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Wastelands in India: आजादी के 75 साल बाद “वेस्टलैंड्स” (बंजर भूमि) जैसी शब्दावली को फिर से परिभाषित करने का समय 

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Wastelands in India: भारत जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से जूझ रहा है, उसके साझा संसाधनों, जैसे- जंगल, चरागाह, जल निकाय और इनका स्व-नियामक स्वरूप का भविष्य पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है.

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Wastelands in India: भारत जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से जूझ रहा है, उसके साझा संसाधनों, जैसे- जंगल, चरागाह, जल निकाय और इनका स्व-नियामक स्वरूप का भविष्य पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. भारत के 205 मिलियन एकड़ में फैले ये साझा संसाधन 350 मिलियन से अधिक ग्रामीण लोगों के लिए जीवनरेखा हैं. इनमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाएं जैसी हाशिए पर रहने वाली आबादी भी शामिल है. ये संसाधन भोजन, ईंधन और चारे जैसी आवश्यक चीजें उपलब्ध कराते हैं, लेकिन इनका अत्यधिक उपयोग जलवायु संवेदनशीलता और ग्रामीण संकट को और बढ़ा रहा है. ऐसे में लिविंग लैंडस्केप्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) जगदीश राव पुप्पाला ने एक विशेष साक्षात्कार में देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद “वेस्टलैंड्स” (बंजर भूमि) जैसी शब्दावली को पुनः परिभाषित करने को समय की मांग बताया है.  यह साक्षात्कार इस पर प्रकाश डालता है कि ये महत्वपूर्ण संसाधन जलवायु सहनशीलता (Climate Resilience) के लिए एक आधारस्तंभ कैसे बन सकते हैं, उनके संरक्षण में मौजूद शासन के अभाव क्या हैं और देश की पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना में उनकी भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए उठाए जाने वाले साहसिक कदम क्या हो सकते हैं. 

जगदीश राव पुप्पाला
जगदीश राव पुप्पाला

कौन हैं जगदीश राव पुप्पाला?

जगदीश राव पुप्पाला कॉमन ग्राउंड इनिशिएटिव का समर्थन करने वाले एक मुख्य संगठन लिविंग लैंडस्केप्स के सीईओ हैं. यह पहल 23 संगठनों का एक सहयोगात्मक प्रयास है. इससे पहले, वे दो दशकों से अधिक समय तक Foundation for Ecological Security के सीईओ के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. आइये जानते हैं इस विशेष साक्षात्कार में जगदीश ने क्या-क्या महत्वपूर्ण बातें कही हैं… 

प्रश्न: मौजूदा भारतीय कानून संरक्षण को कैसे सुगम या बाधित करते हैं?

उत्तर: हम 1.5 डिग्री सेल्सियस के तापमान वृद्धि के कगार पर हैं और जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभाव देख रहे हैं. जैव विविधता का नुकसान, मिट्टी की गिरती गुणवत्ता और भूजल स्तर में कमी जैसी कई महत्वपूर्ण समस्याएं अक्सर अनदेखी रह जाती हैं. ये मनुष्यों और प्रकृति के बीच कमजोर होते संबंधों के स्पष्ट संकेत हैं. अब बहस या इनकार करने का समय नहीं है; अब कार्यवाही करने का समय है. 

भारत में जलवायु कार्रवाई का समर्थन करने वाली कई नीतियाँ और वित्तीय प्रावधान हैं, जिनमें जलवायु से संबंधित विभिन्न मिशन और कार्य योजनाएँ शामिल हैं. वन अधिकार अधिनियम (2006) और 73वें व 74वें संवैधानिक संशोधन जैसे कानून विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देते हैं. मनरेगा, CAMPA और DMF जैसी वित्तपोषण योजनाएं तथा GPDP और पंचायत-स्वयं सहायता समूह (SHG) जैसे ढांचे एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं. इसके अलावा, सरकारी और अन्य थिंक टैंक भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान देती हैं. 

हालांकि ये स्थितियां सहायक हैं, परंतु नीतियों के इरादे को जमीनी स्तर पर लागू करने में बड़ी कमी है. सार्वजनिक नीतियां अक्सर सरकार या प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित समाधान पर ध्यान केंद्रित करती हैं और नागरिकों को सक्रिय भागीदार के बजाय निष्क्रिय प्राप्तकर्ता मानती हैं. हर राज्य में भूमि उपयोग बोर्ड मौजूद हैं, लेकिन वांछित प्रथाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है.  सरकार ने पिछले दशकों में लगभग 13 समितियां बनाईं, लेकिन  एग्रोइकोलॉजिकल जोन आधारित योजना अब तक प्रभावी नहीं हो पाई. समुदायों को अपने भूभाग में दीर्घकालिक निवेश के लिए अधिकार सुरक्षा (टेन्योर सिक्योरिटी) और स्थानीय संस्थानों की आवश्यकता है.  

प्रश्न: भारत के जटिल नियामकीय ढांचे को देखते हुए आप कौन-से परिवर्तन सुझाएंगे?

उत्तर: साझा संसाधन (Commons) अपने स्वरूप में दो प्रकार के होते हैं- एक ओर प्राकृतिक संसाधन जैसे- सामुदायिक वन, चरागाह और जल निकाय हैं तो दूसरी ओर स्थानीय समुदायों का स्व-नियामक स्वरूप, जो स्थानीय स्वशासन के नियम और नीतियां तैयार करता है. साझा संसाधनों को सुदृढ़ बनाने के लिए सामूहिक संपत्ति अधिकारों (Collective Property Rights) को सुनिश्चित करना और स्वशासी संस्थाओं को मजबूत करना आवश्यक है. वन अधिकार अधिनियम (FRA) और 73वें व 74वें संवैधानिक संशोधन इसके लिए पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं. लेकिन इनका सच्चे अर्थों में क्रियान्वयन तेज करने की आवश्यकता है. 

इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका खत्म नहीं होती, बल्कि इसे एक सक्षम वातावरण बनाने और बड़े नियामक कार्यों को निभाने तक सीमित कर दिया जाना चाहिए, जबकि जमीनी स्तर पर प्रबंधन और क्रियान्वयन का जिम्मा समुदायों पर छोड़ा जाना चाहिए. जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए बेहद जरूरी है कि क्षेत्र-आधारित योजना (Area-Based Planning) और एग्रोइकोलॉजिकल जोन के आधार पर कार्रवाई की जाय. भारत ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संरक्षण और भूमि क्षरण तटस्थता जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतिबद्धताएं की हैं. हालांकि इन सभी मुद्दों को समग्र रूप से संबोधित करने की दिशा में अभी भी काफी गुंजाइश है. 

प्रश्न: भारत में पारंपरिक शासन प्रणालियां साझा संसाधनों के संरक्षण में क्या भूमिका निभाती हैं?

उत्तर: भारत में स्व-नियामक प्रणालियों का एक समृद्ध इतिहास है. वन-निवासी समुदायों और चरवाहा समूहों ने साझा जिम्मेदारी, समान पहुंच और संरक्षण के सिद्धांतों पर आधारित तंत्र विकसित किए हैं. हालांकि, जब पारंपरिक कानून, जैसे आदिवासियों का सामूहिक संबंध जंगलों से, आधुनिक संपत्ति कानूनों के साथ असंगत होते हैं, तो चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं. पारंपरिक प्रणालियाँ, जो बाहरी दृष्टिकोण से “अनौपचारिक” लग सकती हैं, आदिवासी समुदायों में आज भी अत्यधिक औपचारिक और प्रभावी हैं. उन पर आधुनिक कानून और संस्थानों को थोपने से कई बार अवांछनीय परिणाम सामने आते हैं. पारंपरिक व्यवस्थाओं में विकसित भंडारण, गतिशीलता, विविधीकरण और सामुदायिक साझेदारी जैसे अनुकूलन उपाय आज भी प्रासंगिक हैं.  

वन अधिकार अधिनियम (FRA) एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने सामुदायिक कानूनों और प्रथाओं को समकालीन कानूनों और संस्थानों के साथ जोड़ने में सफलता पाई है.  पंचायती राज संस्थान (PRIs), जो पारंपरिक पंचायत प्रणालियों पर आधारित हैं, संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त स्थानीय स्वशासन के सबसे निचले स्तर पर साझा संसाधनों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, इनके और अधिक विकेंद्रीकरण की आवश्यकता है, विशेष रूप से वार्डों और टोलों तक. स्वयं सहायता समूह (SHGs), जैसे केरल का कुदुम्बश्री मॉडल, पारंपरिक और आधुनिक प्रणालियों के बीच सेतु का काम कर सकते हैं. 

प्रश्न: पेरिस समझौत सामुदायिक क्षमता निर्माण के संदर्भ में कैसे योगदान दे सकता है?

उत्तर: भारत के पारिस्थितिक साझा संसाधन गरीबी उन्मूलन, असमानता में कमी और पर्यावरणीय स्वास्थ्य सुधार के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं. ये संसाधन सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संरक्षण और सामुदायिक पुनर्स्थापन जैसे वैश्विक लक्ष्यों को संबोधित करते हैं. राजस्व बंजर भूमि, जिसे औपनिवेशिक काल में “बंजर” या “अप्रत्यक्ष भूमि” माना गया था, जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती है. इन बंजर भूमि, जिनका रकबा 40 से 75 मिलियन एकड़ के बीच है, को अक्सर विकास के लिए आरक्षित समझा जाता है. लेकिन ये वास्तव में गांव समुदायों के लिए खाद्य, चारे, औषधि, जलावन और लकड़ी जैसी आवश्यकताओं का स्रोत हैं. अब समय आ गया है कि इन जमीनों को “बंजर भूमि” के बजाय “साझा भूमि” के रूप में परिभाषित किया जाए. इन राजस्व भूमि को साझा भूमि घोषित कर स्थानीय समुदायों को इन पर अधिकार देना (जैसा कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) में प्रस्तावित है) महत्वपूर्ण होगा. इससे समुदाय इन neglected भूमि को पुनर्स्थापित कर सकते हैं, कार्बन को संरक्षित कर सकते हैं, जैव विविधता बढ़ा सकते हैं, भूजल स्तर सुधार सकते हैं और अपनी आजीविका को सुदृढ़ कर सकते हैं.  अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान को अक्सर बाजार आधारित तंत्र, जैसे कार्बन और जैव विविधता क्रेडिट्स, के माध्यम से संबोधित किया जाता है. हालांकि इन तंत्रों में गांव समुदायों की भागीदारी सीमित है. इसे सुधारने के लिए दो प्रमुख नीतिगत पहलें आवश्यक हैं. 

पहला, प्राकृतिक संसाधन लेखा प्रणाली (NRAS) को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के साथ लागू करना, ताकि पर्यावरणीय और सामाजिक लागतों का सही मूल्यांकन हो। दूसरा, समुदायों को दीर्घकालिक भूमि अधिकार देकर स्थानीय हरित अर्थव्यवस्थाओं और उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करना, जो बाजार आधारित उपायों से अधिक प्रभावी हो सकता है. साझा संसाधनों के प्रबंधन के लिए एक समर्थन संरचना विकसित करना आवश्यक है, जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र, प्रौद्योगिकी और स्थानीय समुदायों की सामूहिक भागीदारी शामिल हो. “समस्या का समाधान वितरित करना” और स्थानीय समुदायों को समस्या समाधान में सशक्त बनाना जलवायु कार्रवाई को तेज कर सकता है. 

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