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World Environment Day: मधुबनी पेंटिंग से दूर हो गयी ‘सिंदूरहारा’ और चनरौटा

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बिहार को विश्व में अलग पहचान दिलाने वाली धरोहर में अब प्राकृतिक रंगों से तैयार होने वाली पेंटिंग मे अब केमिकल रंग युक्त रंगों का धड़ल्ले से हो रहा इस्तेमाल

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अनुज शर्मा, मुजफ्फरपुर.

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World Environment Day: प्रकृति और उसमें पनप रहे जीवन के विविध रंग, मानवीय नैतिकता, मूल्य और रीति-रिवाजों को बहुत ही रोचक तरीके से प्रकट करने वाली मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग की प्राकृतिकता (नेचुरलिटी) पर संकट आ गया है. बिहार को विश्व में अलग पहचान दिलाने वाली इस कला से सिंदूरहारा और चनरौटा दूर हो गये हैं. और ऐसा पर्यावरण का संरक्षण न होने के कारण हुआ है. कभी हिमालय में उगने वाले खास पेड़ों से तैयार सिंदूर को बेचने के लिए मिथिला क्षेत्र में फेरी लगाने वाले (सिंदूरहारा ) अब दिखाई नहीं दे रहे हैं.

मिथिला पेंटिंग में अपराजिता के फूल, सेम की पत्ती को चनरौटा पर पीसकर तैयार परंपरागत रंग की जगह  केमिकल युक्त चटक रंग इस्तेमाल होने लगे हैं. जलवायु परिवर्तन से पर्यावरण को पहुंचे खतरे के साथ- साथ बाजारवाद भी इस पर हावी है. ” आसपास मौजूद पेड़-पत्तियों से तैयार रंगों का इस्तेमाल कर कायनात के सभी आयामों को मिट्टी, कागज और कपड़े के ‘कैनवस’ पर उतार देने वाले कलाकार केमिकल रंग का उपयोग इसलिये कर रहे हैं क्योंकि यह बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं.

” यह बात मधुबनी पेंटिंग के लिए पद्मश्री से सम्मानित दुलारी देवी कहती हैं. प्रभात खबर से बातचीत में उन्होंने कहा ” केमिकल युक्त रंग आकर्षक भी होते हैं ? प्राकृतिक रंग श्रम साध्य हैं. जिन पेड़ पौधों और पत्तियों से यह तैयार किए जाते हैं उनकी उपलब्धता नहीं सहज है.”

पर्यावरण ने मिथिला पेंटिंग को कितना प्रभावित किया है ? मिथिला चित्रकला संस्थान मधुबनी की कनीय आचार्य डॉ रानी झा विस्तार से उदाहरण के साथ हमें बता देती हैं. वह कहती हैं कि मिथिला पेंटिंग में पूरी तरह से हर्बल रंग का उपयोग करने की सदियों पुरानी परंपरा है. अपराजिता की पत्ती, सेम के पत्ता को चनरौटा पर पीसकर हरा रंग तैयार किया जाता था. कच्ची हल्दी से पीला रंग बनता था. मिथिला से सटे हिमालयी क्षेत्र (नेपाल) में सिंदूर के पेड़ होते थे.

सिंदूर के पेड़ का फल पक जाता था तो ‘सिंदूरहारा’ उसे तैयार करने के बाद बेचने के लिए  मिथिला आते थे. इससे आकर्षक लाल रंग बनाया जाता था.  नीले रंग के लिए नील की खेती होती थी. अब नेपाल से कोई  ‘सिंदूरहारा’  नहीं आता. चमकीला नारंगी रंग के लिए पारिजात (हरसिंगार) के डंठल को सुखाने के बाद रात भर पानी में रख देते थे. टेसू के रंग भी चलन में थे.

पशुपालन – पौधरोपण कम होने से भी प्राकृतिक रंग हुए दूर

मिथिला चित्रकला संस्थान मधुबनी की कनीय आचार्य डॉ रानी झा बताती हैं कि पर्यावरण के बदलाव ने बहुत चेंज ला दिया है. मधुबनी पेंटिंग में बकरी और गाय का भी बड़ा योगदान है. लाल रंग के लिए  लाल सिंदूर को बकरी के दूध में मिलाकर उपयोग किया जाता था. बकरी के दूध की जगह सरसों को पीसकर उसका जो पानी भी उपयोग में लाया जाता था.

काले रंग के लिए ढिबरी (दीपक ) के कार्बन को गाय के गोबर की मदद से उतारा जाता था और फिर कूची की मदद से इसे अलग किया जाता था. पेंटिंग में गोंद भी नेचुरल हुआ करता था. फागुन में नीम और आम से गोंद एकत्रित कर पछुआ हवा में सुखाया जाता था. इस तरह पांच से छह मूल रंग ही मधुबनी पेंटिंग में प्रचलित थे.

मिट्टी के बर्तन में तैयार होते थे प्राकृतिक रंग

मधुबनी पेंटिंग के लिए तैयार प्राकृतिक रंग के लिए मिट्टी के बर्तन प्रचलित थे. पद्मश्री दुलारी देवी बताती हैं कि पहले पेंटिंग और कलाकृतियों में केवल प्राकृतिक रंगों होता था. ये रंग फूल और पत्तियों से बनाते थे.  जैसा रंग वैसा फूल का चुनाव किया जाता था. खासकर बिहार के कलाकार बिहार में उत्पन्न फूलों का प्रयोग करते थे. रंगों के लिए गेहूं का भी उपयोग होता आया है. बीच में इसका प्रचलन बढ़ गया इसका असर गोबर का लेप लगे मिट्टी के बर्तनों में इनको तैयार किया जाता था.

क्या है मधुबनी पेंटिंग

मधुबनी और मिथिला पेंटिंग के नाम प्रचलित इस पेंटिंग को प्राकृतिक रंगों और पिगमेंट का उपयोग करके उंगलियों, टहनियों, ब्रश, निब-पेन और माचिस की तीलियों से बनाया जाता है. इसकी विशेषता इसका आकर्षक रेखाचित्र और ज्यामितीय पैटर्न है. पारंपरिक रूप से मिट्टी की दीवारों और मिट्टी के फ़र्श पर यह की जाती थी. धीरे-धीरे कपड़े, हाथ से बने कागज़ और कैनवास भी इसमें शामिल हो गया है. इस पेंटिंग में दर्शन, सपने, देव आराधना और रोजमर्रा की जिंदगी को आकार देने की परंपरा है. हर पेंटिंग अपने समय का एक दस्तावेज है. यह मिथिला क्षेत्र की अपनी विरासत है. मधुबनी का जितवारपुर गांव इस धरोहर का गढ़ है. 

देखिए मधुबनी पेंटिंग की कुछ तस्वीरें

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