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चीन में जिनपिंग की तीसरी पारी

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चीन अब अमेरिकी विदेश नीति को अधिक संदेहास्पद दृष्टि से देखने लगा है तथा किसी भी नीति को चीन के विकास और दुनिया से उसे अलग-थलग करने की मुहिम का हिस्सा समझता है

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चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस का 20वां अधिवेशन 16 अक्टूबर से 22 अक्टूबर तक बीजिंग में आयोजित किया गया. यह आयोजन पांच वर्ष में एक बार होता है. इस बार 2296 प्रतिनिधि दस साल में एक बार होने वाले पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में बदलाव के लिए एकत्रित हुए थे. आयोजन के अंतिम दिन पार्टी अधिवेशन ने महासचिवीय प्रतिनिधि दल द्वारा नामित 204 सदस्यों वाली केंद्रीय समिति पर मुहर लगायी.

इस केंद्रीय समिति ने अपनी पहली बैठक में 24 सदस्यों वाली नयी पोलिट ब्यूरो और सात सदस्यों वाली पोलिट ब्यूरो की स्थायी समिति को चुना. हालांकि 204 सदस्यीय केंद्रीय समिति में 11 महिलाएं चुनी गयी हैं, पर पोलिट ब्यूरो स्थायी समिति में प्रवेश करना तो दूर, 24 सदस्यों वाली पोलिट ब्यूरो में भी एक महिला नहीं है. यह तब हो रहा है, जब चीनी महिलाएं जीवन के अन्य पहलुओं में पुरुषों से कम नहीं हैं. माओ का यह कहना कि स्त्रियां आधा आकाश हैं, राजनीति में अब तक चरितार्थ नहीं हुआ है. सामाजिक तथा आर्थिक प्रतिनिधित्व के साथ राजनीति प्रतिनिधित्व भी महिला सशक्तीकरण के लिए अति आवश्यक है.

इस बार का कांग्रेस कई मायने में हटकर रहा. चार दशकों से चली आ रही परिपाटी कि 68 वर्ष के हो चुके सदस्य राजनीति से अवकाश लेते थे तथा 67 वर्ष वाले सदस्यों को सम्भवतः एक मौका मिलता था, बर्शते वे दुबारा उसी पद के लिए न चुने जाएं. शी जिनपिंग पर उम्र और पद सीमा की बाध्यता नहीं लगी और वे तीसरी बार पार्टी के महासचिव बने. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार पोलिट ब्यूरो के स्थायी समिति या पोलिट ब्यूरो में पार्टी के युवा संगठन के किसी सदस्य को शामिल नहीं किया गया है, जो पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र के लिए अहम होता है.

शी के नजदीकी लोगों को इन शक्तिशाली समूहों में होना कई चीनियों को नागवार लगा है. परंतु प्रश्न यह उठता है कि शी क्यों तीसरी बार महासचिव बने और क्यों लंबे समय से चली आ रही परिपाटी को नजरअंदाज किया गया? कम्युनिस्ट सरकारों में हमेशा तख्तापलट या तानाशाही का खतरा रहता है. इस आशंका को दूर करने के लिए तं‍ेग शियाओपिंग ने सरकार बदलने का एक व्यवस्थित तरीका लाकर चीनी कम्युनिस्ट सरकार को इस आलोचना से परे रखा था. कई व्याख्याएं दी जा रही हैं शी के तीसरी बार पार्टी महासचिव बनने पर. उन सबको बिना पूरी तरह खारिज किये या शत प्रतिशत सही मानते हुए कुछ बातें रेखांकित की जा सकती हैं.

वर्ष 2017 में आयोजित 19वीं कांग्रेस के समय से ही चीन और अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं. चार दशकों से चली आ रहे चीन-अमेरिका संबंधों में अचानक बदलाव हुआ तथा निक्सन और किसिंजर द्वारा प्रायोजित चीन-अमेरिका संबंधों के सुनहरे काल की जगह व्यापार युद्ध ने ले ली. डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से दोनों देशों में दूरियां बढ़नी शुरू हो चुकी थीं. हांगकांग संकट को लेकर इसमें और तेजी आयी. जो बाइडेन के आने के बाद चीन-अमेरिका में कुछ सुधार होने के आसार थे और चीनी विद्वान आशान्वित लग भी रहे थे, पर अमेरिकी नीति में ज्यादा बदलाव नहीं आया.

यहां तक कि अमेरिका की घरेलू राजनीति में ताइवान को लेकर उलट-पलट शुरू हो गया, जो अमेरिकी कांग्रेस के सभापति नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा से और गहराया. यह चीनी दिलो-दिमाग पर शीतयुद्ध कालीन ताइवान के जख्मों को फिर से कुदेरने के लिए काफी था. यही कारण हैं कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने संविधान में संशोधन कर ताइवान की आजादी का पुरजोर विरोध करना पार्टी का एक अहम लक्ष्य बना दिया है. पहली बार चीन और ताइवान के बीच बने ‘1992 सहमति’ का कोई जिक्र तक नहीं किया गया 20वीं कांग्रेस में.

यहां तक कि 72 वर्षीय चांग यौशिया, जिनके पास वियतनाम युद्ध का अनुभव है, को केंद्रीय मिलिटरी आयोग का प्रथम उप सभापति बनाने के साथ पार्टी के केंद्रीय समिति का सदस्य भी बनाया गया है. वहीं 68 वर्ष से अधिक आयु के तीन सैनिक जनरलों को अवकाश दे दिया गया है. हालांकि ‘एक देश और दो व्यवस्था’ को अभी भी शांति स्थापित करने के एकमात्र मार्ग के रूप में प्रस्तावित किया गया है. रूस-यूक्रेन युद्ध ने भी असर दिखाया है.

चीन अब अमेरिकी विदेश नीति को अधिक संदेहास्पद दृष्टि से देखने लगा है तथा किसी भी नीति को चीन के विकास और दुनिया से उसे अलग-थलग करने की मुहिम का हिस्सा समझता है, चाहे वह क्वाड की बढ़ती प्रासंगिकता हो या हिंद-प्रशांत नीति का विस्तार या फिर रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध तथा उसे अलग-थलग करने की पश्चिमी देशों की कोशिश. गलवान में भारत और चीन की टुकड़ियों के बीच हुई झड़प से पैदा हुई स्थिति 1962 के बाद भारत-चीन संबंधों में सबसे बड़ा संकट बनकर उभरी है.

इन सबको लेकर चीन में एक हवा बनी कि देश में एक मजबूत नेतृत्व तथा निरंतरता जरूरी है. तो यूं कहें कि चीन बाह्य वातावरण में आये विपरीत बदलाव को लेकर आंतरिक रूप से अपने को संगठित और दृढ़ संकल्पित दिखाने के लिए शी के नेतृत्व में फिर से मजबूत दिखना चाहता है. चीन आंतरिक रूप से भी एक मजबूत राष्ट्र और दो शताब्दी लक्ष्यों में दूसरा लक्ष्य- चीन को 2049 तक एक आधुनिक समृद्ध समाजवादी देश बनाने का संकल्प- को पूरा करना चाहता है, जो इस प्रतिलोम बाहरी वातावरण में चीन के लिए असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन जरूर साबित होगा.

नये युग का आगाज, जो शी जिनपिंग ने 19वीं पार्टी कांग्रेस के समय किया था, पर चीन-अमेरिका तनाव, ताइवान-हांगकांग की समस्या, कोविड जनित स्वास्थ्य एवं आर्थिक दिक्कतें तथा बाह्य वातावरण में व्यापक परिवर्तन आदि कारकों का धुंध-सा लग गया है. ये ही बातें शी जिनपिंग ने अपने भाषण में करते हुए अमेरिकी खेमे पर चीन को ब्लैकमेल करने, अलग-थलग तथा उसकी नाकेबंदी करने के आरोप मढ़ा है.

चीनी जनता को शी जैसा मजबूत नेता ही इस भवंर से निकाल पायेगा, ऐसा विश्वास कराया गया, जो शी की तीसरे पारी को घरेलू जनता के सामने न्यायोचित ठहराने के लिए काफी हैं. चीनी-अमेरिकी व्यापार युद्ध से आये घरेलू आर्थिक संकट, हांगकांग और ताइवान में उमड़ती आजादी की लहरें, चीन-अमेरिका संबंधों में बदलाव, कोविड समस्या, विश्व राजनीति में शक्ति संतुलन में हलचल तथा शी की महत्वाकांक्षा ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को शीत युद्ध का जामा पहना दिया है

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