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विपक्ष की राह मुश्किल

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हिमाचल में केजरीवाल को एक प्रतिशत के आसपास वोट मिला है और सभी सीटों पर जमानत जब्त हुई है.

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मेरी दृष्टि में हिमाचल प्रदेश का परिणाम कांग्रेस के लिए बोनस है. हालांकि पार्टी सक्रिय रही थी, लेकिन उसमें अनेक धड़े भी थे, इसलिए खतरा भी लग रहा था. जो नतीजे आये हैं, उनमें भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर बहुत मामूली है, पर सीटों में खासा अंतर है. जो राज्य के चुनाव होते हैं, उसमें स्थानीय कारक प्रमुख होते हैं. गुजरात में पीएम मोदी एक क्षेत्रीय कारक भी तो हैं, क्योंकि वे वहीं से आते हैं. उनकी लोकप्रियता प्रभावी है.

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वहां के मुख्यमंत्री का कोई असर नहीं है. उनका महत्व यही है कि वे पटेल समुदाय से आते हैं और वह समुदाय अनेक कारणों से भाजपा से नाराज था. उनके आंदोलन को बेअसर करने के लिए भूपेंद्र पटेल को चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बनाया गया था, जबकि वे पहली बार ही विधायक बने थे. इस चुनाव में कोई भी उम्मीदवार उन्हें नहीं बुला रहा था. सभी का आग्रह प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए होता था. ऐसा हिमाचल में नहीं हो सका और वहां स्थानीय मुद्दे हावी हो गये तथा कांग्रेस को जीत मिली.

आप के प्रदर्शन को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखने की आवश्यकता नहीं है. गुजरात में उन्हें पाटीदार आंदोलन का ही कुछ लाभ मिला है. उसी आंदोलन के एक धड़े के आने से आप ने सूरत नगरपालिका में 27 सीटें जीती थीं. सूरत सौराष्ट्र का हिस्सा है. इसी इलाके से आप की पांच में से चार सीटें आयी हैं. एक सीट आदिवासी क्षेत्र से मिली है. वह उम्मीदवार एक स्थानीय पार्टी से संबद्ध है, जो इनके चिह्न पर लड़ा था. अच्छे प्रचार से भी कुछ वोट इन्हें मिले हैं. हिमाचल में केजरीवाल को एक प्रतिशत के आसपास वोट मिला है और सभी सीटों पर जमानत जब्त हुई है.

अब विपक्ष के लिए एक ही रास्ता बचता है कि सभी मिलाकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनायें और उसके आधार पर एक हों. इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है, वरना भाजपा इन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ती रहेगी. कभी कभी स्थानीय कारकों के चलते हिमाचल जैसे परिणाम मिलेंगे, लेकिन केंद्र में सत्ता बदलने का इरादा पूरा नहीं हो सकेगा. दिल्ली नगर निगम में आप को विधानसभा की तुलना में 12 फीसदी वोट कम मिले हैं. अगर कांग्रेस थोड़ा दम लगाकर लड़ती, तो आप के लिए जीत पाना मुश्किल हो जाता. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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