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नस्लवाद की चिंगारी से जलता फ्रांस

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फ्रांसीसी गणतंत्र के स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के तीनों आदर्शों को लेकर यहां के लोगों का पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. प्रदर्शनों और दंगे-फसाद की शुरुआत अक्सर इन्हीं इलाकों से होती है, इसलिए पुलिस वाले इन इलाकों को अराजकता और अपराध के अड्डों के रूप में देखते हैं.

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फ्रांस में जलसे-जुलूस और प्रदर्शन होना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन जो पिछले सप्ताह हुआ और जिस वजह से हुआ, वह फ्रांस ही नहीं, पूरे यूरोप और पश्चिमी जगत के देशों के लिए चिंता की बात है. पिछले मंगलवार को पेरिस के नोंतेयर उपनगर में एक बस लेन से कार भगा रहे अल्जीरियाई मूल के 17 वर्षीय किशोर नाहेल मर्जीक को एक पुलिस वाले ने गोली मार दी, जिससे उसकी मौत हो गयी. पुलिस ने कहा कि नाहेल ने उनके इशारे पर रुकने के बजाय उन पर कार चढ़ाने की कोशिश की. फ्रांस में 18 साल की उम्र से पहले कार चलाना और बस लेन में कार चलाना, दोनों ही अपराध हैं. संयोग से, एक राहगीर ने इस घटना को रिकॉर्ड किया और उसका वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया.

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पुलिस के झूठ का पर्दाफाश करने वाले वीडियो के वायरल होते ही नोंतेयर और पेरिस में विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, आगजनी और लूटपाट शुरू हो गयी और देखते-देखते उत्तर में लील्ल से लेकर दक्षिण में मार्से तक, नोंत, लियों, तुलूज, नीस और स्ट्रास्बर्ग जैसे तमाम शहरों में फैल गयी. पुलिस स्टेशन ही नहीं, सरकारी दफ्तरों, निवासों, लाइब्रेरी, बसों, और कारों पर हमले होने लगे. दक्षिणी शहर मार्से की 165 साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत में बनी अलकजार लाइब्रेरी पर हमला हुआ, लेकिन पुलिस ने समय पर पहुंच वहां की दस लाख पुस्तकों को बचा लिया. पेरिस के दक्षिणी उपनगर लाइ-ले रोज के महापौर के घर पर हमला हुआ और जान बचा कर भागती उनकी पत्नी और बच्चों पर आतिशी रॉकेट से हमला हुआ. दुकानों में भी जम कर लूटपाट और तोड़फोड़ की गयी. प्रत्यक्षदर्शियों और सामाजिक संस्थाओं का कहना है कि दंगाइयों में एक तिहाई से ज्यादा किशोर थे. पुलिस का कहना है कि तीन हजार से अधिक दंगाइयों को गिरफतार किया गया है. नाहेल को कड़ी सुरक्षा के बीच रविवार को दफना दिया गया है. नाहेल की नानी ने तोड़फोड़ और लूटपाट बंद करने की अपील करते हुए कहा है कि दंगों से नाहेल की स्मृति का सम्मान नहीं होगा.

राष्ट्रपति मैक्रों ने शांति बहाल करने के लिए पुलिस की कार्रवाई को अक्षम्य और समझ से बाहर बताते हुए कहा कि एक युवक की मौत का कोई औचित्य नहीं हो सकता. फिर भी हालात पर काबू पाने के लिए उन्हें जर्मनी की यात्रा छोड़ कर लौटना पड़ा, पर सवाल उठता है कि पुलिस वाले ने नाहेल पर गोली क्यों चलायी? विश्लेषकों का कहना है कि इसका कारण आंतरिक सुरक्षा का वह कानून है, जो 2015 के आतंकवादी हमलों के बाद आतंकवाद और अपराध से निपटने के लिए पुलिस के हाथ मजबूत करने के उद्देश्य से 2017 में लागू किया गया था. यह कानून हथियारों के प्रयोग के नियमों को लचीला बनाता है, ताकि पुलिस उन परिस्थितियों में हथियारों का प्रयोग कर सके, जिनमें उसे अपनी या आम जनता की जान को खतरे की आशंका हो, लेकिन समाजशास्त्रियों और मानवाधिकार संस्थाओं का कहना है कि हथियारों के प्रयोग के नियमों में ढील के बाद, पिछले पांच सालों में मारे गये 25 से ज्यादा ड्राइवरों में से अधिकांश का अरब और अफ्रीकी मूल का होना कोई संयोग नहीं हो सकता.

यह साबित करता है कि फ्रांस की पुलिस नस्ली भेदभाव से काम करती है, जिसे दूर करने के लिए व्यापक सुधारों और प्रशिक्षण की जरूरत है. मुश्किल यह है कि राष्ट्रपति मैक्रों और उनकी प्रधानमंत्री एलिजबथ बोर्न अपनी सुधार नीतियां लागू करने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों पर इतने निर्भर हैं कि रस्मी आलोचना से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. फ्रांस रंग-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र होने का दावा करता है और उस पर गर्व करता है, लेकिन सारे सर्वेक्षण बताते हैं कि गोरों की तुलना में गहरे रंग वालों की तलाशी की संभावना कई गुणा रहती है. दिसंबर 2020 में राष्ट्रपति मैक्रों ने यही बात साफगोई से स्वीकार करने की हिम्मत दिखायी थी, परंतु पुलिस संघों ने इस बात से नाराज होकर यातायात रोकना और लोगों के पहचान पत्र जांचना ही बंद कर दिया था.

फ्रांस इस समय दो बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है. संस्थागत नस्लवाद तथा आदर्शों और वास्तविकता के बीच की खाई. कहने को फ्रांसीसी गणतंत्र का मूलमंत्र है स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा. निजी जीवन को गणतंत्र के दखल से दूर रखना और गणतंत्र को धर्म के दखल से दूर रखना भी फ्रांस का आदर्श है, जिसे राष्ट्रपति मैक्रों अक्सर दोहराते रहते हैं, लेकिन हकीकत एकदम उलट है. इस्लामी कट्टरपंथ के फैलाव से वे इतने परेशान हैं कि अपने इस्लामी नागरिकों को ऐसे फ्रांसीसी इस्लाम में ढालना चाहते हैं, जो पहनावे, खान-पान और मदरसा शिक्षा पर ज्यादा जोर न दे. इसकी एक वजह यह है कि फ्रांस के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार फ्रांस में मुस्लिम आबादी बढ़ कर 10 प्रतिशत हो चुकी है. इनमें से अधिकांश अल्जीरिया जैसे उन उत्तरी अफ्रीकी देशों से हैं, जो फ्रांस के उपनिवेश रहे हैं. अधिकतर बड़े शहरों में रहते हैं, इसलिए वहां इनका अनुपात और भी ज्यादा है. जैसे मार्से की 20 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है, पेरिस की 15 प्रतिशत और मोंपैलिये की 26 प्रतिशत. अरब हों या अफ्रीकी, ज्यादातर अल्पसंख्यक शहरों के उपनगरों में बनी बहुमंजिली इमारतों में रहते हैं, जिनमें जनजीवन मुंबई की चालों जैसा होता है. मेहनत-मजदूरी और छोटे-मोटे काम-धंधों से जुड़े लोगों के अलावा यहां बड़ी संख्या में बेरोजगार रहते हैं.

फ्रांसीसी गणतंत्र के स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के तीनों आदर्शों को लेकर यहां के लोगों का पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. प्रदर्शनों और दंगे-फसाद की शुरुआत अक्सर इन्हीं इलाकों से होती है, इसलिए पुलिस वाले इन इलाकों को अराजकता और अपराध के अड्डों के रूप में देखते हैं. यही लोग नस्ली भेदभाव का भी सबसे अधिक शिकार होते हैं. इसका पहला घिनौना रूप अक्तूबर 1961 देखने को मिला था, जब अल्जीरिया की स्वाधीनता के समर्थन में पेरिस में प्रदर्शन कर रहे 30 हजार अल्जीरियाई लोगों पर पुलिस ने हमला कर दो सौ से अधिक प्रदर्शनकारियों को मार डाला था. इस्लामी आतंकवाद के फैलाव ने इसमें धार्मिक भेदभाव का पहलू भी जोड़ दिया है. नाहेल मर्जीक की मौत में भी नस्ली भेदभाव के साथ-साथ धार्मिक भेदभाव का हाथ रहने की भी पूरी संभावना है. फ्रांसीसी गणतंत्र के ऊंचे आदर्शों के कारण सरकार इन भेदभावों, आर्थिक विषमताओं और मोहभंंग की बात को स्वीकार तक करने को तैयार नहीं हो पाती, दूर करना तो दूर की बात है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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