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आज के युवा साफ-सुथरे, उनसे मायूस होने की नहीं है जरूरत : जावेद अख्तर

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राजधानी के आड्रे हाउस के ओपेन थियेटर में प्रभात खबर और टाटा स्टील का दो दिवसीय लिटरेरी मीट की शुरुआत की गई है. इस दौरान उद्घाटन के बाद जावेद अख्तर ने कहा कि आज के युवा साफ-सुथरे हैं, उनसे मायूस होने की जरूरत नहीं है.

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जाने-माने फिल्मकार, कवि, शायर और पटकथा लेखक जावेद अख्तर (Javed Akhtar) ने कहा है कि आज की पीढ़ी के युवा फेयर (साफ-सुथरे) हैं. उनमें जहर हम घोल रहे हैं. अच्छाई हममें नहीं है. हम भविष्य की पीढ़ी को लेकर मायूस हो रहे हैं. उनसे मायूस होने की जरूरत नहीं है. समय के साथ चीजें बदलती हैं. वे भी बदल रहे हैं. हमारी पीढ़ी भटक रही है, ऐसा 3500 साल पहले से कहा जा रहा है. आगे भी कहा जाता रहेगा. क्लासिकल वर्ल्ड में भी चीजें बदलती हैं. बदलनी भी चाहिए. भाषा के साथ भी यही होना चाहिए. भाषा शुद्ध होनी चाहिए. लेकिन, उसे अपनी जरूरत और सुविधा के हिसाब से बदल सकते हैं. भाषा एक नदी की धारा की तरह होती है. भाषा वही जिंदा होती है, जो समय के हिसाब से अपने को बदलती है. मेरा मानना है कि आज न तो भाषा न ही युवा पीढ़ी से भागने की जरूरत है. अख्तर शनिवार को राजधानी के आड्रे हाउस के ओपेन थियेटर में आयोजित प्रभात खबर-टाटा स्टील लिटरेरी मीट का उद्घाटन करने के बाद बोल रहे थे.

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जावेद अख्तर ने कहा : बोला जा रहा है कि आज लोग उतनी किताबें नहीं पढ़ते, जितनी पहले पढ़ी जाती थी. यह भी समझना चाहिए कि आज जिंदगी की रफ्तार तेज हो गयी है. पहले एक खत के आने और जाने में 10 दिन का समय लगता था. आज किसी तक मैसेज पहुंचाने में 10 सेकेंड भी नहीं लगता है. पहले समाचार प्रकाशन का समय तय होता था, आज 24 घंटे समाचार उपलब्ध है. ई-मेल, ट्वीटर, एसएमएस आदि ने जीवन की रफ्तार को तेज कर दिया है. हर चीज का टेम्पो (टेंपरामेंट) बढ़ रहा है. जैसे-जैसे टेम्पो बढ़ा है, वैसे-वैसे सहने की शक्ति कम हुई है. काम करने की तकनीक बदल रही है. कविता बदल रही है. कविता की गहराई कम हो रही है. यह होगा. इसमें हमारी भी गलती है, क्योंकि आज हम अपने बच्चों को पैसा कमाने के लिए तैयार कर रहे हैं.

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घरों का सजावटी आइटम होती जा रही हैं पुस्तकें

जावेद अख्तर ने कहा कि मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिन्होंने पुस्तकें अपने ड्राइंग रूम में सजाने के लिए खरीदी है. ड्राइंग रूम के मैचिंग के कवर वाली पुस्तक खरीदी है. खरीदे जाने के बाद एक बार भी पुस्तक नहीं खुली है. इसके बावजूद आज लिटरेरी मीट या फेस्ट में अगर युवा आ रहे हैं, तो वह सुनने और सीखने आ रहे हैं. लिखने की कला सीखना चाहते हैं. यह भी एक आर्ट और क्राफ्ट है. लिखने के समय यह ध्यान रखना होता है कि किस शब्द का इस्तेमाल कब और कहां करें.

बदल रहे हैं संचार के साधन

जावेद अख्तर ने कहा कि आज के समय में संचार के साधन भी बदल रहे हैं. पहले ट्रेडिशनल किताबें पढ़ी जाती थीं. आज इंटरनेट पर पढ़ी जा रही हैं. सिनेमा का स्थान ओटीटी ले रहा है. अगर समय के हिसाब से चलना है, तो तकनीक से दोस्ती करनी होगी. अगर ऐसा नहीं करेंगे, तो हार जायेंगे. यही हाल लिटरेचर (साहित्य) का भी है. यह जैसे-जैसे बदलेगा, उसके हिसाब से अपने को ढालना होगा.

साहित्य और किताबों में कम हो रही दिलचस्पी

प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने कहा कि आज लोगों की साहित्य और किताबों में दिलचस्पी कम होती जा रही है. पठन-पाठन से रिश्ता खत्म होता जा रहा है. पहले घरों में निजी लाइब्रेरी होती थी. उसका स्थान कप-प्लेट ने ले लिया है. पढ़े-लिखे लोगों की दुनिया छोटी होती जा रही है. इस तरह के आयोजन से पठन-पाठन को बढ़ावा मिलता है. पठन-पाठन नहीं होने से विचारों को नुकसान होता है. आज लोगों का मानस व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी तैयार कर रहा है. जब तक किसी विचारधारा को नहीं पढ़ेंगे, मानस नहीं बदल पायेंगे.

हम क्या सिखायेंगे, जनजातीय लोगों से हमें काफी कुछ सीखने की जरूरत है

आज हमें जनजातीय समाज से सीखने की जरूरत है. हम उनको क्या सिखायेंगे? सभी मामलों में वह हमसे आगे हैं. उनकी सामाजिक परंपरा, प्रकृति प्रेम हमलोगों से कहीं ज्यादा है. अभी भी उनसे हमें काफी कुछ सीखने की जरूरत है. प्रख्यात फिल्मकार जावेद अख्तर ने यह बात लिटरेरी फेस्ट के प्रश्नोत्तर सत्र में कही. जगन्नाथपुर की रहनेवाली प्रेरणा अपने साथ बस्ती की दो छात्राओं अनिशा व पल्लवी को लेकर पहुंची थीं. उन्होंने अख्तर साहब से सवाल पूछा कि आज हम ऊर्दू, हिंदी और अंग्रेजी की बात कर रहे हैं. लेकिन झारखंड में 30 से ज्यादा क्षेत्रीय भाषा है, उन पर कोई बात नहीं होती. आप मेरे साथ आयी जनजातीय बच्चों से क्या कहना चाहेंगे. इसके जवाब में जावेद अख्तर ने कहा कि वैल्यू सिस्टम, वैल्यू ऑफ नेचर आपको उनसे सीखने की जरूरत है. हम कितने सिविलाइज्ड हैं, यह रोजाना अखबारों में आता है? हम पूरी दुनिया में इनके रूट, समानता को बर्बाद और प्रदूषित कर रहे हैं. रोजाना कई एकड़ जंगल कट जाते हैं.

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