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जनजातीय उत्थान को समर्पित सरकार

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जिस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ मानवता की आवाज बन रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा गुलामी के खिलाफ लड़ाई का एक अध्याय लिख चुके थे.

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मेरे लिए सबसे सौभाग्य की बात है कि मेरे जनजातीय कार्य मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 15 नवंबर, 2021 को भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने के अमृत काल के रूप में जनजातीय शौर्य के प्रतीक, स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा जी की जयंती और समस्त आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मंजूरी दी है.

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भारतीय इतिहास और संस्कृति में जनजातियों के विशेष स्थान और योगदान का सम्मान करने और पीढ़ियों को इस सांस्कृतिक विरासत तथा राष्ट्रीय गौरव को संरक्षित करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से यह निर्णय लिया गया है. आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड में अपने 35 वर्षों के राजनीतिक जीवन में जल, जंगल, जमीन का संघर्ष करते हुए यह पाया कि आजादी से लेकर अब तक हमारे समुदाय के जिन लोगों ने देश के लिए बलिदान दिया, उन्हें न तो इतिहास में समुचित स्थान मिला और न ही सम्मान.

जनजातीय समाज प्रकृति के साथ जुड़कर अपनी खुशियां ढूंढ लेता है. विश्व की जनजातीय आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा (लगभग साढ़े दस करोड़ लोग) भारत में है, लेकिन इन 75 सालों में इस आबादी को समाज की मुख्यधारा से अलग रखा गया. देश में सर्वाधिक समय तक राज करने वालों ने जनजातीय समाज की परंपरा व संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के बजाय ऐसी चीजों को संरक्षण दिया, जिसका समाज पर दुष्प्रभाव पड़ा.

मोदी सरकार ने यह निर्णय लिया है कि जनजातीय समाज की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता तथा आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में आदिवासियों के प्रयासों को मान्यता देने के लिए प्रतिवर्ष ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मनाया जायेगा. मुझे गर्व है कि भगवान बिरसा मुंडा की जन्मस्थली खूंटी मेरी कर्मस्थली है. हम सभी के लिए भगवान बिरसा एक व्यक्ति नहीं, एक परंपरा हैं. वे उस जीवन दर्शन के प्रतिरूप हैं, जो सदियों से भारत की आत्मा का हिस्सा रहा है.

हम उन्हें यूं ही ‘धरती आबा’ नहीं कहते. जिस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ मानवता की आवाज बन रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा गुलामी के खिलाफ लड़ाई का एक अध्याय लिख चुके थे. वे लंबे समय तक इस धरती पर नहीं रहे, लेकिन उन्होंने जीवन के छोटे से काल खंड में देश के लिए एक पूरा इतिहास लिख दिया, भारत की पीढ़ियों को दिशा दे दी.

आजादी के अमृत महोत्सव में आज देश इतिहास के ऐसे अनगिनत पृष्ठों को पुनर्जीवित कर रहा है, जिन्हें बीते दशकों में भुला दिया गया था. देश की आजादी में कितने ही सेनानियों का त्याग और बलिदान शामिल है, जिन्हें समुचित पहचान नहीं मिली. हम अपने स्वाधीनता संग्राम के दौर को देखें, तो शायद ही ऐसा कोई कालखंड हो, जब देश के अलग-अलग हिस्सों में कोई न कोई आदिवासी क्रांति नहीं चल रही हो.

आजादी के लिए संताल विद्रोह, खासी विद्रोह, फूकन एवं बरुआ विद्रोह, नगा संग्राम, भूटिया लेप्चा विद्रोह, पलामू विद्रोह, खरवाड़ विद्रोह, टट्या मामा विद्रोह, केरल के आदिवासी किसानों की क्रांति आदि अनेक ऐसे आंदोलन हैं, जिन्होंने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी. उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम तक कोई क्षेत्र एवं जनजाति ऐसी नहीं है, जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान न हो.

इनमें भगवान बिरसा मुंडा, शहीद सिदो व कान्हू मुर्मू, तिलका मांझी, तेलंगा खड़िया, नीलांबर-पीतांबर, शहीद वीर बुधु भगत, जतरा भगत, पोटो हो, गया मुंडा, दिवा किशुन, वीर नारायण सिंह, अल्लूरी सीता राम राजू, रानी गौंडिल्यू, रघुनाथ शाह और शंकर शाह, खाज्या नायक, सीताराम कंवर, भीमा नायक, रघुनाथ सिंह मंडलोई, सुरेंद्र साय, टंट्या भील, मंशु ओझा, रानी दुर्गावती, मुड्डे बाई आदि ने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी.

जनजातीय समाज के स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान को दिखाने के लिए झारखंड में बिरसा मुंडा जेल स्थित म्यूजियम के अलावा अलग-अलग राज्यों में ऐसे ही नौ और म्यूजियम बन रहे हैं- गुजरात के राजपीपला, आंध्र प्रदेश के लांबासिंगी, छत्तीसगढ़ के रायपुर, केरल के कोझिकोड, मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, तेलंगाना के हैदराबाद, मणिपुर के तामेन्ग-लॉन्ग, मिजोरम के केलसिह तथा गोवा के पौंडा में. इनसे न केवल नयी पीढ़ी आदिवासी इतिहास के गौरव से परिचित होगी, बल्कि इन क्षेत्रों में पर्यटन को भी नयी गति मिलेगी. ये म्यूजियम आदिवासी समाज के गीत-संगीत, कला-कौशल, दस्तकारी और शिल्प जैसी विरासतों का संरक्षण एवं संवर्धन भी करेंगे.

जनजातीय समाज को उचित सम्मान और उनके योगदान को इतिहास में दर्ज करने के लिए सरकार काम कर रही है. सरकार जनजातीय समाज में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की भी चिंता कर रही है. जनजातीय बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए देश भर में 700 से अधिक एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय बन रहे हैं. प्री मैट्रिक से लेकर विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी छात्रवृत्ति दी जा रही है. बच्चों को कौशल विकास के साथ रोजगार से जोड़ने की पहल हो रही है.

पहले की सरकार ने वनों में रहने वाले जनजातीय समाज के वन पर उनके अधिकार के बारे में नहीं सोचा. मोदी सरकार एक समन्वय के साथ उन्हें वनाधिकार पट्टा देने का काम कर रही है. आजादी के अमृत काल की सबसे बड़ी उपलब्धियों में देश के शीर्षस्थ पद पर आदरणीय द्रौपदी मुर्मू का आसीन होना भी है. वे देश की पहली जनजातीय राष्ट्रपति हैं और न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में एक मिसाल बन चुकी हैं.

यह मोदी सरकार का जनजातीय समाज के प्रति सम्मान ही है कि वार्ड काउंसिलर से लेकर राष्ट्रपति बनने तक का अवसर एक आदिवासी महिला को दिया. यह लोकतंत्र की जननी भारतवर्ष की महानता है. यह हमारे लोकतंत्र की शक्ति ही है कि एक गरीब घर में पैदा हुई बेटी, सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पैदा हुई बेटी भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंची है.

देश की सीमाओं, सुदूर पहाड़ों एवं जंगलों में फैले जनजाति समाज की संस्कृति व गौरवपूर्ण परंपरा को देश के सम्मुख लाने के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मील का पत्थर साबित होगा. भगवान बिरसा मुंडा का जन्म दिवस 15 नवंबर इसके लिए सर्वथा उपयुक्त है. देश एवं जनजाति समाज का गौरव बढ़ाने वाले हुतात्माओं के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है. इस शुभ दिवस पर हम मोदी सरकार को धन्यवाद देते हुए जनजाति समाज के सहयोग से अलगाववादी शक्तियों को पराजित करने का संकल्प लें.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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