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राष्ट्रीय खेल दिवस : गोल पोस्ट में सपनों का किक दाग रही झारखंड की बेटियां, जानें खिलाड़ियों के संघर्ष की कहानी

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आज राष्ट्रीय खेल दिवस पर हम इन्हीं महिला फुटबॉलर के संघर्ष और सफलता की कहानी बयां कर रहे हैं. झारखंड के 24 जिलाें में महिला फुटबाॅलर दमखम दिखा रही हैं. हर जिले में एक-दो क्लब हैं, जहां लड़कियां ट्रेनिंग ले रही हैं.

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रांची, पूजा सिंह : लड़कियां हर खेल में आगे बढ़ रही हैं. देश-विदेश में परचम लहरा रही हैं. इन्हीं खेल में फुटबॉल भी शामिल है, जिसमें लड़कियां गांव से निकल कर देश-विदेश के मैदान पर भी किक मार रही हैं. हालांकि यहां तक का सफर आसान नहीं रहा. गांव-घर के ताने, खेल के लिए छोटे कपड़े की सोच रुकावट बन रही थी. बावजूद इन पाबंदियों को बुलंद इरादों से तोड़ते हुए सफलता की राह पर आगे बढ़ रही हैं. इसमें घर-परिवार का पूरा साथ मिल रहा है. आज राष्ट्रीय खेल दिवस पर हम इन्हीं महिला फुटबॉलर के संघर्ष और सफलता की कहानी बयां कर रहे हैं.

24 जिलाें में 3000 से अधिक महिला फुटबॉलर

झारखंड के 24 जिलाें में महिला फुटबाॅलर दमखम दिखा रही हैं. हर जिले में एक-दो क्लब हैं, जहां लड़कियां ट्रेनिंग ले रही हैं. यह संख्या करीब 3000 तक है. वहीं ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन से सेंट्रलाइज रजिस्ट्रेशन सिस्टम के तहत 200 लड़कियां ही फुटबॉल के लिए रजिस्टर्ड हैं.

कभी-कभी गांव के मनचले युवक मैदान में ही डेरा जमा लेते

अंशु कच्छप. अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी. डाना कप की विजेता रह चुकी हैं. वह कहती हैं : 2013 में फुटबॉल खेलना शुरू किया. उस वक्त परिवार का भी पूरा सहयोग नहीं था. बावजूद इसके फुटबॉल खेलती रही. काफी परेशानी हुई. गांव में छोटे कपड़े पहनकर फुटबॉल खेलना बड़ी बात थी. फब्तियां सुनने को मिलती. कभी-कभी तो जानबूझकर गांव के मनचले मैदान में ही डेरा जमा लेते. बावजूद हार नहीं मानी. उसी संघर्ष का परिणाम है कि डेनमार्क में आयोजित डाना कप में शामिल होने का मौका मिला. जीतकर वापस भी लौटी. आज 100 बच्चों खास लड़कियों को फुटबॉल की ट्रेनिंग दे रही हैं. खुद भी अभ्यास करती हैं. शाम चार से छह बजे तक गांव के ही एक छोटे से मैदान में ट्रेनिंग देती हूं. अंशु कहती हैं : सरकार से काफी सहायता की जरूरत है. अपना झारखंड खेल में काफी आगे जा सकता है.

गांव के मैदान में फटे हुए जूते पहनकर खेलती थी फुटबॉल

ओयना गांव की प्रिया कुमारी 2013 से फुटबॉल खेल रही हैं. वह कहती हैं : गांव की दूसरी लड़कियों को खेलते देखकर अच्छा लगता था. इस कारण फुटबॉल खेलने की इच्छा बढ़ने लगी. लेकिन लड़कियों के लिए फुटबॉल खेलना आसान नहीं था. माता-पिता मजदूर हैं, जिस कारण आर्थिक परेशानी होती. फटे हुए जूते से खेलना पड़ा, क्योंकि मां-बाबा की कमाई घर के खर्च में ही खत्म हो जाती थी. वहीं गांव वालों का मानना था की लड़कियां सिर्फ घरों में ही अच्छी लगती हैं. छोटे पैंट पहन कर फुटबॉल खेलना बड़ी बात थी. गांव के कुछ लोग मां-बाबा को भड़काते भी थे, लेकिन उनका पूरा सहयोग मिला. यही कारण है कि कई राष्ट्रीय मुकाबला खेलने को मौका मिला. खेलो इंडिया यूथ गेम, सब जूनियर नेशनल गेम 2018, हीरो जूनियर गर्ल्स नेशनल चैंपियनशिप और सुब्रत मुखर्जी फुटबॉल चैंपियनशिप-2016 जैसे गेम्स खेल चुकी हैं.

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इंग्लैंड में दमखम दिखाने के बावजूद दूसरे के खेतों में करती हैं मजदूरी

हलदामा की प्रियंका कच्छप एनसीसी में अंडर ऑफिसर के पद पर हैं. साथ ही ग्रेजुएशन भी कर रही हैं. प्रियंका 10 वर्षों से फुटबॉल में दमखम दिखा रही हैं. वह सात बार राष्ट्रीय और एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रतिभा दिखा चुकी हैं. इंग्लैंड में आयोजित फुटबॉल टूर्नामेंट में भारतीय टीम की कप्तानी कर चुकी हैं और टीम को चैंपियन भी बनाया है. वह कहती हैं : यह सब हासिल करना इतना आसान नहीं था. गांव की पहली लड़की थी, जिसने देश का प्रतिनिधित्व किया. शुरुआत में माता-पिता फुटबॉल खेलने से मना करते थे. उस वक्त आसपास के गांव के लड़के हमेशा ताना मारते. राष्ट्रीय स्तर खेलने लगी, तो महीना भर घर से बाहर रहना पड़ जाता. दूसरी तरफ घर की औरतें घर से बाहर निकलने से मना करती थीं. इस कारण भी कई राष्ट्रीय टूर्नामेंट नहीं खेल पायी. बावजूद इसके हिम्मत नहीं हारी. प्रियंका कहती हैं : घर की आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए गांव से निकलकर फुटबॉल ग्राउंड पहुंचीं. कोच ने फुटबॉल और पढ़ाई दोनों को बढ़ावा दिया. हालांकि आज भी अपनी पढ़ाई और फुटबॉल किट खरीदने के लिए काम करना पड़ता है. दूसरे के खेतों में मजदूरी करनी पड़ती है, ताकि फुटबॉल किट और अपनी पढ़ाई जारी रख सकूं.

2013 से चारीहुजीर गांव में 15 लड़कियों ने फुटबॉल खेलना शुरू किया. इसके लिए माता-पिता को काफी काउंसेलिंग करनी पड़ी. लड़कियों को फुटबॉल के बारे में हर चीज बतानी पड़ी. उस वक्त ये सब स्कूल भी नहीं जाती थीं. आज सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुकाबले खेल रही हैं. मैं खुद के पैसे और दोस्तों के सहयोग से लड़कियों को फुटबॉल की ट्रेनिंग दे रहा हूं.

-आनंद प्रसाद गोप, कोच

झारखंड की लड़कियों को प्रोफेशनल फुटबॉल के बारे में बताना होगा. यह खेल उनका भविष्य संवार सकता है. आज 30-40 लड़कियां दूसरे शहरों के क्लब के लिए फुटबॉल में दम दिखा रही हैं. सरकारी छात्रवृत्ति का भी लाभ मिल रहा है. लड़कियों को खेल की जानकारी मिलती रहे, तो और भी आगे बढ़ सकती हैं.

-सरोजनाथ महतो, कोच

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