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ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक बेखौफ आवाज, बचपन में ही स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ी थी गुजरात की उषा मेहता

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उम्र की जिस दहलीज पर बच्चे अक्षरों से रू-ब-रू होते हैं, उसी उम्र में भारत मां की एक बेटी ने स्वाधीनता आंदोलन में खुद को झोंक दिया. ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाये. सीक्रेट रेडियो सर्विस शुरू कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की. इस बेखौफ आवाज का नाम है डॉ उषा मेहता.

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मेरी माटी, मेरा देश : उम्र की जिस दहलीज पर बच्चे अक्षरों से रू-ब-रू होते हैं, उसी उम्र में भारत मां की एक बेटी ने स्वाधीनता आंदोलन में खुद को झोंक दिया. ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाये. सीक्रेट रेडियो सर्विस शुरू कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की. इस बेखौफ आवाज का नाम है डॉ उषा मेहता. मेरी माटी, मेरा देश शृंखला में आज पेश है इस महान महिला स्वतंत्रता सेनानी के साहस व शौर्य की कहानी.

आठ वर्ष की उम्र में ही स्वाधीनता आंदोलन में

उषा मेहता, महज आठ वर्ष की उम्र में ही स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ीं. अपने से तीन गुना बड़े लोगों के साथ कदम से कदम मिला कर चल पड़ीं. 1928 में अंग्रेजों के खिलाफ मार्च में शामिल होकर कर ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाये. इस छोटी-सी उम्र में अंग्रेजी हुकूमत की ईंटें भी खायीं. कहा जाता है कि जब वह महज पांच साल की थीं, तो उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से एक शिविर में हुई थी. इस दौरान वह गांधीजी के विचारों से इतना प्रभावित हुईं कि बाद में उनकी अनुयायी बन गयीं. आगे वह गांधीवादी विचारधारा व दर्शन की एक प्रमुख प्रचारक के रूप में उभरीं.

देश में पहली बार ‘सीक्रेट रेडियो सर्विस’ की शुरुआत

बात 1942 की है. इसी वर्ष महात्मा गांधी ने अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान किया था. इसके बाद 14 अगस्त को उषा मेहता और उनके कुछ सहयोगियों ने देश में पहली बार ‘सीक्रेट रेडियो सर्विस’ की शुरुआत की. इसका पहला प्रसारण संभवत: 27 अगस्त,1942 को हुआ. तब उषा मेहता 22 वर्ष की थीं. इस रेडियो के जरिये गांधीजी के संदेशों, राष्ट्रवादी गीतों व क्रांतिकारियों व देशभर के प्रसिद्ध नेताओं के भाषणों को प्रसारित किया गया. ब्रिटिश अफसरों से बचने के लिए आयोजक रोजाना स्थान को बदल लेते थे. यह रेडियो करीब तीन महीने ही चला.

चार साल की कैद की सजा

इस अल्प अवधि में ही उषा मेहता व उनकी टीम ने इसके जरिये देशवासियों को ब्रिटिश सरकार की करतूतों से अवगत कराया. इसके बाद वह सुर्खियों में आ गयीं. नवंबर, 1942 में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. चार साल की कैद की सजा सुनायी गयी. पुणे के यरवदा जेल में बंद कर रहने के दौरान उनकी तबीयत बिगड़ गयी. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. मार्च, 1946 में उनकी रिहाई हुई. देश की आजादी के बाद भी वह गांधीवादी दर्शन के प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहीं. उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया. 11 अगस्त, 2000 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

बेटी की हठ के आगे पिता ने भी मानी हार

स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेना भारत मां की इस बेटी के लिए आसान नहीं था. इस आंदोलन में उषा मेहता की भागीदारी से उनके पिता असहमत थे. दरअसल, वह ब्रिटिश राज के तहत एक जज थे. बेटी की हठ देखते हुए पिता को राजी होना ही पड़ा.1930 में रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपनी बिटिया को आंदोलन में शामिल होने की अनुमति दे दी. इसके उपरांत उषा मेहता सक्रिय रूप से स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बन पायीं.

आंदोलन में छोड़ी पढ़ाई, आजादी के बाद की पूरी

डॉ उषा मेहता का जन्म 25 मार्च, 1920 को सूरत (गुजरात) के पास सरस गांव में हुआ था. 1939 में उन्होंने विल्सन कॉलेज (तब बॉम्बे)से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. फिर कानून की पढ़ाई के लिए तैयारी करने लगीं. इसी दौरान भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा हुई और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. देश के आजाद होने के बाद भी उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की.

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