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संताल परगना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, आंदोलनों को शांत करने के लिए अंग्रेजी शासन ने बनाया था जिला

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संताल विद्रोह से कंपनी सरकार इसकी व्यापकता, तीव्रता, जनसांख्यिकीय संगठन और दूरगामी प्रभाव से बेहद प्रभावित हुई. नदिया डिवीजन के कमिश्नर एसी बिडवेल ने 10 दिसंबर 1855 को सरकार को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में संतालों की जायज शिकायतों की विस्तृत विवेचना की थी.

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डॉ सुजाता सिन्हा, देवघर : ब्रिटिश हुकूमत, हूल विद्रोह के बाद मजबूर थी. शोषण के खिलाफ संताल और मूलवासियों ने साल 1855-56 में एकजुट होकर फिरंगियों के खिलाफ जंग लड़ी थी. इस लड़ाई को हम हूल क्रांति के तौर पर जानते है. यह एशिया का सबसे बड़ा जनता का आंदोलन था, भारत की शुरुआती सबसे बड़ी क्रांति भी. यह दीगर है कि इस आंदोलन को अंग्रेजों ने बलपूर्वक दबा दिया. इस आंदोलन के बाद हो रही छिटपुट घटनाओं को शांत करने के लिए अंग्रेजी शासन ने 22 दिसंबर 1855 को संताल परगना जिले का गठन किया. यहां रह रहे संताल व अन्य जातियों को कई सुविधाएं उन्हें देनी पड़ीं. साम्राज्यवादी सरकारी लेखक एच मैकपर्सन की रिपोर्ट आन द सर्वे एंड सेटेलमेंट आपरेशन इन द डिस्ट्रिक्ट आफ संथाल परगनाज 1898-1907 (कलकत्ता 1909) के मुताबिक संताल विद्रोह के बाद भी परगना में विदेशी शासन का प्रतिवाद जारी रहा. शीघ्र ही रेंट के मामले (1860-1861) को लेकर संताल परगना फिर अशांत हो उठा. इसे लेकर ब्रिटिश अधिकारियों में हड़कंप मच गया. वे संतालों से काफी आतंकित हो गये. इस क्रांति में व्यापक क्षति के बाद मिले सबक को लेकर ब्रिटिश अधिकारियों ने तत्काल कार्रवाई की थी. संताल की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की थी. हालांकि, संतालों का राज्य स्थापित होने के बाद भी संघर्ष खत्म नहीं हुआ. बल्कि आंदोलन का स्वरूप समय के साथ बदलता रहा. वर्ष 1869-1874 को साफाहोड़ आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसे आगे चलकर सामाजिक और धार्मिक पुनरुत्थान आंदोलन के रूप में जाना गया. संताल के आंदोलन के बार-बार दमन के बाद भी अंग्रेज इसे खत्म नहीं कर सके. क्योंकि, संताल जनजातियां अपनी बहादुरी के लिए जानी जाती है. वे भारत में ब्रिटिश शासन के समय से ही महान योद्धा थे. आधुनिक भारतीय इतिहास में किसान विद्रोहों का महत्वपूर्ण स्थान है. संताल विद्रोह अपनी तरह का पहला विद्रोह था, जो 1793 के स्थायी भूमि बंदोबस्त की शुरूआत की प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ था.

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संताल विद्रोह से कंपनी सरकार इसकी व्यापकता, तीव्रता, जनसांख्यिकीय संगठन और दूरगामी प्रभाव से बेहद प्रभावित हुई. नदिया डिवीजन के कमिश्नर एसी बिडवेल ने 10 दिसंबर 1855 को सरकार को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में संतालों की जायज शिकायतों की विस्तृत विवेचना की थी. उन्होंने स्वीकार किया था कि जिस शासन व्यवस्था के अंतर्गत संतालों पर शासन किया जाता था. वही विद्रोह की उत्तरदायी थी. इसलिए यह निश्चित किया गया कि बंगाल प्रेसिडेंसी में लागू सरकार के एक्ट और रेगुलेशंस संतालों पर लागू नहीं होने चाहिए. इसके मुताबिक 1833 को गठित दामिन-इ-कोह (यह वर्तमान झारखंड के पूर्वी क्षेत्र जिसे संताल परगना ””दामिन-ए-कोह”” भागलपुर व राजमहल पहाड़ियों के आसपास का क्षेत्र) के नाम से जानते हैं) और इसके आसपास के इलाके में संताल निवासी थे. बीरभूम और भागलपुर को अलग कर दिया गया और 22 दिसंबर 1855 को पारित अधिनियम 37 के प्रावधानों के तहत इन सभी इलाकों को एकीकृत कर नान रेगुलेशन जिला संताल परगना बनाया गया. उन दिनों संताल परगना में ईसाई मिशनरियां काफी सक्रिय हुईं, पर उन्हें यहां कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली. इन सब घटनाओं के बाद संताल परगना में जल्द ही साफाहोड़ आंदोलन प्रस्फुटित हुआ और यह तेजी से संताल के अन्य भागों में फैला. 1967 में ओलाव होडने ने स्पष्ट किया कि साफाहोड़ आंदोलन से मिशनरियों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा. इस आंदोलन ने उनके कार्यों को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया था. बाद में पारित अमेडिंग एक्ट 1903 में इस अधिनियम का नाम बदलकर संताल परगना अधिनियम किया गया. माना जाता है कि संताल परगना जिला गठन के बाद इसके नान रेगुलेशन प्रावधानों के संबंध में विवाद उत्पन्न हो गया. लेफ्टिनेंट गर्वनर ने एडवोकेट जनरल द्वारा इसके नान रेगुलेशन के प्रावधानों को रद्द करने के विचार को स्वीकार कर लिया, साधारण कानूनों को लागू करने का निर्देश दिया था. यह एक गलत निर्णय था, जिसका गंभीर परिणाम हुआ. इसके परिणाम स्वरूप रेंट कानून, द सिविल प्रोसेड्यूर कोड 1859, स्टांप एक्ट और अन्य कानून को लागू मान लिया गया. इसके बाद अन्य जिलों की तरह संताल परगना भी रेगुलेशन जिला हो गया तथा आम जनता को परेशानी झेलने को विवश होना पड़ा. भारत सरकार के सचिव ने बंगाल सरकार को लिखित अपने पत्र संख्या 1258-ए, दिनांक 28 जुलाई 1871 में एडवोकेट जनरल की अवधारणा को गलत ठहराते हुए इसे निरस्त कर दिया और इसकी जानकारी भागलपुर के कमिश्नर को भी पत्र लिखकर देते हुए बड़ी कार्रवाई की थी.

संताल परगना सेंटलमेंट रेगुलेशन-3 ऑफ 1872 पारित कर संताल परगना में साधारण कानूनों को लागू करने से रोक दिया गया, इसे नान रेगुलेशन जिला बनाया गया. जैसा कि संताल परगना को एक्ट 37 ऑफ 1855 ( 22 दिसंबर 1855) में जिला घोषित किया गया. इसलिए लेखक मैकफर्सन ने संताल परगना सेटलमेंट रेगुलेशन-3 ऑफ 1872 को संताल परगना का मैग्नाकार्टा बताया था. संताल परगना साधारण कानून और नियमों से अलग न्याय प्रशासन और राजस्व संग्रह की व्यवस्था, सिविल और क्रिमिनल, न्याय प्रशासन की व्यवस्था, अंतिम निर्णय, मृत्युदंड की पुष्टि, अपील, सदर कोर्ट से संबंधित प्रक्रिया, यूरोपियन ब्रिटिश प्रजा से संबंधित कानूनों की रक्षा आदि एक्ट 37 ऑफ 1855 की कतिपय प्रशासनिक व्यवस्थाएं थीं. बाद में वर्ष 1870, 1893 और 1822 में कई कानूनों को पारित कर एक्ट 37 ऑफ 1855 के अनेक प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया. यह उल्लेखनीय है कि संताल परगना सेटेलमेंट रेगुलेशन-3 ऑफ 1872 एक ऐतिहासिक अधिनियम था, जिससे दूरगामी प्रभाव पड़े. इसकी खामियों और काश्तकारी समस्याओं को दूर करने के लिए संताल काश्तकारी कानून 1949 पारित किया. इस प्रकार वर्ष 1833 में दामिन-इ-कोह के गठन के बाद 1855 में संताल परगना का गठन एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी.

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