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पर्यावरण एवं उद्योग

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देशों और शहरों की तरह दुनियाभर में बड़ी औद्योगिक एवं कारोबारी कंपनियों ने अपने स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने का संकल्प लिया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि इन संकल्पों को लेकर उनकी समुचित प्रतिबद्धता नहीं हैं. मिस्र के शर्म अल-शेख में चल रहे जलवायु सम्मेलन को संबोधित करते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कंपनियों के व्यवहार की विसंगतियों को रेखांकित किया है.

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उन्होंने कहा है कि एक तरफ तो कंपनियां उत्सर्जन घटाने और निर्धारित समय के भीतर उसे शून्य के स्तर पर लाने की बातें करती हैं, लेकिन दूसरी तरफ वे जीवाश्म ईंधनों में निवेश करती हैं, अपनी गतिविधियों से वनों का क्षरण करती हैं तथा उत्सर्जन घटाने के बजाय बढ़ाती हैं. जैसा कि गुटेरेस ने कहा है कि उत्सर्जन कम करने के झूठे वादे निंदनीय हैं. इस तरह की प्रवृत्तियों पर रोक लगाना आवश्यक है. उन्होंने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित बिंदुओं के अनुसार शहरों और क्षेत्रों को अपने संकल्पों की समीक्षा कर एक साल के भीतर रिपोर्ट देनी चाहिए.

यह स्वागतयोग्य है कि अनेक देशों और क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन एवं उपभोग को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है तथा उसके परिणाम भी संतोषजनक हैं. उदाहरण के तौर पर भारत में सौर ऊर्जा पैनलों को लगाने का काम बहुत तेजी से बढ़ रहा है तथा इलेक्ट्रॉनिक वाहनों में भी लोगों की दिलचस्पी में बढ़ोतरी हो रही है. लेकिन एक देश या कुछ क्षेत्र की ऐसे उपलब्धियों से ही जलवायु परिवर्तन और धरती का तापमान बढ़ने की गंभीर चुनौतियों का समाधान संभव नहीं है.

उत्सर्जन कम करने के प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए. इसमें शहरों और उद्योगों की अग्रणी भूमिका होनी चाहिए क्योंकि तापमान बढ़ने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यही हैं. स्थिति यह है कि एक ओर उत्सर्जन में भी उल्लेखनीय कमी नहीं आ रही है, पर दूसरी ओर वैश्विक अर्थव्यवस्था के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से ने इसे घटाने का कोई-न-कोई संकल्प लिया हुआ है. आगामी दशकों में अगर उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाना है, तो उत्सर्जन में लगातार बड़ी कमी करनी होगी तथा स्वच्छ ऊर्जा में निवेश बढ़ाना होगा.

एक बड़ी समस्या यह है कि कंपनियां इस दिशा में क्या कर रही हैं, उसका आकलन कर पाना बहुत कठिन है. इसके लिए पारदर्शिता बढ़ाने की आवश्यकता है. कंपनियों के कहे पर भरोसा करना दुनिया के लिए आत्मघाती होगा. पेरिस समझौते में यह निर्णय लिया गया था कि पूर्व औद्योगिक स्तर से तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है. इसके लिए 2030 तक उत्सर्जन को आधा करना होगा. आशा है कि उद्योग जगत अपने उत्तरदायित्व को ठीक से निभायेगा.

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