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सहज और मृदुभाषी स्वभाव के स्वामी स्मरणानंद जी महाराज

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मठ और मिशन में स्वामी स्मरणानंद जी महाराज के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. भाषा पर उनकी पकड़ काफी अच्छी थी औश्र वे कठिन से कठिन बात सहज शब्दों में लेखों के जरिये व्यक्त कर देते थे.

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भास्कर रॉय ( रामकृष्ण मिशन)

स्वामी स्मरणानंद जी महाराज का महज 21 वर्ष की आयु में अध्यात्म की ओर झुकाव हो गया. वर्ष 1929 में तमिलनाडु के तिरुचापल्ली में जन्मे स्मरणानंद जी 1951 में ही मठ मिशन से जुड़ गये. मुंबई में एक सेवक के तौर पर 7-8 साल तक काम किया. सहज और मृदुभाषी स्वभाव के स्वामी कई वर्षों तक निराकार भाव से सेवा करने के बाद मठ मिशन में शीर्ष पद पर पहुंचे. लेकिन उनके व्यक्तित्व में तनिक भी बदलाव नहीं आया. वे पहले की तरह ही सरल और स्वाभाविक जीवन जीते रहे. आम लोगों से सहज तरीके से मिलने के उनके स्वभाव में तनिक भी बदलाव नहीं आया. वे हर किसी से चाहे मिशन का छोटा कार्यकर्ता हो या बड़ा उससे बेहद सौम्य तरीके से मिलते रहे. लेकिन काम के प्रति वे काफी समर्पित थे. छोटे से छोटा और बड़े से बड़े काम को गंभीरता के साथ करते थे. उनका मानना था कि समाज सेवा के बड़े मिशन काे पूरा करने के लिए किया जाने वाला काम चुपचाप तरीके से किया जाना चाहिए. कर्मयोगी कर्म करते हैं और काम का बखान नहीं करते हैं. जीवन भर वे इसी मिशन के साथ जीते रहे और काम करते रहे.

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एक छोटे से कर्मयोगी के तौर पर मिशन से जुड़ने वाले स्वामी स्मरणानंद जी सबसे पहले मिशन के 125 साल पुराने प्रबुद्ध भारत मैगजीन से जुड़े. वे लगभग 15 साल इस मैगजीन से प्रबंधक और सहायक संपादक के तौर पर काम करते रहे. इस दौरान मिशन के कामकाज को सरल और सहज शब्दों में आम लोगों तक पहुंचाने का काम शानदार तरीके से किया. उस दौरान देश में शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं था, लेकिन वे आम लोगों की भाषा में मिशन के काम को पहुंचाने का काम करने में जुटे रहे और मिशन के बारे में आम लोगों को जागरूक करने का सतत प्रयास जारी रहा.


उनके काम की सफलता को देखते हुए 1974 में कोलकाता स्थित बेलूर मठ मिशन के शारदा पीठ से जोड़ा गया. शारदा पीठ शैक्षणिक गतिविधि का काम करता है और इसका शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में काम है. स्कूली शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, पेशेवर शिक्षा जैसे कई संस्थान शारदा पीठ चलाता है. यहां हर स्तर पर युवाओं को शिक्षा मुहैया कराने का काम किया जाता है. स्वामी जी को इसका प्रमुख बनाया गया और वे 14-15 साल तक इस संस्थान से जुड़े रहे और शारदा पीठ के काम को बेहतर बनाने में अमूल्य योगदान दिया. आम लोगों के लिए शारदा पीठ सिर्फ शिक्षा नहीं बल्कि नैतिक मूल्य को मुहैया कराने का प्रमुख केंद्र बन गया. उनके योगदान को देखते हुए मठ के ट्रस्टी बोर्ड और मिशन के गवर्निंग बॉडी का सदस्य भी नियुक्त कर दिया गया.


लेकिन इसके बाद उन्हें बेलुर मठ के बाद संस्था के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण चेन्नई के मठ की जिम्मेदारी सौंपी गयी. वे वर्ष 1991-97 तक इस मठ से जुड़े रहे. यह मठ वर्ष 1897 में स्थापित किया गया था. लेकिन पुराना मठ होने के बाद भी इसके प्रांगण में मंदिर नहीं था. स्वामी जी ने इस परिसर में मंदिर निर्माण की पूरी योजना और रूपरेखा को तैयार किया. वर्ष 2000 के बाद इस प्रांगण में मंदिर का निर्माण किया गया और इस महत्वपूर्ण कार्य का श्रेय स्वामी स्मरणानंद को जाता है. फिर वर्ष 1997 में उन्हें चेन्नई से बेलूर मठ का महासचिव नियुक्त किया गया और वर्ष 2007 में उपाध्यक्ष बनाये गये. इसके बाद उनके पास लोगों को दीक्षित करने का अधिकार भी मिल गया. फिर संस्था ने उन्हें 2007 में संस्था का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. लेकिन पिछले दो साल से स्वास्थ्य कारणों के कारण वे सक्रिय भूमिका नहीं निभा पा रहे थे.


लेकिन मठ और मिशन में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. भाषा पर उनकी पकड़ काफी अच्छी थी औश्र वे कठिन से कठिन बात सहज शब्दों में लेखों के जरिये व्यक्त कर देते थे. उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं. वे विदेश में भी काफी लोकप्रिय थे और मिशन की बातों को बेहद प्रभावशाली तरीके से अपने भाषणों के जरिये पेश करते थे. ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों में उनकी बात का सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं. वे सिर्फ मिशन की बातों को आगे बढ़ाने के लिए याद नहीं किये जायेंगे, बल्कि दिल्ली स्थित रामकृष्ण मिशन से भी उनका विशेष जुड़ाव रहा है. मिशन में लाइब्रेरी को स्थापित करने और उसका उद्घाटन का श्रेय स्वामी जी को जाता है. इस लाइब्रेरी में 45 हजार किताबें हैं और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र इसका लाभ उठा रहे हैं. समाज और मानव सेवा ही उनका सबसे बड़ा धर्म था और देश की संस्कृति को देश ही नहीं विदेश में प्रसारित करने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता है.
(बातचीत पर आधारित)

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