बड़कागांव, संजय सागर : हजारीबाग जिले के बड़कागांव प्रखंड के वादियों में इन दोनों सखुआ या सरई के फूल गुलज़ार है. ये फूल हर लोगों का मन बरबस ही मोह रहा है. ये फूल जंगल और बड़कागांव की धरती को दुल्हन की तरह सजा दिया है, जिसकी सुगंध से भंवरे गुनगुना रहे हैं. पक्षियां भी कलराव करने लगे हैं.
ये फूल केवल लोगों के मन को लुभाने के लिए ही नहीं बल्कि ग्रामीणों के लिए सखुआ का फल रोजगार का महत्वपूर्ण साधन है. सखुआ के फूलों का महत्व सरहुल पर्व में बढ़ जाता है .इस फूल से पूजा-अर्चना भी की जाती है. मार्च के अंतिम माह से जुलाई माह तक ग्रामीण सखुआ के फूल और फल चुनकर बेचते हैं.
सखुआ के फल छत्तीसगढ़, यूपी भेजकर मोटी रकम कमाते हैं दलाल
दलाल सखुआ के इन फलों को खरीदकर छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश भेजकर मोटी रकम कमाते हैं. वहीं, ग्रामीणों को मात्र पेट भरने का ही पैसा मिलता है. झारखंड सरकार अगर इसका बाजार उपलब्ध करा दे, तो हजारीबाग जिले के बड़कागांव प्रखंड के गांव देहातों से लोगों का पलायन रुक जायेगा. यहां के लोग अपने गांव के जंगलों में ही रोजगार की तलाश लेंगे.
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सखुआ के फूल मार्च अप्रैल व फल मई से जुलाई मध्य तक मिलते हैं. ग्रामीण इन्हें तोड़कर बेचते हैं. सखुआ फल का मौसम आते ही बड़कागांव का महादी जंगल, बुढ़वा महादेव, लौकुरा, बड़कागांव- हजारीबाग रोड, टंडवा रोड, उरी मारी रोड, जुगरा जंगल, गोंदलपुरा के जंगल गुलजार हो जाते हैं.
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सखुआ के फल तोड़ने के लिए जंगलों में उमड़ती है भीड़
इन जंगलों में फल तोड़ने के लिए ग्रामीणों की भीड़ उमड़ पड़ती है. इससे इतनी आमदनी हो जाती है कि इस क्षेत्र के लोग सखुआ फल के सीजन में दूसरे शहरों में काम करने नहीं जाते. हजारीबाग जिले के बड़कागांव प्रखंड वन प्रक्षेत्र में सबसे अधिक सखुआ के पेड़ हैं.
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बाजार में सखुआ के फल का मूल्य 15 रुपए किलो है. सखुआ के फल से डालडा, साबुन तो बनते ही हैं, इनका निर्यात तेल बनाने के लिए विदेशों में भी होता है. बिचौलिए इन फलों को खरीदकर छत्तीसगढ़ के रायपुर तथा उतर प्रदेश के कानपुर जिले के सॉल्वेंट प्लांट में भेजते हैं और मोटी रकम कमाते हैं.
दूसरे राज्यों में महंगा बिकता है सखुआ का फूल व फल
गांव के लोग जंगलों में मई से जुलाई माह तक पेड़ों से फल तोड़ते हैं, उसके बाद फलों को आंगन, घर, छत, खलिहान सड़कों में सुखाया जाता है.
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सूखने के बाद फलों को आग में जलाया जाता है
उसके बाद फल के उपरी हिस्से के छिलकों को हटाकर इन्हें बाजार में बेचा जाता है. ग्रामीण इसे 15 रुपए प्रतिकिलो की दर से बेचते हैं. दलाल इन्हें खरीदकर छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की फैक्ट्रियों में तेल-डालडा और अन्य सामान बनाने के लिए महंगे दाम पर बेचते हैं.