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स्वास्थ्य सेवा में महिलाओं की संख्या बढ़े

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मुंबई के किंग एडवर्ड अस्पताल में 1973 में उस 25 वर्षीया नर्स के साथ दुष्कर्म हुआ और जंजीर से गला घोंटकर उसे मारने की कोशिश हुई. उसका मस्तिष्क चोटिल हुआ, वह लकवाग्रस्त हुई, उसके गर्दन की हड्डी टूटी, और वह 41 साल तक बिस्तर पर सुन्न पड़ी रही.

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Women Safety : किसी महानगर के एक व्यस्त अस्पताल में किसी महिला डॉक्टर का बलात्कार और उसकी नृशंस हत्या कैसे हो सकती है? कहीं तो कुछ भारी गड़बड़ी हुई है, जिसके बारे में पता लगाया जाना चाहिए और हालात सुधारने के लिए तुरंत कुछ किया जाना चाहिए. तीस साल पहले मैं जयपुर में बच्चों के एक अस्पताल में कार्यरत थी. डॉक्टरों के कक्ष वार्ड से सटे हुए थे. दरवाजों पर सिटकनी भी नहीं होती थी. वहां एक गार्ड था, जो रात में अक्सर झपकियां लेता रहता था. हम भाग्यशाली थे कि हमारे साथ कुछ नहीं हुआ, पर कई सारी महिलाओं के साथ ऐसा नहीं हुआ. अरुणा शानबाग को कौन भूल सकता है? मुंबई के किंग एडवर्ड अस्पताल में 1973 में उस 25 वर्षीया नर्स के साथ दुष्कर्म हुआ और जंजीर से गला घोंटकर उसे मारने की कोशिश हुई. उसका मस्तिष्क चोटिल हुआ, वह लकवाग्रस्त हुई, उसके गर्दन की हड्डी टूटी, और वह 41 साल तक बिस्तर पर सुन्न पड़ी रही. तब से आज तक अधिकतर अस्पतालों में स्थिति में खास सुधार नहीं आया है. जयपुर के जिस अस्पताल का जिक्र पहले आया है, वह और बड़ा हो गया है, पर डॉक्टरों के कक्ष पहले जैसे ही हैं. महिला डॉक्टरों के लिए पर्याप्त शौचालय भी नहीं हैं.

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कई तरह के हालात और मामले हैं. मसलन, एक शहर में कार्यरत मेरी एक सहकर्मी बहुत समय से परेशान थी. पिता के पूछने पर उसने बताया कि उसके दो सीनियर, जिनमें उसका एक प्रोफेसर भी था, उस पर अकेले मिलने के लिए दबाव बना रहे थे और अभद्र टिप्पणियां भी करते थे. उसके पिता के धमकाने के बाद ही उन्होंने अपनी हरकतें बंद कीं. एक बड़े सरकारी अस्पताल में काम कर चुकी एक युवा सहकर्मी ने हाल में इस घटना का उल्लेख किया. उसका कमरा प्रसव कक्ष के बगल में था. एक रात उसे एक व्यक्ति ने जगाया, जिसकी पत्नी भर्ती थी. उसका चेहरा उक्त डॉक्टर के चेहरे के बिल्कुल पास था. एक धनी महिला का भाई उसके साथ लगातार बैठा रहता था और बाद में उसे फोन करता रहता था. उस डॉक्टर ने बताया कि देश के अलग-अलग अस्पतालों में काम रहीं उसकी चार अन्य दोस्तों के ऐसे ही अनुभव हैं.

उसने इस बारे में किसी को नहीं बताया क्योंकि शर्मिंदगी का डर था. इसके अलावा, उसे यह भी नहीं पता था कि शिकायत कहां करे. उसे यौन उत्पीड़न निरोधक कानून या अस्पताल में किसी कमिटी के बारे में भी जानकारी नहीं थी. अस्सी साल से अधिक आयु की एक वरिष्ठ डॉक्टर ने अपने प्रशिक्षण के बारे में बताया कि उनके साथ कभी कोई बुरी घटना नहीं हुई तथा डॉक्टर और छात्रों की तादाद भी कम होती थी. वे सभी एक-दूसरे को करीब से जानते थे.
अब चीजें बदल गयी हैं. संख्या तो बढ़ी ही है, अब डॉक्टर अस्पताल से कहीं अधिक समय अपनी निजी प्रैक्टिस में बिताते हैं. ऐसे में प्रशिक्षु महिला डॉक्टरों की सुरक्षा और सुविधा की सुध लेने के लिए समय या सोच किसके पास है? महिला डॉक्टर यह भी बताती हैं कि वे अस्पताल प्रशासन के पास अपनी समस्याओं को लेकर जाती रहती हैं. वे अस्पताल में अधिक समय भी देती हैं. लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं होती.

इन प्रशासकों के बारे में जानते हैं. राजस्थान में 90 प्रतिशत जिला स्वास्थ्य अधिकारी और अस्पताल प्रशासक पुरुष हैं. कई राज्यों में स्थिति इससे अलग नहीं होगी. यही हालत प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य अधिकारियों के मामले में भी है, जो महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार हैं. कुछ अच्छी स्थितियां भी हैं. अच्छे संस्थानों में पढ़ीं हमारी कई सहकर्मी बताती हैं कि उनके यहां महिला और पुरुष डॉक्टरों के अलग-अलग कक्ष हैं, प्रसव कक्षों में गार्ड तैनात होते हैं तथा अच्छी कैंटीन भी है. पर ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं. जैसे-जैसे हम शहरों से कस्बों और गांवों की ओर जाते हैं, महिला डॉक्टरों की संख्या में बड़ी कमी दिखने लगती है. ऐसा लगता है कि सुरक्षा की चिंता के कारण महिलाएं अपना कार्यस्थल चुनती हैं. इस बारे में हमें अधिक जानना चाहिए. नर्सों और अन्य कर्मियों का उत्पीड़न भी आम है. बीस साल पहले के एक अध्ययन के दौरान अनेक नर्सों ने अपनी आपबीती दर्ज करायी थी. अभी भी कार्यबल में शामिल महिलाओं को कानून या समितियों के बारे में जानकारी नहीं है. ऐसी जानकारियां सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रदर्शित भी नहीं की जाती हैं.


प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के संचालन के दौरान हमने ऐसे खतरों का अनुभव किया है. नर्सों को शराबी पुरुष फोन करते हैं, जिनमें कभी-कभी पंचायत के वरिष्ठ सदस्य भी होते हैं. कई बार ऐसे लोग मामूली समस्याओं को लेकर रात को क्लिनिक आ जाते हैं. सुरक्षित माहौल बनाने से ऐसे मामले सामने आये हैं और उन पर कार्रवाई भी की गयी है. पर सभी मामले सामने नहीं आ पाते हैं. ऐसी घटनाओं को सहन करने या दबाने से हालात कभी भी विस्फोटक हो सकते हैं. कोलकाता की घटना का संदेश यही है कि हमें अपने अस्पतालों को ऐसा बनाना होगा कि वे सुरक्षित और समावेशी हों. सुरक्षा और सुविधा बढ़ाने तथा कानूनों की जानकारी देने के साथ-साथ अधिक महिलाओं को उच्च पदों पर लाने की आवश्यकता है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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