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यूपी में भी बहुत सरल थी दुर्गापूजा की 250 साल पुरानी पद्धति, बिना वैदिक मंत्र के पूजा करने का था विधान

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उत्तर प्रदेश की दुर्गापूजा की पुरानी पद्धति बहुत ही सरल थी. 150 वर्षों से बाहरी प्रभाव के कारण पद्धतियों को जटिल बना दिया गया है, जिससे विशेष रूप से पढ़े-लिखे ब्राह्मण ही पूजा कर सकें.

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Durga Puja: उत्तर प्रदेश की दुर्गापूजा की भी अपनी पुरानी परम्परा रही है. यहां की दुर्गापूजा की पुरानी पद्धति बहुत ही सरल थी. इससे समाज के सभी लोग पूजा कर सकते हैं, इसके लिए उन्हें वेद के मन्त्रों की जटिलता का सामना नहीं करना होगा. पंडित भवनाथ झा के अनुसार लगभग 150 वर्षों से बाहरी प्रभाव के कारण पद्धतियों को जटिल बना दिया गया है, जिससे विशेष रूप से पढ़े-लिखे ब्राह्मण ही पूजा कर सकें, इस प्रकार आज आवश्यकता हो गयी है कि हम पुरानी दुर्गा-पूजा पद्धति को अपनावें ताकि सभी लोग पूजा कर सकें. ऐसी ही एक पुरानी पद्धति लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ‘अथ दुर्गोत्सव लिख्यते पुस्तकं’ शीर्षक से संकलित है, इसकी डिजिटल प्रति ओपेन सोर्स पर अध्ययन के लिए उपलब्ध है. यह मुदाकरण त्रिपाठी द्वारा विरचित है तथा उपलब्ध पाण्डुलिपि उत्तर प्रदेश के बांसी नगर से पश्चिम एक कोस पर अवस्थित खरिका गांव में जगन्नाथ नामक व्यक्ति के द्वारा संवत् 1909 तथा शक संवत् 1768 यानी 1847-48ई. में लिखी हुई है.

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चित्र 1. पाण्डुलिपि की अंतिम पृष्ठः “इति श्री त्रिपाठीमुदाकरणकृतः संक्षिप्तदुर्गापूजाप्रयोगः समाप्तः शुभमस्तु शुभं भूयात् जगन्नाथेनालेखि पुस्तकमिदं खरिकाग्रामे वांश्या नगर्याः पश्चिमदेशे क्रोशैकमात्रे सम्वत् 1904 शाके 1769.”

दुर्गा पूजा पद्धति को बनाने वाले मुदाकरण त्रिपाठी 1846-47 से भी पहले के हैं, यह तिथि तो लिपिकार जगन्नाथ के लिखावट की है. वर्तमान में खरिका गांव उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिला में बांसी से 5 किमी. पश्चिम राप्ती नदी के किनारे खरिका खास के नाम से है. सूचनानुसार यह सरयूपारीण ब्राह्मणों का बहुत प्रसिद्ध गांव है.

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ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संस्थापक वेद प्रकाश शास्त्री ने बताया कि आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश की इस सरल सुगम पुरानी पद्धति के रहते बाद में फिर से जटिल पद्धति बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी! इसमें दुर्गापूजा के सभी अंगों का विवेचन हुआ है. दुर्गासप्तशती पाठ यजमान स्वयं भी कर सकते हैं अथवा दूसरे को भी भार दे सकते हैं. दोनों के लिए अलग-अलग संकल्प दिया गया है. कहा गया है कि ‘जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी’ इत्यादि मन्त्र से देवी को सभी वस्तु-जैसे चंदन, फूल, माला, नैवेद्य आदि अर्पित करें. बिल्वपत्र से खड्ग में देवत्व का आवाहन कर पंचोपचार से पूजा कर दुर्गासप्तशती का पाठ करें अथवा सुनें. इसके बाद छाग की बलि का संकल्प करने का विधान है, इसमें कहा गया है कि दस वर्षों तक दुर्गा देवी की कृपा पाने के लिए इस छाग की बलि मैं दे रहा हूं.

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नवरात्रि के अष्टमी के दिन सौ वर्षों तक देवी की कृपा पाने के लिए महिष की बलि, कोहरे की बलि तथा पीठा से भेंड की आकृति बनाकर उसकी बलि देने का भी विधान किया गया है. नवमी के दिन पूजा सम्पन्न करने के बाद हवन का विधान है. इस हवन की समाप्ति से पूर्व अपने अंग से खून निकाल कर दुर्गा के चरणों में समर्पित करने की विधि दी गयी है. इस पद्धति की विशेषता है कि इसमें एक भी वैदिक मन्त्र नहीं हैं. सभी मन्त्र किसी न किसी पुराण से लिए गये हैं तथा सभी प्रसंग में सार्थक हैं.

ज्योतिषाचार्य वेद प्रकाश शास्त्री ने बताया कि 250 साल पुरानी दुर्गा पूजा पद्धति की जानकारी प्राप्त होने पर मेरे द्वारा पूजा पद्धति के संकलन करता के बारे में जो तथ्य पुस्तक में मिले थे, उसके आधार पर जनपद सिद्धार्थनगर के बंसी कस्बे के पड़ोस खारिक गांव से पता चला कि जगन्नाथ नामक व्यक्ति दो भाई थे. जिनकी पांचवी पीढ़ी उमाशंकर पाण्डेय ने पुष्टि करते हुए बताया कि वे संस्कृत के बड़े विद्वान थे, उन्हीं के द्वारा इस पूजा पद्धति की संकलन करने की पुष्टि की गई है. बता दें कि उत्तर प्रदेश में भी इस प्रकार की पद्धति से वर्षों पहले दुर्गा पूजा होती थी, जिसमें सभी भक्त श्रद्धापूर्वक मां दुर्गा की पूजा करते थे. यह समाजशास्त्रियों के लिए विचारणीय विषय है कि क्या पूजा-पद्धति में जटिलता लाकर समाज के एक बड़े तबके को धार्मिक अधिकारों से वंचित करने का षड्यंत्र 19वीं शती के उत्तरार्द्ध की तो देन नहीं है?

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