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Bhojpuri:मनोज टाइगर ने कहा कि मेरा सपना इस अवार्ड पर अपने नाम को देखने का है..

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मनोज टाइगर अभिनय में पंकज कपूर और परेश रावल को अपनी प्रेरणा करार देते हैं.उनकी तरह ही अलग -अलग किरदारों को करने की उनकी ख्वाहिश है.

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Bhojpuri :भोजपुरी फिल्मों का पॉपुलर चेहरा मनोज टाइगर बीते 28 सालों से इंडस्ट्री में सक्रिय हैं.दस सालों के लम्बे संघर्ष के बाद भोजपुरी फिल्म निरहुआ रिक्शावाला से उन्हें खास पहचान दी.जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा हालांकि इससे पहले तक मुंबई में टिके रहने के लिए उन्होंने हर छोटा बड़ा काम किया, लेकिन उन्होंने संघर्ष को संघर्ष की तरह कभी नहीं लिया क्योंकि बचपन से ही उन्होंने अपने घर में अपने पिताजी को संघर्ष करते देखा था. उर्मिला कोरी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश

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रामलीला करते हुए ही तय कर लिया था एक्टिंग करना है
अब तक की जर्नी ठीक ही रही है. मैं संघर्ष को कभी संघर्ष की तरह लिया ही नहीं है. बचपन से ही परिवार वालों संघर्ष करते देखा.पिताजी को भी देखा. मैं ऐसे परिवार से था जहां सब कोई संघर्ष कर रहा था. पिताजी कवि हैं, उनसे मुझे लेखन का गुण आया था,लेकिन सिनेमा से दूर-दूर तक किसी का कुछ लेना देना नहीं था.मैंने जब से होश संभाला। रामलीला हमारे यहां होता था.मैं रामलीला का हिस्सा बनता था. जब 12 या 13 साल का हुआ तभी मेरे मन में या बात आ गई थी कि मुझे बनना तो है एक्टर. मैं रामलीला में सुमंत का किरदार करता था. वह दशरथ का सेनापति था. एक बूढ़ा किरदार था जबकि मैं मुश्किल से उस वक्त 16 या 17 साल का होऊंगा. इसका मतलब यह है कि मेरे बचपन से ही मेरे मन में यह नहीं था कि मुझे हीरो ही बना है.मैं किरदार करना चाहता था. पंकज कपूर, परेश रावल ने मुझे बहुत ही ज्यादा प्रभावित किया.

हाईस्कूल में दो बार फेल हुआ लेकिन तीसरी बार फर्स्ट क्लास में हुआ पास
मैं पढ़ने में ठीक था,लेकिन पढ़ना नहीं था. हाई स्कूल में मैं दो बार फेल हुआ.तीसरे साल फिर मैं फर्स्ट क्लास में पास हुआ था.इंटर में आया फिर इंटर के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गया. मेरे पिताजी की सोच अलग थी वह कभी थोपते नहीं थे. उनका साफ कहना था कि आपको जो करना है आपकी मर्जी लेकिन इसके साथ वह यह बोलना भी नहीं बोलते थे कि तुमको हमारी स्थिति पता है, तो तुमको कुछ भी आर्थिक मदद नहीं मिल पाएगी. करना तुम्हें ही है. मैं इस चीज को समझता था क्योंकि हमारा बड़ा परिवार था. दादा दादी थे. मम्मी पापा थे और भाई-बहन थे.पापा के पास इतने पैसे है नहीं. फैसला मुझे ही लेना था और मैंने फैसला ले लिया. इलाहाबाद से ग्रेजुएशन करने के बाद मैं मुंबई आ गया. अपने दादाजी के एक दोस्त के पास. मैं 1996 मुंबई आया था और फिर यही का होकर रह गया.

अपनी पर्सनालिटी और शक्ल को लेकर बहुत ताने झेले हैं
मैं बताना चाहूंगा कि शुरुआत में मैं मुंबई एक्टर बनने के लिए नहीं आया था बल्कि कोई नौकरी करने के लिए आया था. इसकी वजह यह थी कि अपनी पर्सनालिटी, अपनी शक्ल को लेकर मैंने लोगों से बहुत कुछ बुरा सुन चुका था.तुम्हारी हाइट बहुत छोटी है.तुम कुछ नहीं कर पाओगे. बहुत लोग भाग करके आते हैं, लेकिन कुछ नहीं कर पाते हैं.क्योंकि मैंने रामलीला के अलावा कोई रंग मंच किया नहीं था. एक्टिंग सीखी नहीं है.लुक भी नहीं है,तो मैं लोगों को यह बताने बहुत संकोच करता था कि मुझे एक्टर बनना है.मैंने सोचा पहले कुछ तो करूं फिर अगर जम जाऊंगा यहां पर. फिर देखा जाएगा. इत्तेफाक देखिए मैं जिनके घर पर रहता था उनके घर पर एम त्रिपाठी आते थे, वह फिल्म लाइन से जुड़े हुए थे. पीआरो का काम करते थे. उनसे मेरी मुलाकात हुई और उन्होंने मुझे सुरेन्द्र गुप्ता जी से मिलवाया. उनकी फिल्म मैगज़ीन थी. वह अपना फिल्म प्रोडक्शन शुरू करना चाहते थे.मैं वहां पर ऑफिस बॉय के तौर पर जुड़ गया. लेख टंडन साहब डायरेक्टर थे.मैं उनको असिस्ट करता था. समय के साथ मैं प्रोडक्शन मैनेजर बन गया.मैंने आगे बढ़ते हुए कुछ सालों बाद उनके यहां नौकरी छोड़ दी.नाटक से जुड़ गया.

नाटक करने के साथ जमकर ऑड जॉब भी किया
पृथ्वी थिएटर में नाटक देखने लगा. खाना खाऊंगा नहीं खा पाउंगा। कहां सोऊंगा।यह सब किसी चीज की मुझे परवाह नहीं थी. वह कहते हैं ना जब आप किसी रास्ते में निकलते हैं ,तो लोग मिलते गए और कारवां बनता चला जाता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. तमाम लोग मुझे मिले। कोई भूखा मिला. कोई पैसे वाला मिला.कभी किसी ने खिला दिया तो कभी किसी ने अपने घर सुला लिया। कुछ नहीं हुआ ,तो रात की कोई छोटी मोटी नौकरी कर ली. मुझे छोटा काम करने से कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि दिन में मुझे थिएटर करने को मिल रहा था. यह सब करते-करते चार साल निकल गए. लोगों को लगता था कि यह क्या कर रहा है लेकिन मुझे लगता था कि इससे कुछ ना कुछ आगे जाकर निकलेगा ही.मुंबई में छोटा मोटा काम करके पेट तो भर जाता है, लेकिन छत मिलना इतने कम पैसे में मुश्किल थी.रहने के लिए जगह नहीं थी.सुरेंद्र गुप्ता जी ने फिर मदद की. उन्होंने कहा कि जब तक तुम्हारे रहने का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक तुम मेरे ऑफिस में रहना. उसके बाद मैं जमकर नाटक किया. मैं नाटक लिखने भी लगा था.नाटक डायरेक्ट भी करने लगा था.पृथ्वी थिएटर में प्लेटफार्म प्ले होता था.ऑडिटोरियम के बाहर हफ्ते में दो दिन आप 30 मिनट का नाटक कर सकते थे.उसका टेस्ट होता था ऑडिशन होता था और मेरा नाटक सिलेक्ट हुआ था. पंडित सत्यदेव दुबे से भी जुड़ा.उनके वर्कशॉप को ज्वाइन किया.उनसे सीखा और एक बड़ा नाटक ग्रुप बना.

हिंदी फिल्मों में भीड़ का हिस्सा बना
इस दौरान मेरा एक नाटक देखने के लिए अभिनेत्री आयशा जुल्का आई थी. उनको मेरा नाटक इतना अच्छा लगा कि उन्होंने अगले दिन मुझे अपने घर पर बुलाया. उन्होंने फिर एक नाटक प्रोड्यूस किया कभी लक कभी चांस. उस नाटक में उन्होंने मुझे लिया. अभी जो उनके पति है उन्होंने उसे नाटक को निर्देशित किया था.वहां से उनके साथ एक अच्छा जुड़ाव हुआ.उन्होंने अपनी एक एक्टिंग अकादमी भी शुरू की थी.उससे मैं भी जुड़ा हुआ था. उन्होंने मुझ पर काफी पैसे खर्च किए थे.2005 तक मैं जमकर नाटक किया और कुछ फिल्मों में छोटे-मोटे रोल भी किए. प्रोडक्शन हाउस जाते थे,तो कल आ जाना और भीड़ में खड़ा कर देते थे. 200 या 500 रुपये दे देते थे. वह पैसे ना के बराबर थे और उन फिल्मों से पहचान भी ना के बराबरी बनती थी. उसके बाद मैंने तय कर लिया कि कोई लीड मिलेगा तो ही करूंगा फिर चाहे वह कॉमेडियन का मिले या विलेन का क्योंकि हीरो का मिलने से रहा.

इस तरह से टाइगर अपने नाम के साथ जोड़ा
मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था,तो वहां पर उपनाम लगाने की बड़ी बीमारी है. अरविंद सिंह गोपू, तो फलाने सिंह दीपू. वहां पर पढ़ाई करते हुए थोड़ी पॉलिटिक्स में भी रुचि रखता था.जिस वजह से मुझे मंच पर बुलाया जाता था तो मैं ऐसे ही अपने नाम के आगे मनोज टाइगर लगा दिया.मुंबई आने के बाद मैंने अपने नाम से टाइगर हटा दिया था. मुंबई में कुछ काम मिल नहीं रहा था तो मनोज ओझा जी मुझे एक ज्योतिष के पास लेकर गए थे. उन्होंने कहा कि नाम बदल लो. उन्होंने कहा कि मनोज कुमार कर लीजिए। मनोज यह कर लीजिए मैंने कहा कि मनोज टाइगर कैसा रहेगा. उन्होंने कहा कि अरे यह तो परफेक्ट है तो फिर वहां से मैं फिर मैं हमेशा के लिए मैं उसका घर बन गया.

निरहुआ को एक्टिंग की ट्रेनिंग देते हुए उनका को एक्टर बन गया
थिएटर की वजह से मनोज ओझा को मैं कई सालों से जानता था.वह फिल्म चलत मुसाफिर मोह लियो बना रहे थे, दिनेश लाल निरहुआ के साथ. मनोज मेरे मित्र हैं, उन्होंने मुझे कहा कि तुम इस फिल्म को लिखो और निरहुआ का थोड़ा एक्टिंग में ट्रेनिंग भी दो.निरहुआ जी से मिलने लगा,फिर हमारी दोस्ती हो गई उन्होंने कहा की फिल्म में एक कॉमेडियन का बड़ा रोल है. आप कर लो,लेकिन प्रोड्यूसर ने बोला कि नहीं.मैंने तो किसी और को ले लिया है. मनोज ओझा ने साफ कह दिया कि अगर यह रोल मनोज टाइगर करेंगे तो ही मैं फिल्म निर्देशित करूंगा.वरना मैं फिल्म छोड़ दूंगा. उस फिल्म में सभी ने मुझे नोटिस किया और निरहुआ और मेरी जोड़ी सबको बहुत पसंद आई.हमने दूसरी फिल्म की निरहुआ रिक्शावाला. उस फिल्म ने हम दोनों को स्टार बना दिया. उसके बाद मैं पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब तो 350 से अधिक फिल्में हो गई है.

2019 से हिंदी और साउथ सिनेमा भी कर रहा हूं
भोजपुरी करते हुए मन में यह बात आयी कि हम करने तो आए थे हिंदी फिल्में, तो हमने फिर से यू टर्न मारा.2019 से मैंने फिर से थिएटर शुरू किया है. भोजपुरी के साथ – साथ हिंदी प्रोजेक्ट्स भी करने लगा हूं. मैंने एक तेलुगू फिल्म की है. मुख्य विलेन के तौर पर अहिंसा. वह फिल्म थिएटर के साथ-साथ प्राइम अमेजॉन पर रिलीज हुई है. राणा दग्गुबाती का छोटा भाई बतौर हीरो लॉन्च हुआ है. मैं बताना चाहूंगा कि उस तेलुगू फिल्म की डबिंग भी मैंने की. उन्होंने मेरी भोजपुरी फिल्मों को यूट्यूब में देखकर मुझे बुलाया था. फिल्म में मेरे अभिनय के लिए बीबीसी ने मेरी तारीफ़ की. मेरे लिए बहुत ही खास पल था. जनवरी में मेरी एक वेब सीरीज आ रही है दो पहिया,जिसमें अहम लीड में से एक मैं भी हूं. इसमें मेरे साथ गजराज राव, यशपाल शर्मा और रेणुका शहाणे हैं.

सास बहू वाली मौजूदा इमेज को भी तोड़ेगा भोजपुरी सिनेमा
मौजूदा दौर में भोजपुरी फिल्में टेलीविजन पर रिलीज हो रही हैं.मैं इस दौर को अच्छा करार दूंगा।टेलीविजन पर फिल्में आने के बाद से जो भोजपुरी सिनेमा पर दाग लगा था कि यहां पर सिर्फ अश्लीलता ही है. वह दाग अब धुंधला हो गया है. भोजपुरी सिनेमा में अब कोई वल्गैरिटी और कोई गंदगी नहीं रही है.मैं इस बात को मानता हूं कि अभी सास बहू बहुत ज्यादा बनने वाला है. मुझे यकीन है कि इसको भी तोड़कर भोजपुरी सिनेमा आगे बढ़ेगा और प्लेटफार्म आएंगे। ओटीटी आएगा.सिनेमा आगे ही बढ़ेगा.

नेशनल अवार्ड जीतने का है सपना
बतौर अभिनेता एक दो फिल्मफेयर और एक नेशनल अवार्ड की मेरी ख्वाहिश है.नेशनल अवार्ड पर मैं अपना नाम देखना चाहता हूं. उम्मीद है कि आने वाले 5 सालों में मैं अपनी एक ख्वाहिश पूरी कर लूं. मैं इसके लिए और मेहनत भी कर रहा हूं.

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