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सामाजिक न्याय के संघर्ष के योद्धा थे डॉ भीमराव आंबेडकर

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ऐतिहासिक आख्यान से ज्ञात होता है कि डॉ आंबेडकर के विचार, दर्शन व सिद्धांत न कि उस समय सटीक थे, बल्कि आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं.

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केसी त्यागी, पूर्व सांसद (जदयू)

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पंकज चौरसिया, शोधार्थी जामिया मिलिया, इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नयी दिल्ली

डॉ भीमराव आंबेडकर की 133वीं जयंती पर उनके विचारों व दर्शन का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए और आधुनिक भारत में उनके विचारों को लागू करना चाहिए. डॉ आंबेडकर ने न केवल अपने समय की दुनिया और समाज का विश्लेषण किया, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने के लिए सक्रिय रूप से सतत संघर्ष भी किया. व्यापक दृष्टिकोण के साथ, उन्होंने उन विवादों का मार्गदर्शन किया, जिन्होंने उनकी धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समाजवाद की मान्यताओं को मजबूत किया.

ऐतिहासिक आख्यान से ज्ञात होता है कि डॉ आंबेडकर के विचार, दर्शन व सिद्धांत न कि उस समय सटीक थे, बल्कि आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं. वर्तमान में उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विचार पर पुनः विचार करने की आवश्कता महसूस हो रही है. डॉ आंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक न्याय पर अधिक जोर दिया तथा उसे संविधान में शामिल भी किया, जो भारतीय सामाजिक सरंचना में सबसे वंचित समुदायों को सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक समानता की कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है.

भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष सदियों पुराना है. आजादी के बाद सामाजिक न्याय के लिए संवैधानिक कदम उठाये गये तथा वंचित समुदायों को सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की गयी ताकि उनका सतत विकास हो सके. यही कारण है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना सामाजिक न्याय के सिद्धांत का संदर्भ देती है. संविधान में यह सुनिश्चित किया गया है कि राज्य द्वारा बनायी गयी प्रत्येक नीति/कानून संविधान में निहित नीति दिशानिर्देशों के अनुरूप ही होगी.

बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान सभा में सामाजिक न्याय की आवाज प्रमुखता से उठायी. सामाजिक न्याय के संदर्भ में उनके विचार थे कि “यदि राज्य अपनी नीतियों में नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू नहीं करता है, तो राज्य को आम चुनाव में इसका परिणाम भुगतना होगा.” नागरिकों के लिए ऐसी सरकार को सत्ता में रखना असंभव है, जो लोगों के लिए काम नहीं करती. वह मानते थे कि आर्थिक और राजनीतिक मामलों को केवल तभी संबोधित किया जाना चाहिए, जब सामाजिक न्याय का उद्देश्य प्राप्त हो गया हो. यदि सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने से पहले आर्थिक और राजनीतिक मामलों पर अनुचित जोर दिया जाएगा, तो सामाजिक न्याय की अवधारणा अर्थहीन हो जाएगी. उनकी यह चेतावनी आज भी प्रासंगिक है.

इसे वर्तमान दौर में सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों के द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों के माध्यम से समझा जा सकता है. वर्तमान में लगभग सभी सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व को महत्व दे रहे हैं, जबकि वंचित समुदायों की पहली प्राथमिकता सामाजिक आत्मसम्मान व सामाजिक सुरक्षा है, इसलिए वंचित समुदायों में सामाजिक न्याय वाले राजनीतिक दलों के प्रति रुझान कम हुआ है और जनता उन्हें अपने वोट के माध्यम से बार-बार नकार रही है. इससे पता चलता है कि डॉ अंबेडकर कितने दूरदर्शी थे.

भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा धीरे-धीरे निर्वाचित सरकारों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुई है, क्योंकि सत्ता में रहते हुए जातिगत समीकरणों से चुनावी लाभ तो लिया गया, लेकिन असंख्य अतिवंचित जातियों के लिए समावेशी नीतियां लागू नहीं की गयीं. सामाजिक न्याय की राजनीति में असली समस्या तब शुरू हुई, जब वर्गीय भावना के नाम पर उन वंचित समुदायों को प्रतिनिधित्व मिला, जो उसी वर्ग में सामाजिक-आर्थिक रूप से संपन्न थे, लेकिन परोक्ष रूप से वास्तविक पिछड़े समुदाय सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाते हैं.

चुनावों के कारण जातिगत समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए राजनीतिक नियुक्तियों की पद्धति ने लगातार सामाजिक न्याय की अवधारणा को चोट पहुंचायी है, क्योंकि जाति विशेष के लिए उठाये गये विशेष कदम आदि को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, यह सामाजिक न्याय एवं कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर प्रहार करता है, जबकि सामाजिक न्याय समानता का सिद्धांत जाति-विरोध की अवधारणा पर आधारित एक अवधारणा है, जिसका उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करना है. यदि गौर करें तो आजादी के लगभग सात दशक बाद भी सामाजिक सरंचना में अतिवंचित/शोषित वर्ग को सामाजिक न्याय के नाम पर बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ है, उनकी स्थिति नीति-निर्देशक सिद्धांतों में निहित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से कोसों दूर प्रतीत होती है.

सामाजिक न्याय डॉ आंबेडकर का मिशन था. उनका दृढ़ विश्वास था कि लोगों के लिए केवल कागजी समानता पर्याप्त नहीं हो सकती. वंचितों के लिए वास्तविक समानता की आवश्यकता है जो इससे हजारो वर्षो से महरूम हैं. संविधान सभा के आखिरी दिन उन्होंने ‘विरोधाभास के जीवन’ के खतरों की ओर इशारा किया था और चेताया था कि “हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर करेंगे, इसलिए हमें यथाशीघ्र इस विरोधाभास को दूर करना होगा अन्यथा जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.”

वर्तमान समय में, सामाजिक-आर्थिक रूप से समृद्ध जातियों ने राजनीतिक व शैक्षणिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है, जबकि सामाजिक रूप से अतिवंचित समूह सत्ता और विशेषाधिकारों के क्षेत्र में केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति हासिल करने में कामयाब रहे हैं. हालांकि विभिन्न सामाजिक न्याय की वकालत करने वाली पार्टियां विपक्ष में रहते हुए सामाजिक न्याय नीतियों को लागू करने का वादा करती हैं, लेकिन सत्ता में रहते हुए अतिवंचित समुदायों की महत्वपूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने में असफल होती हैं. इसका प्रभाव चुनावों में पड़ता है, जिसकी चिंता डॉ आंबेडकर करते थे.

डॉ आंबेडकर का सामाजिक न्याय का दर्शन विस्तृत व वृहद है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक बीमारियों के निदान के उपाय हैं. वह संस्थानों को अधिक लोकतांत्रिक, प्रतिनिधिक और अति वंचित समुदायों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाने के लिए नैतिक सुधारों के हिमायती हैं. भले ही सामाजिक न्याय के काम करने का तरीका पूरी तरह से नया या क्रांतिकारी नहीं है, लेकिन यह संस्थानों को नैतिकता देता है और उन्हें विविध समुदाय के प्रति जिम्मेदार बनाता है. यह सोचने का समय है कि अतिवंचित सामाजिक समुदाय संसदीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कैसे बन सकते हैं.

इन उपायों से सामाजिक सरंचना की बेहद कमजोर वर्गों को शोषित वर्ग बनने से रोका जा सकता है. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह आवश्यक है कि सामाजिक न्याय की नयी नीतियों का विस्तार किया जाए और अति वंचित समुदायों के लिए समान अवसर प्रदान करने के उपाय किए जाएं. सामाजिक न्याय के नए ढांचे को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दलितों, अतिपिछड़ों, महिलाओं, पसमांदा मुस्लिमों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच एक सामाजिक न्याय के दर्शन की विश्सनीयता को पुनः काबिज किया जा सके.

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