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फुटबॉल विश्वकप के बदलते रूप

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कतर में कुल 32 टीमों ने हिस्सा लिया था, लेकिन अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको में संयुक्त रूप से होने वाले 2026 के विश्वकप में टीमों की संख्या 48 होगी. बढ़ी हुई संख्या में एशिया और अफ्रीका की और टीमें शामिल होंगी. इससे आयोजन का रोमांच बहुत अधिक बढ़ जायेगा.

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इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि कतर में आयोजित फीफा फुटबॉल विश्वकप पिछले आयोजनों से कई अर्थों में अलग रहा है. खेल के तेजी इस बार देखने लायक थी. इसका नतीजा यह हुआ कि मैच के एकदम शुरू में ही हमें गोल देखने को मिले. दूसरी उल्लेखनीय बात यह हुई कि एशिया महादेश की टीमों ने शानदार खेल का प्रदर्शन किया.

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आम तौर पर पर यह बात कही जाती रही है कि उच्च श्रेणी का फुटबॉल तो यूरोप और लैटिन अमेरिका में ही होता है, पर इस बार जापान, दक्षिण कोरिया, सऊदी अरब और ईरान के खिलाड़ियों ने अपना दमखम दिखाया और अनेक मैचों में ये टीमें अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ीं. यह फुटबॉल आयोजन बहुत अधिक गोलों के लिए भी याद किया जायेगा. इस बार कुल 172 गोल हुए हैं. फाइनल मैच में जितने फील्ड गोल हुए इस बार, उतने गोल किसी और विश्वकप फाइनल में नहीं हुए.

यह आयोजन तकनीक के इस्तेमाल के लिए भी याद किया जाना चाहिए. वर्ष 2018 में रूस में आयोजित हुए विश्वकप में वीडियो असिस्टेंट रेफरी (वीएआर) तकनीक का पहली बार उपयोग किया गया था, जिसे इस बार और भी अच्छे ढंग से अपनाया गया. उसके कारण हमें पारदर्शी और प्रभावी खेल देखने का अवसर मिला. सभी को याद होगा कि 1986 में मैक्सिको में हुए विश्वकप में प्रसिद्ध खिलाड़ी माराडोना ने हाथ से गोल कर दिया था.

उस समय उसे रेफरी ने मान लिया और अर्जेंटीना की जीत हुई. जब वीडियो रिप्ले से पता चला कि गोल तो हाथ से हुआ था, तो इस पर माराडोना ने कहा था कि वह ‘हैंड ऑफ गॉड’ था. फुटबॉल ऐसा खेल है, जिसके विश्वकप के लिए खिलाड़ी चार साल तक तैयारी करते हैं. बहुत सारे खिलाड़ी टीम का हिस्सा बनने के लिए आते हैं, पर कुछ ही का अंतिम रूप से चयन हो पाता है. यह टीम तीन साल तक क्वालिफाईंग मैचों में तथा अन्य मैचों में खेलती है.

जैसे एशिया में 56 देश हैं, तो उनमें से विश्वकप जाने वाली टीमों को तय करने की प्रक्रिया तीन साल चलती है. इस विश्वकप के कुछ समय बाद ही क्वालीफाईंग मैचों का सिलसिला शुरू हो जायेगा. इस तरह की मेहनत और कोशिश बेकार नहीं हो, इसलिए वीएआर सिस्टम लाया गया है. तकनीक का प्रयोग अच्छी बात है. इसमें थोड़ा समय तो लगता है और इसीलिए हमने लगभग हर मैच में अतिरिक्त समय का खेल देखा, लेकिन इससे खेल में पारदर्शिता और धार बढ़ी है.

ऊपर हम लोगों ने संक्षेप में एशियाई टीमों के शानदार प्रदर्शन का उल्लेख किया है, पर हमें अफ्रीकी टीमों के खेल पर अधिक विस्तार से बात करनी चाहिए. अफ्रीकी टीम बॉडी कांटैक्ट की शैली से खेलती हैं. मोरक्को, घाना या सेनेगल की टीमों के खेल को देखें, तो साफ होता है कि वे ‘रफ एंड टफ’ स्टाइल में खेलते हैं, लेकिन इस बार मोरक्को ने दिखाया दिया कि उनके पास उत्कृष्ट कौशल भी है. इस टीम ने राउंड मैचों में केवल एक गोल खाया, जो सेल्फ गोल था. सेमीफाइनल में भले वह हार गयी, लेकिन उसमें भी टीम का खेल किसी भी दृष्टिकोण से कमतर नहीं था.

यह मैं ही नहीं, बल्कि बहुत सारे फुटबॉल प्रशंसक मानते हैं कि अफ्रीकी फुटबॉल का यह शुरुआती दौर ही है और आगामी वर्षों में उनकी धार बहुत तेज होगी. अनेक विश्लेषक तो यह भी कह रहे हैं कि जल्दी ही हम किसी अफ्रीकी टीम को विश्व विजेता के रूप में देखा सकते हैं. कतर में कुल 32 टीमों ने हिस्सा लिया था, लेकिन अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको में संयुक्त रूप से होने वाले 2026 के विश्वकप में टीमों की संख्या 48 होगी. बढ़ी हुई संख्या में एशिया और अफ्रीका की और टीमें शामिल होंगी. इससे आयोजन का रोमांच बहुत अधिक बढ़ जायेगा.

भारत में इस बार के विश्वकप तथा बड़े खिलाड़ियों को लेकर उत्साह कुछ अधिक ही देखा गया है. यह अच्छी बात है और मुझे उम्मीद है कि इससे हमारे बच्चों में फुटबॉल को अपनाने की प्रेरणा मिलेगी. इतने बड़े देश में अगर हम एक अच्छी टीम नहीं बना पा रहे हैं, तो हमें विचार करना होगा. अगर आप खेलों में समृद्ध देशों को देखें, तो वहां पांच साल से कम आयु से ही बच्चों को फुटबॉल प्रशिक्षण से जोड़ दिया जाता है, पर हमारे यहां आम तौर पर यह दस साल की आयु से शुरू होता है. इससे बुनियादी चीजें सीखने में कमी रह जाती है.

हमें अपने देश में खेल संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बहुत कुछ करना होगा. मैं ब्राजील में प्रशिक्षित हुआ हूं. वहां मैंने देखा है कि रात में भी समुद्र किनारे लड़के-लड़कियां फुटबॉल खेल रहे थे. उनके यहां टीवी पर स्पोर्ट्स के कार्यक्रम चलते हैं, विशेष चैनल भी हैं. यूरोपीय क्लबों में लगभग 70 प्रतिशत खिलाड़ी लैटिन अमेरिकी देशों से जाते हैं. अफ्रीका से भी खिलाड़ी जाने लगे हैं. इससे उन्हें नाम तो मिलता ही है, बहुत कमाई भी होती है. एक तरह से यह रोजगार भी है. अगर हम घर और स्कूल में बच्चों को प्रोत्साहित करें और सुविधाएं दें, तो तस्वीर बदल सकती है.

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