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सांस्कृतिक विविधताओं के वाहक हैं आदिवासी

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यह इतिहास और संस्कृति की एकांगी धारा के विपरीत उस उपेक्षित और विस्मृत धारा का स्मरण कराता है, जिसमें मनुष्यता और सभ्यता के उच्च गुण मौजूद हैं. जो बताता है कि मनुष्यता का सूचक भिन्न भाषा, संस्कृति, जीवनशैली, ज्ञान परंपरा और विश्व दृष्टि को स्वीकार करना है.

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वर्ष 1992 में कोलंबस के अमेरिका पहुंचने के पांच सौ वर्ष पूरे होने वाले थे. इस वर्ष को दुनिया में उपनिवेश कायम करने वाले कुछ देशों ने ‘ज्ञान और सभ्यता की खोज’ की तारीख के रूप में मनाने की योजना बनायी. योजना को संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव लाकर कार्यरूप देना था. जैसे ही इसकी खबर आदिवासी समाज के बौद्धिकों और प्रतिनिधियों को मिली, उन्होंने इसका विरोध शुरू किया. विश्व के आदिवासी समुदायों ने कहा कि यह तारीख ‘ज्ञान और सभ्यता की खोज’ की नहीं, बल्कि ‘जनसंहार’ की तारीख है. आदिवासी समुदायों ने उस तारीख को ‘प्रतिरोध के 500 वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की. इस समुदायों के कड़े विरोध के बाद यह योजना कार्यरूप में लागू नहीं हो सकी.

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बारह अक्तूबर, 1492 को कोलंबस अमेरिका पहुंचा. तब से लेकर 19वीं सदी के अंतिम दौर तक अमेरिका में आदिवासी समुदायों की संख्या घटकर मात्र ढाई लाख रह गयी थी. अमेरिकी आदिवासियों पर यूरोपीय लोगों द्वारा लभगग डेढ़ हजार बार हमले किये गये. वह दौर आदिवासियों के जनसंहारों का दौर था. इस दौरान पांच से 15 मिलियन तक आदिवासी समुदायों की आबादी में कमी आयी. लेकिन कथित सभ्य और विकसित समाज ने इसके लिए कभी अफसोस जाहिर नहीं किया. उल्टे उस दौर में स्थानीय आदिवासी (रेड इंडियंस) को मारने और उनकी जमीनों पर कब्जा जमाने वाले अधिकारियों एवं सिपाहियों को गोरों की सरकार द्वारा सम्मानित किया जाता था. उनके द्वारा 12 अक्तूबर को कोलंबस दिवस मनाया जाता था.

आदिवासी समुदायों ने औपनिवेशिक यातना और वर्चस्व की इस तारीख का हमेशा विरोध किया. प्रश्न है कि क्या कोलंबस के अमेरिका पहुंचने के पहले वहां कोई सभ्यता नहीं थी? क्या उनकी ज्ञान परंपरा नहीं थी? क्या उनकी जीवनशैली और विश्व दृष्टि नहीं थी? इन प्रश्नों के उत्तर में सभ्यताओं का वर्चस्व छुपा है. विश्व आदिवासी समाज ने सभ्यता के नाम पर हुई बर्बरता का विरोध करते हुए अपनी कुर्बानियां दी हैं. अपनी जीवनशैली और विश्व दृष्टि के आधार पर उसने कथित सभ्य समाज की आलोचना की और अपने इतिहास, परंपरा एवं स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने का संघर्ष जारी रखा.

बीसवीं सदी में संयुक्त राष्ट्र संघ में आदिवासी प्रतिनिधियों एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासियों के मानवाधिकार के हनन का मुद्दा उठाया जाने लगा. वर्ष 1982 में संयुक्त राष्ट्र संघ में इस समुदायों को लेकर मानव अधिकारों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के बारे में पहली बार केंद्रीयता के साथ विचार-विमर्श किया गया. जब कोलंबस के अमेरिका आने की पांच सौवीं बरसी मनाने के विरोध में आवाज उठने लगी, तो आदिवासी मानव अधिकारों का सवाल केंद्रीय प्रश्न की तरह सामने आया. आदिवासी मानव अधिकारों के प्रश्न, उनकी जीवनशैली एवं संस्कृति के सवाल को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली ने 1993 को ‘इंटरनेशनल ईयर फॉर इंडिजेनस पीपल’ घोषित किया. उसके अगले वर्ष (1994) महासभा ने घोषणा की कि अब प्रत्येक वर्ष नौ अगस्त को ‘इंटरनेशनल डे ऑफ द वर्ल्ड्स इंडिजेनस पीपल’ मनाया जायेगा. नौ अगस्त, 1982 को ही संयुक्त राष्ट्र संघ में आदिवासी समुदायों के मानवाधिकार के संबंध में पहली बैठक हुई थी. यह तारीख अब विश्व आदिवासी दिवस के रूप में लोकप्रिय हो गया है.

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, आदिवासी समुदाय विश्व जनसंख्या का पांच प्रतिशत हिस्सा है. पर विश्व की कुल गरीबी का पंद्रह प्रतिशत हिस्सा इसी समुदाय का है. विश्वभर के आदिवासी समुदाय लगभग 7000 भाषाएं बोलते हैं और पांच हजार संस्कृतियों का संकुल बनाते हैं. देखा जाए, तो विश्व की सांस्कृतिक विविधता को सबसे ज्यादा आदिवासी समाज समृद्ध करते हैं. पर दुखद यह है कि गैर-आदिवासी सत्तावादी सभ्यता के रोड रोलर के नीचे ये लगातार कुचले जा रहे हैं. आज कई आदिवासी समुदाय समाप्त होने की कगार पर हैं और उनकी कई भाषाएं विलुप्त होने वाली हैं. पूंजीवादी विकास की आंधी ने उन्हें उनकी मूल जमीन से उखाड़ कर विस्थापन, गरीबी और मानव तस्करी का शिकार बना दिया है.

न केवल उत्तरी अमेरिका बल्कि अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और भारत में भी आदिवासी समुदाय को उसकी गरिमा से वंचित किया गया है. औपनिवेशिक समय में भारत में अंग्रेजों ने 1871 का क्रिमिनल ट्राइब एक्ट बनाकर आदिवासी समुदायों को जन्मजात अपराधी घोषित किया था. औपनिवेशिक पूर्व समय में आदिवासी समुदायों को असुर, दैत्य, राक्षस आदि रूपों में प्रस्तुत किया जाता रहा. भारत में आदिवासी समाज के संरक्षण के लिए संविधान में पांचवीं एवं छठी अनुसूची का प्रावधान किया गया. उनके हित में कठोर कानून बनाये गये. बावजूद इसके, आदिवासी समाज के हितों और उनकी गरिमा का हनन होता रहा है. देश में विकास परियोजनाओं की कीमत सबसे ज्यादा इस समुदाय को चुकानी पड़ी है. आजादी से अब तक, विकास परियोजनाओं से विस्थापित कुल साठ प्रतिशत में से चालीस प्रतिशत आबादी आदिवासी समुदाय की ही है.

आदिवासियों की जिन जमीनों से देश के लिए खनिज आदि का खनन किया जाता है, उन्हीं क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय गरीबी का जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होते हैं. विश्व समाज में आदिवासी समुदाय जिन सांस्कृतिक विविधताओं का वाहक है, दरअसल वे उनके सभ्यतागत मूल्य हैं, जिन्हें अब तक उपेक्षित किया जाता रहा है. उनकी जीवनशैली, ज्ञान परंपरा, इतिहास आदि की उपेक्षा ने अंततः उनकी मानवीय गरिमा का ही हनन किया है. उनके सभ्यतागत मूल्य मौजूदा विश्व समाज के लिए ज्यादा प्रासंगिक हैं. उनका ज्ञान और विश्व दृष्टि मनुष्य और मनुष्येत्तर जीवन संबंधों को ज्यादा बेहतर तरीके से विश्लेषित करती है.

उपनिवेशवाद का सबसे क्रूरतम चरित्र आदिवासी क्षेत्रों में ही देखने को मिला है. विश्व आदिवासी दिवस औपनिवेशिकता की क्रूरतम स्थितियों से सबक लेने की सीख देता है. यह इतिहास और संस्कृति की एकांगी धारा के विपरीत उस उपेक्षित और विस्मृत धारा का स्मरण कराता है, जिसमें मनुष्यता और सभ्यता के उच्च गुण मौजूद हैं. जो बताता है कि मनुष्यता का सूचक भिन्न भाषा, संस्कृति, जीवनशैली, ज्ञान परंपरा और विश्व दृष्टि को स्वीकार करना है. यह आदिवासी समुदायों के लिए गर्व करने का दिन है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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