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Life Lessons: जीवन के उस पार भी है एक जीवन

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Life Lessons: ‘आया है, सो जायेगा, राजा रंक फकीर...’ राजा, रंक, फकीर ही क्यों, समस्त जड़-चेतन में से काई भी स्थायी नहीं है. काल के गाल में सबको समाना ही है. जब जिसका समय आयेगा, किसी के रोके नहीं रुकेगा. उत्पत्ति अंत से जुड़ी हुई है. जीवन की अवस्थाएं पड़ाव लेने के लिए ही आगे बढ़ती हैं.

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मार्कण्डेय शारदेय

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(ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)

Life Lessons: भारतीय संस्कृति मृत्यु को जीवन की समाप्ति नहीं मानती. इसकी मान्यता है कि कर्मक्षय से जीवनांत, अर्थात् मोक्ष होता है. मोक्ष की भी अंतिम परिणति कैवल्य में है, जो अनेकानेक जन्मों के सत्कर्मों व पुण्य-प्रतापों से संभव है. हम कर्मफल के जब तक भागीदार रहेंगे, तबतक जन्म-मरण की चक्की में पिसते रहेंगे. गीता कहती है. अर्थात्, सात्त्विकजन का ऊर्ध्वगमन (स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति), राजसी प्रवृत्तिवालों का मध्यम लोक (पुनः मनुष्यरूप) में पुनरागमन तथा तामसी प्रवृत्तिवालों का स्थावर-जंगम प्राणियों के रूप में अधोगमन होता है.

मृत्यु के बाद की ये ही तीन परिणतियां हैं. ये तीनों क्रमशः ज्ञान, लोभ, प्रमाद-मोह के आश्रयी हैं. ज्ञान सत्यनिष्ठ होता है, लोभ सत्य और मोह व ज्ञानाज्ञान के मध्य होता है एवं प्रमाद व मोह अज्ञान के करीब होता है, इसीलिए ऊर्ध्वगमन और अधोगमन दो मुख्य गतियां हैं. ये दोनों कर्म-सिद्धांत पर ही निर्भर हैं. आशय यह कि सात्त्विक वृत्ति से कर्म करते-करते जब क्रियमाण कर्म के प्रति अनासक्ति आती गयी, तो विदेहत्व आ जाता है और व्यक्ति ऊर्ध्वगामी होने लगता है. इसके विपरीत तामसी प्रवृत्तियों और कर्मासक्ति के कारण अधोगामी होने लगता है.

यहां ‘लगता है’ का प्रयोग इसलिए कि यह केवल एक-दो जन्मों की देन नहीं है, बल्कि जैसे बूंद-बूंद घड़ा भरता है, वैसी ही स्थिति यहां भी मान्य है. पाप-पुण्य, सत्कर्म-दुष्कर्म, ज्ञान-अज्ञान- इनके सम्मिश्रण से मानव-शरीर बनता है. अधिक उत्तमताओं से उत्तम मानव, अधिक दुष्कृतों के कारण अधम मानव. सत्कर्मों और दुष्कर्मों के कारण ही धनी-गरीब, रोगी-नीरोग, विद्वान-मूर्ख, सदाचारी-दुराचारी, बहादुर-डरपोक आदि होने का तथा तदनुसार माता-पिता, परिवेश व देश-काल मान्य है.

सहजतया यह देखा जाता है कि मृत्यु के बाद शरीर को जला दिया जाता है, दफना दिया जाता है या प्रवाहित कर दिया जाता है. इस पर यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि पुनर्जन्म कैसे? चार्वाक-जैसे लोग भी कहते हैं- ‘भस्मीभूतस्य भूतस्य पुनरागमनं कुतः’? वस्तुतः हमारे आस्तिक दर्शन मानते हैं कि स्थूल शरीर का ही क्षय होता है. मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर के साथ सूक्ष्म मन अलग हो जाता है, जो अपने कर्मानुसार देवयान (अर्चिमार्ग) तथा पितृयान (धूममार्ग) को प्राप्त करता है. देवयान मोक्षमार्ग है, तो पितृयान भोगमार्ग. पितृमार्गी सूक्ष्म शरीर, अर्थात् जीवात्मा कर्मभोग के लिए मनुष्य या मनुष्येतर योनियों में आकर अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगता रहता है. वह अधिक पाप कर्मों के कारण पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता, तृण-गुल्म, पत्थर तक हो सकता है और प्रारब्ध-भोग व दंडभोग के बाद पुनः स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाते-जाते मोक्ष तक पहुंच जाता है.

दरअसल, जीव जन्मपूर्व तथा मृत्यु के पश्चात् सूक्ष्म ही होता है (गीता:2.28). इसमें शरीर-धारण विविध वस्त्र-धारण के समान है (गीता: 2.22). यह धारण तब तक चलता रहेगा, जब तक परम लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता. इसी को आत्म-साक्षात्कार, आत्यंतिक दुख की निवृत्ति, आत्यंतिक सुख की प्राप्ति, निर्वाण, मुक्ति, कैवल्य- जैसे नामों से जाना जाता है. जिस तरह भुने हुए अन्न में पुनः अंकुरण नहीं होता, उसी तरह मुक्त जीव पुनर्जन्म से सदा-सदा के लिए छुट्टी पा लेता है. यह तभी संभव है, जब सूक्ष्मतम परम तत्त्व से निकला सूक्ष्म जीव निष्कर्म होकर अपनी सत्ता में समाहित हो जाये.

ऐसी मान्यता है कि पितृलोक गया जीव चंद्र-रश्मियों के माध्यम से अन्नादि में प्रविष्ट होकर रज-वीर्य व निषेचन के माध्यम से अपने नये शरीर को धारण करता रहता है. अगर पुनर्जन्म को न माना जाये, तो न्यायशास्त्रों के अनुसार दो दोष उत्पन्न हो सकते हैं- ‘कृतप्रणाश’ तथा ‘अकृताभ्यगम’.

हम जो भी करते हैं, उसका फल कभी-कभी इस जीवन में नहीं मिल पाता है. यदि पुनर्जन्म न माना जाये तो फल कभी नहीं मिलेगा. यानी कृत का नाश (कृतप्रणाश). पुनः कोई बालक अमीर घर में जन्मा तो कोई गरीब घर में. कोई सर्वांग-सुंदर तो कोई विकलांग, कुरूप पैदा होता है. अगर पुनर्भव होता ही नहीं तो ऐसा क्यों हुआ कि किसी को सारे सुख मिले और किसी को सारे दुख! यह तो अन्याय हो जायेगा न! बिन किये अपराध की सजा या बिन प्रताप का मजा- अकृत अभ्यागम, यानी जो किया ही नहीं, उसका फल पा लिया. हमारे शास्त्र कृत कर्मों पर ही सजा-मजा की बात करते हैं, इसलिए स्पष्ट है कि जीवन के उस पार भी जीवन ही है. मरण पूर्णविराम नहीं, अल्प विराम है. पूर्ण विराम तो मोक्ष है, जो साधते-साधते सधता है.

(लेखक की कृति ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)

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