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भारत की पहली दलित महिला अश्विनी केपी बनीं UN में विशेष दूत

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कर्नाटक के छोटे से शहर चिक्कबल्लापुर की रहने वाली अश्विनी केपी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में विशेष दूत (Special Enoy) बनी हैं. यह गौरव की बात इसलिए भी है कि इस मुकाम तक पहुंचने वाली वह न सिर्फ पहली भारतीय हैं, बल्कि एशिया की इकलौती महिला हैं.

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हौसला, हिम्मत और कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, तो गरीबी व जाति-धर्म की बाधाएं खुद-ब-खुद टूट जाती हैं. एक दलित परिवार में जन्मीं 36 वर्षीय अश्विनी केपी ने इस बात को सार्थक कर दिखाया है. कर्नाटक के छोटे से शहर चिक्कबल्लापुर की रहने वाली अश्विनी केपी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) में विशेष दूत (Special Enoy) बनी हैं. यह गौरव की बात इसलिए भी है कि इस मुकाम तक पहुंचने वाली वह न सिर्फ पहली भारतीय हैं, बल्कि एशिया की इकलौती महिला हैं.

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पहली भारतीय महिला अश्विनी केपी बनी विशेष दूत

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने जातिवाद, नस्लीय भेदभाव, जेनोफोबिया और असहिष्णुता जैसे समसामयिक मुद्दों पर रिपोर्ट करने के लिए अश्विनी केपी को स्पेशल रैपोर्टर्र यानी विशेष दूत नियुक्त किया है. इस मुकाम तक पहुंचने वाली वह पहली एशियाई और पहली भारतीय महिला हैं. दरअसल, कुछ दिन पहले जांबिया के रहने वाले ई तेंदाई अचियूम ने अपने तीन साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद यूएनएचआरसी की तीन सदस्यीय सलाहकार समिति ने भारत की दलित कार्यकर्ता और राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर अश्विनी केपी को स्पेशल रैपोर्टर्र नियुक्त किया है.

छोटे से शहर से जेनेवा तक का सफर

एक छोटे से शहर से जेनेवा तक का सफर तय करना हर किसी के बूते की बात नहीं है, लेकिन अश्विनी ने अपनी मेहनत, लगन और मजबूत इच्छाशक्ति की बदौलत यह कामयाबी हासिल की हैं. स्पेशल रैपोर्टर्र की रेस में अश्विनी केपी के अलावा भारत मूल के ही जोशुआ कैस्टेलिनो और बोत्सवाना की यूनिटी डॉव भी शामिल थीं. अश्विनी यूएनएचआरसी की छठवीं स्पेशल रैपोर्टर्र हैं. इनका तीन साल का कार्यकाल एक नवंबर से शुरू होगा. इस पद पर अब तक अफ्रीकी देशों के लोग ही काम करते रहे हैं.

अश्विनी की जीवन यात्रा रही काफी दिलचस्प

कर्नाटक के एक छोटे शहर चिक्कबल्लापुर से यूएनएचआरसी में जगह बनाने वालीं अश्विनी की जीवन यात्रा काफी दिलचस्प और प्रेरणादायक रही है. अश्विनी का जन्म साल 1986 में एक दलित परिवार में हुआ था. उनके पिता कर्नाटक प्रशासनिक सेवा में अधिकारी थे. लिहाजा, उनकी शुरुआती स्कूली पढ़ाई कर्नाटक में ही हुई. सांवले रंग और मझोले कद की अश्विनी को एक दलित होने के कारण स्कूल और कॉलेज में काफी भेदभाव और अपमान झेलना पड़ा. इतना होने के बाद भी उन्होंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया और अपनी पढ़ाई जारी रखी. अश्विनी ने बेंगलुरु के माउंट कार्मेल कॉलेज से ग्रेजुएशन और सेंट जोसेफ कॉलेज से राजनीति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की.

गरीब लोगों को करना चाहती थी मदद

चिक्कबल्लापुर से सटे कोलार गोल्ड फील्ड्स के आसपास रहने वाले गरीब आदिवासी और दलित परिवारों की दयनीय स्थिति को देखकर वह काफी परेशान रहती थीं. वह उन लोगों के लिए कुछ करना चाहती थीं और उनकी आवाज बनना चाहती थीं. इससे प्रभावित होकर उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने का फैसला किया. जब उन्होंने कर्नाटक से बाहर पढ़ाई करने का फैसला किया, तो घरवालों ने भी उनका पूरा सपोर्ट किया.

जेएनयू से मिली हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठाने की ताकत 

अश्विनी केपी ने नयी दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के साउथ एशियन स्टडीज से एमफिल और पीएचडी की पढ़ाई की. पीएचडी के दौरान उन्होंने दलित मानवाधिकारों के संदर्भ में भारत और नेपाल का तुलनात्मक अध्ययन किया. उन्होंने अपनी थिसिस का विषय ‘दलित मानवाधिकारों का अंतरराष्ट्रीय आयाम: भारत और नेपाल का एक केस स्टडी’ रखा. डॉक्टरेट थीसिस की प्रक्रिया में उन्हें भारत और बाहर, दोनों जगह कई वरिष्ठ दलित कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों के साथ जुड़ने का अवसर मिला. उन्होंने उन कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों से बात की, जो संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न मंचों से जुड़े हुए थे. उनके अनुभव ने जाति और नस्लवाद की समस्याओं के बारे में एक समझ बनाने में काफी मदद की. जेएनयू में पढ़ते हुए अश्विनी संयुक्त दलित छात्र मंच की भी हिस्सा रहीं. इस मंच ने उन्हें स्टूडेंट एक्टिविज्म से अवगत कराया और हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज बनने की ताकत दी. कॉलेज में भी वह जाति-विरोधी और अंबेडकरवादी आंदोलनों के प्रति उन्मुख रहीं.

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया में सीनियर कैंपेनर के रूप में कर चुकी हैं काम

जेएनयू से पीएचडी करने के बाद अश्विनी ने कुछ समय के लिए बेंगलुरु के माउंट कार्मेल कॉलेज में गेस्ट फैकल्टी के रूप में काम किया, लेकिन सामाजिक बदलाव को लेकर वह काफी गंभीर थीं. इस क्षेत्र में वह कुछ करना चाहती थीं. लिहाजा, वर्ष 2017 में उन्होंने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया में सीनियर कैंपेनर के रूप में काम करने लगीं. एमनेस्टी इंटरनेशनल से जुड़ने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में आदिवासी समुदायों के हक और भूमि अधिकारों से संबंधित मुद्दों पर खूब काम किया. इस दौरान उन्होंने देखा कि किस तरह आदिवासी और दलित समुदाय के लोगों को वंश और व्यवसाय आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इन समस्याओं को उन्होंने पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया. काम के दौरान इन राज्यों के सबसे दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले स्वदेशी समुदायों के जीवन की सच्चाई का पता चला. इसी भावना के साथ उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में लंबे समय तक काम किया. इसी का नतीजा है कि आज वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान गढ़ पायी हैं.

रिपोर्ट : देवेंद्र कुमार

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