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अंगक्षेत्र में सूर्य उपासना के प्रमाण हैं प्राचीन मूर्तियां, धर्मग्रंथाें में भी है वर्णन

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अंगक्षेत्र में सूर्य उपासना के प्रमाण हैं प्राचीन मूर्तियां, धर्मग्रंथाें में भी है वर्णन

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– विक्रमशिला महाविहार, अजगैबीनाथ व मुरली पहाड़ी, मंदार पहाड़ी, चंपानगर, बटेश्वर स्थान रहा है सूर्य उपासना का केंद्र

– गुप्त व पाल काल में बनीं कई मूर्तियां भागलपुर, बांका व मुंगेर जिला में खुदाई में मिलीं

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गौतम वेदपाणि, भागलपुर

अंगक्षेत्र में सूर्य की उपासना का वर्णन जहां लिखित रूप में धर्मग्रंथों में हैं, वहीं जमीन की खुदाई में मिली सूर्य की प्राचीन प्रतिमाएं इसका जीता जागता प्रमाण है. सूर्य पूजन का वर्णन कृतिवास रचित बांग्ला रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य में विस्तार से मिलता है. भगवान श्रीराम व माता जानकी ने छठव्रत का अनुष्ठान किया था. अंगप्रदेश के राजा व सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण रोजाना सूर्य की उपासना करते थे. छठ व्रत का बड़ा ही सुंदर वर्णन मनसा महात्म्य नामक ग्रंथ में हुआ है. इधर, सूर्य की प्रतिमाओं का निर्माण कर इसके पूजन का प्रारंभिक संकेत दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व मिलता है. भागलपुर, बांका व मुंगेर जिला में भी सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण गुप्त, गुप्तोत्तर एवं पाल काल में हुआ. इनमें सुलतानगंज की अजगैबीनाथ व मुरली पहाड़ी, बौंसी की मंदार पहाड़ी, चंपानगर स्थित सेमापुर घाट, कहलगांव अनुमंडल के विक्रमशिला महाविहार, बटेश्वर की पत्थरघट्टा पहाड़ी, ताड़र व ओलपुरा आदि स्थानों से प्राप्त है. टीएमबीयू के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ पवन शेखर बताते हैं कि सूर्य प्रतिमा की उपासना की प्रथा अंगक्षेत्र में व्यापक पैमाने पर प्रचलित हुई.

गुप्त व पाल काल में सूर्य की मूर्तियों का हुआ निर्माण

अंगक्षेत्र में मिली सूर्य की प्रतिमाएं आसन में बैठी व खड़ी मिली है. वहीं, नवग्रह के साथ सूर्य की प्रतिमा अजगैबीनाथ पहाड़ी पर है. प्रतिमाएं द्विभुजी, एकमुखी तथा हाथों में श्वेत पद्म धारण किये है. सूर्य का वाहन सप्ताश्व रथ है. पुराणों में भी सूर्य की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख मिलता है. अरुण इनके सारथी हैं. सूर्य अपने चार हाथ में पद्म, शूल, साम धारण किये हुए हैं. उनके दोनों ओर क्रमशः पिंगला तथा दण्डी हैं. वहीं, ऊषा और प्रत्यूषा देवी भी विराजमान हैं. अंग क्षेत्र में सूर्य की प्रतिमाओं के निर्माण गुप्त, उत्तरगुप्त, पाल व सेन वंश से मध्यकाल तक जारी रहा.

छठ व्रत का सुंदर वर्णन मनसा महात्म्य में

क्षेत्रीय इतिहास के जानकार आलोक कुमार बताते हैं कि छठ महापर्व का प्रारंभ अंग महाजनपद से माना जाता है. यह वर्ष में दो बार चैत्र व कार्तिक मास में होता है. सृष्टि की शुरुआत में मूल प्रकृति के छठे अंश से जगत तारिणी भगवती षष्ठी प्रकट हुईं थीं जो जगत में पुत्रदा के नाम से सुविख्यात हुईं. राजा प्रियव्रत ने अपनी पत्नी मालिनी देवी के साथ छठव्रत किया था. यह शोध का विषय है कि चंपा का प्राचीन नाम मालिनी राजा प्रियव्रत की महारानी के नाम पर था.

चंपानगर में शिव के साथ सूर्य की होती है पूजा

सातवीं व आठवीं सदी के पालकालीन सूर्य प्रतिमा अंगक्षेत्र की प्राचीन राजधानी चंपानगर में आज भी पूजित हैं. पथरघटनाथ शिव मंदिर में सूर्य की प्रतिमा काले पत्थर की बनी हुई है. इसमें भगवान सूर्य सात अश्वों के रथ पर सवार हैं. यह मंदिर तंत्र सिद्धि का केंद्र रहा है. इस मंदिर में शिव के साथ सूर्य की पूजा होती है. यहां एक ही अरघे में दो शिवलिंग स्थापित हैं. जिसका अंतराल पांच अंगुली है. इलाके के पुराने लोग बताते हैं कि आजादी के कुछ दिन पूर्व तक इस मंदिर में अपना गला काट कर बलि देते हुए एक तांत्रिक को देखने की चर्चा है. इससे सटे सेमापुर घाट की महत्ता बिहुला विषहरी पूजा से संबंधित है.

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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