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OPINION : न्याय की देवी के रूप परिवर्तन पर पढ़ें, बिहार के संसदीय कार्यमंत्री विजय कुमार चौधरी का आलेख

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New Lady Justice : इस परिवर्तित रूप में मूर्ति की आंखों पर बंधी पट्टी हटाने के साथ ही उन्हें साड़ी, बिंदी, आभूषण पहना कर हाथ में तलवार की जगह संविधान दे दिया गया है. एक तरह से देवी के रूप का भारतीयकरण किया गया है.

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New Lady Justice : आजकल न्याय की देवी का परिवर्तित रूप खूब चर्चा में है. इस नये रूप का अनावरण पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट के पुस्तकालय में किया गया. इस परिवर्तित रूप में मूर्ति की आंखों पर बंधी पट्टी हटाने के साथ ही उन्हें साड़ी, बिंदी, आभूषण पहना कर हाथ में तलवार की जगह संविधान दे दिया गया है. एक तरह से देवी के रूप का भारतीयकरण किया गया है. अनावरण के अवसर पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि भारतीय न्यायपालिका को ब्रिटिश विरासत से आगे बढ़ कर एक नया रुख अपनाना चाहिए. उनका यह भी कहना था कि अब कानून अंधा नहीं, बल्कि सबको बराबरी की नजरों से देखता है.

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सबसे पहले कलकत्ता हाईकोर्ट में न्याय की देवी की मूर्ति लगाई गई


मान्यताओं के अनुसार, न्याय की देवी का पुराना रूप ईसा काल की शुरुआत में ही जूलियस सीजर के वंशज महान रोमन सम्राट ऑगस्टस द्वारा प्रचलित किया गया था एवं रोमन पौराणिक कथाओं में इन्हें लेडी जस्टिसिया कहा जाता था. हालांकि उससे भी लगभग दो शताब्दी पहले यूनानी सभ्यता में न्याय की देवी थेमिस को एक हाथ में तराजू एवं दूसरे हाथ में तलवार के साथ चित्रित किया गया था. भारत में न्याय की देवी का यह रूप अंग्रेजी हुकुमत के दौरान पहुंचा एवं सर्वप्रथम 1872 में कलकत्ता हाइकोर्ट में उनकी मूर्ति लगायी गयी. उसके बाद बंबई हाईकोर्ट में भी यह मूर्ति लगी. हालांकि कुछ जगहों पर न्याय की देवी की मूर्तियों की आंखों पर पट्टी नहीं भी लगायी जाती थी.


न्याय की देवी की मूर्ति के इस परिवर्तित रूप से असहमत होने का कोई कारण नहीं हो सकता. हालांकि इसके पुराने रूप भी निष्पक्ष एवं त्वरित न्याय प्रदान करने में प्रतीकात्मक रूप से बाधक नहीं थे. आंखों की पट्टी दरअसल कानून के अंधे होने का नहीं, बल्कि समदर्शी होने का ही द्योतक था. तराजू पर साक्ष्यों एवं घटनाओं की तुलनात्मक समीक्षा (वजन) के आधार पर बिना अपराधी या पीड़ित की सूरत देखे न्याय होने का प्रतीक था. यह इसलिए समीचीन था कि प्राचीन भारत में दंड की प्रकृति व्यक्ति के वर्ण के अनुसार बदलती रहती थी. साथ ही, दुनिया की सभी पुरानी सभ्यताओं में एक कहावत प्रसिद्ध थी कि ‘आप मुझे चेहरा दिखाएं, मैं आपको नियम बताऊंगा (यू शो मी द फेस, आई विल शो यू द रूल). आंखों पर पट्टी तो अपराध के मामलों में अपराधी या पीड़ित के चेहरे से प्रभावित हुए बिना न्याय निर्णय होने की पहचान थी.

भारतीय संस्कृति में दंड की अवधारणा शुरू से मौजूद


न्याय की देवी के एक हाथ में दोधारी तलवार का भी अभिप्राय था. इसके एक तरफ से निर्दोष को सुरक्षा तथा दूसरी तरफ से दोषी को दंड देने का भाव था. भारतीय संस्कृति में दंड की अवधारणा शुरू से स्पष्ट एवं दृढ़ रही है. पुराणों के मुताबिक, दंड ही ऐसा एक माध्यम है, जो अभिमान या लिप्सा से उन्मत्त लोगों को वश में करके उसका जुल्म रुकवाता है. दूसरी तरफ तलवार प्रभुत्व एवं प्राधिकार का भी द्योतक था कि न्यायपालिका की मूल अवधारणा में दंड की प्रमुखता का अवयव समाहित है. राजा के पास जो शास्त्र-सम्मत उपलब्ध उपाय थे, उनमें एक दंड था. इस प्रकार न्याय की देवी का दंड प्रदाता के रूप में तलवार के साथ चित्रण अप्रासंगिक नहीं था.


न्यायपालिका संविधान एवं कानून लागू करने हेतु सर्वसत्ता संपन्न है. कानून समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिए मनुष्य के आचरण के वे सामान्य नियम होते हैं, जो राज्य द्वारा स्वीकृत और लागू किये जाते हैं. देश के नागरिकों के लिए इनका पालन करना अनिवार्य होता है और नियमों का पालन न करने की स्थिति में न्यायपालिका दंड देती है. इस प्रकार कानून मानव व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों एवं हकों की संहिता है. साथ ही, किसी भी राष्ट्र के लिए वहां के पवित्रतम कानूनों का संग्रह ही संविधान होता है. उल्लेखनीय है कि सनातन संस्कृति में भारतीय विधिशास्त्र धर्मशास्त्रों पर आधारित रहा है. वेद, स्मृति आदि भी सदाचार एवं सुनीति के उद्गम हैं. धर्म वस्तुत: एक व्यापक शब्द है और व्यवहारिक दृष्टि से यह मनुष्य के कर्तव्यों एवं दायित्वों की समष्टि है. धर्म और न्याय का अन्योन्याश्रय संबंध है. धर्म नैसर्गिक है एवं इससे अधिक शक्तिशाली नियामक दूसरा कोई नहीं हो सकता. इसकी सहायता से शक्तिहीन भी शक्तिशाली से अपना अधिकार ले सकता है. न्याय सार्वभौम है और राजा या शासक (सरकार) न्याय का निर्माता नहीं, बल्कि उसका अभीष्ट होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए कानून या विधि का निर्माण होता है. कौटिल्य ने भी कहा है कि विधान चार स्तंभों पर आधारित होता है- धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राज शासन.

इंसान अपने सभी कर्मों के लिए उत्तरदायी


इस्लाम में यह मान्यता है कि इंसान अपने सभी कर्मों के लिए उत्तरदायी है. अपने सद्कर्मों के लिए उसे पुरस्कार मिलते हैं, तो दुष्कर्मों के लिए वह दंड पाता है. इस्लाम की कानूनी व्यवस्था शरिया कहलाती है और इसे इस्लाम की सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र पुस्तक कुरान और इस्लामी विद्वानों द्वारा दिये गये फैसलों यानी फतवों को मिला कर बनाया गया है. शरिया का शाब्दिक अर्थ भी ‘पानी का एक स्पष्ट और व्यवस्थित रास्ता’ होता है. शरिया कानून अपराधों को दो श्रेणियों में विभाजित करता है. पहला है ‘हद‘, जो गंभीर अपराध होता है. और दूसरा है ‘तजीर’, जिसके तहत कम जघन्य अपराध आते हैं, जिसकी सजा न्याय करने वाले के विवेक पर छोड़ी गयी है. ईसाई मत में अवधारणा यह है कि लोगों को वह मिले, जिसके वे योग्य अथवा पात्र हों. प्राकृतिक विधि, धर्म, नैतिकता या समता के आधार पर उचित होने की स्थिति को न्याय कहते हैं. इसमें अपराधों को दंडनीय माना गया है और अपराध की प्रवृत्ति के मुताबिक दंड की धारणा है.


फिलवक्त हम सभी जिम्मेदार भारतीय नागरिक के रूप में न्याय देवी के इस बदले रूप को स्वीकारते हुए यही प्रार्थना कर सकते हैं कि इनकी छत्रछाया में निष्पक्ष एवं त्वरित न्याय आम लोगों के लिए सुगम एवं सुलभ हो. यहां यह उल्लेखनीय है कि नयी मूर्ति के अनावरण के कुछ दिन बाद ही 21 अक्तूबर को न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं पीके मिश्रा की पीठ को उसी सुप्रीम कोर्ट में एक मामले में हाइकोर्ट के न्यायाधीशों के तौर-तरीके एवं रवैये पर टिप्पणी करनी पड़ी कि ‘उनके कारण न्यायपालिका की छवि गिरती है. किसी न्यायाधीश का निर्धारित मानकों से विचलित होना उसके द्वारा राष्ट्र के भरोसे के कत्ल के समान है.’ यह मामला इसलिए भी ध्यातव्य है कि यह टिप्पणी किसी निचली अदालत के जज के विरुद्ध नहीं थी, बल्कि हाइकोर्ट के न्यायाधीशों के विरुद्ध थी. जाहिर है कि स्थिति में परिवर्तन और भी ज्यादा स्वागत योग्य होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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