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हिंदी के हक में आवाज उठानेवाले अहिंदीभाषी

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गांधी प्रलोभन में नहीं आये, और संदेशवाहक से दो टूक कहवा दिया कि ‘उनसे कह दो कि वो भूल जाएं कि मुझे अंग्रेजी आती है. दुनिया को बता दें कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती.’

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जब भी हिंदी दिवस आता है, हिंदी की दशा-दिशा पर चर्चा होती है. लेकिन इस सवाल की ओर शायद ही किसी का ध्यान जाता है कि पराधीनता के वक्त नाना विघ्न-बाधाओं के बावजूद स्वतंत्रता संघर्ष की भाषा बन जाने वाली हिंदी स्वतंत्र भारत में अपनी वह लय क्यों नहीं बनाये रख पा रही? कहा जाता है कि इधर देश के अहिंदीभाषी राज्यों में भी, उनकी सत्ताओं द्वारा अवांछनीय राजनीतिक विरोध के बावजूद और धीरे-धीरे ही सही, उसका कारवां आगे बढ़ने लगा है.

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लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज वह अपनी पट्टी के निवासियों को भी यह बात नहीं समझा पा रही, कि निज भाषा की उन्नति ही सारी उन्नतियों का मूल है, और निज भाषा उन्नति बिना मिटै न हिय को शूल. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यह बात पराधीनता के दौर में ही समझ ली थी.

हिंदी ने एक-एक कर अहिंदीभाषी राज्यों से आने वाले अपने उन समर्थकों को भी खो दिया है, जो पराधीनता के दौर में मुखर होकर उसका झंडा ऊंचा किया करते थे. उसको उसकी सही जगह दिलाने के ही क्रम में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंदीभाषी होने के बावजूद, अंग्रेजी को आजादी से चार दिन पहले से ही धता बताना आरंभ कर दिया था. उन्हें कुछ और वक्त मिला होता, या खुद को उनका वारिस कहने वाले सत्ताधीशों ने उनके जैसी दृढ़ता दिखायी होती, तो नि:संदेह आज स्थिति दूसरी होती.

ऐसा तो नहीं ही होता कि वह केवल विज्ञापन, बाजार, मनोरंजन या कि वोट मांगने की भाषा होकर रह जाए. उसमें ज्ञान-विज्ञान और चिंतन-मनन का काम निरंतर पिछड़ता जाए, और वह सिर्फ इतने से खुश होने को अभिशप्त हो कि सोशल मीडिया पर ‘रानी’ बन गयी है! महात्मा गांधी के सचिव रहे प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी द लास्ट फेज’ में लिखा है कि आजादी की घोषणा हुई, तो बीबीसी ने महात्मा से आजादी के दिन के लिए अपना संदेश देने का अनुरोध किया.

देश के कई हिस्सों में हिंसा से व्यथित महात्मा ने मना कर दिया, तो बीबीसी ने उन्हें यह कहकर राजी करने की कोशिश की कि वह संदेश का अनुवाद कराकर कई भाषाओं में प्रसारित करेगा. लेकिन गांधी इस प्रलोभन में नहीं आये, और संदेशवाहक से दो टूक कहवा दिया कि ‘उनसे कह दो कि वो भूल जाएं कि मुझे अंग्रेजी आती है. दुनिया को बता दें कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती.’ इस सख्त संदेश के पीछे का उनका मंतव्य साफ था कि देश आजाद हो रहा है, तो उसका कामकाज उसी की भाषा में होना चाहिए.

इसी तरह अहिंदीभाषी आचार्य विनोबा भावे कहते थे कि मैं दुनिया की सभी भाषाओं की इज्जत करता हूं, पर मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं सह नहीं सकता. आइए, उनके इस कथन को पूर्व सोवियत संघ के एक वाकये से मिलाकर देखें. भारत से साहित्यकारों का एक शिष्टमंडल मॉस्को गया, तो वहां की सरकार ने स्वागत के लिए अपने देश के सर्वोच्च सम्मान ‘आर्डर ऑफ लेनिन’ से विभूषित प्रो अलेक्सेई पेत्रोविच वरान्निकोव को भेजा. वह हिंदी व रूसी दोनों भाषाओं के उद्भट विद्वान और जाने-माने कवि थे.

उन्होंने साढ़े दस वर्ष तक कड़ी मेहनत कर ‘रामचरितमानस’ का रूसी भाषा में पद्यानुवाद तो किया ही था, प्रेमचंद की कुछ रचनाओं का रूसी अनुवाद भी किया था. हिंदी-रूसी शब्दकोश बनाने में भी उन्होंने बड़ी भूमिका निभायी थी. लेकिन उन्होंने शिष्टमंडल का स्वागत करते हुए बेहद संयत व परिष्कृत हिंदी में कहा, ‘मैं वरान्निकोव सोवियत संघ में आपका हार्दिक स्वागत करता हूं’ तो शिष्टमंडल के सदस्यों को न अपनी आंखों पर विश्वास हुआ, न ही कानों पर.

चकित शिष्टमंडल के नेता ने कहा, ‘स्वागत का धन्यवाद, लेकिन यहां मास्को में रहते हुए आपने इतनी अच्छी हिंदी, उसे बोलने का उससे भी अच्छा लहजा, कैसे सीखा?’ वरान्निकोव का जवाब था, ‘यहां सोवियत संघ में तो मुझे हिंदी सीखने में कोई बड़ी समस्या पेश नहीं आयी, लेकिन क्या बताऊं, कुछ वर्षों के लिए मुझे दिल्ली स्थित सोवियत सूचना केंद्र भेज दिया गया, जहां रहते मैं सारी हिंदी भूल गया और दोबारा सीखनी पड़ी.’

दिल्ली में हिंदी भूलकर दुखी होने वाले वरान्निकोव अकेले विदेशी नहीं हैं. बेल्जियम से मिशनरी के रूप में भारत आये हिंदी, तुलसी व वाल्मीकि के मुक्तकंठ प्रशंसक और पद्मभूषण से सम्मानित फादर कामिल बुल्के का मानना था कि इस देश में संस्कृत का दर्जा महारानी का होना चाहिए, जबकि हिंदी का बहूरानी और अंग्रेजी का नौकरानी का. कभी-कभी वे इसे इस प्रकार भी कहते थे कि संस्कृत को मां, हिंदी को गृहिणी और अंग्रेजी को सेविका होना चाहिए.

आयरलैंड के डाॅ जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन तो हिंदी को महाभाषा कहते थे और विलियम केरी को भी उसे वर्नाक्यूलर कहने पर एतराज था. वह कहते थे कि हिंदी को किसी एक प्रदेश या अंचल की भाषा नहीं कह सकते. अहिंदीभाषियों में हिंदी के प्रति इतनी पुरानी सदाशयता के बावजूद स्वतंत्र भारत में ऐसी स्थिति बनने से नहीं रोका जा सका है, जिसके कारण रघुवीर सहाय को अरसा पहले कहना पड़ा था कि ‘हमारी हिंदी एक दुहाजू की नयी बीवी है’, तो क्या इसके जिम्मेदारों की तलाश कर उन्हें आईना नहीं दिखाया जाना चाहिए?

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