी विचारों और मूल्यों को गंभीरता के आवरण से मुक्त कर सहज करती है. ‘रंग दे बसंती’ युवाओं में इतिहास की समझ को लेकर कई विमर्शों को जन्म देती है. यह फिल्म भी अतीत और वर्तमान के साथ समानांतर चलती है. सत्याग्रह, हल्ला बोल, नो वन किल जेसिका जैसी अनेक फिल्मों में गांधीवादी मूल्यों को देखा जा सकता है. फिल्मों में गांधी के विराट व्यक्तित्व को एक समयावधि में बांध पाना आसान नहीं है, लेकिन वे गांधी के विचारों को जानने के लिए प्रेरित अवश्य करती हैं. फिल्मों के साथ रंगमंच पर भी गांधी की उपस्थिति को, प्रतिरोध को देखा जा सकता है.

डॉ चित्रा माली

सहायक प्रोफेसर

गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग

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