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जाति की सियासी बिसात पर राजस्थान

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गांधी परिवार यह तो समझता है कि सचिन का युवा होना और स्वच्छ छवि पार्टी के लिये एक पूंजी है, मगर उनकी जाति बोझ बन जाती है. वे गूजर समुदाय से हैं, जिनकी राज्य की आबादी में हिस्सा दो अंकों में भी नहीं पहुंचता. सचिन की सबसे बड़ी भूल अपनी पहचान गूजर समुदाय से जोड़ना थी.

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राजस्थान का अतीत षड्यंत्रों, लड़ाइयों और दिलचस्प प्रेम कथाओं से हुआ भरा है. पुराने समय में जहां लड़ाइयां शौर्य के दम पर लड़ी जाती थीं, आज वहां जाति सबसे बड़ा हथियार बन चुकी है. हालांकि, दरबारी गप्पबाजी का चरित्र पहले जैसा ही है. अशोक गहलोत सरकार की उपलब्धियों से कहीं अधिक चर्चा बंद कमरों में बातचीत और चौराहों पर लगने वाली अटकलों की हो रही है, कि क्या सचिन पायलट कांग्रेस का मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे, और क्या भारतीय जनता पार्टी गहलोत या उनसे उम्र में छोटे उत्तराधिकारी को चुनौती देने के लिए वसुंधरा राजे को मैदान में उतारेगी.

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मगर दोनों ही खेमों में, योग्यता पर जाति भारी पड़ती है. कांग्रेस फिर सुर्खियों में है. पूर्व उपमुख्यमंत्री, 45 वर्षीय सचिन पायलट, पहले अपने लिए और उसके बाद पार्टी के लिए समर्थन जुटाने सड़क पर उतरते रहे हैं. वे अपना मकसद जमीनी कार्यकर्ताओं से संपर्क और वसुंधरा सरकार के समय भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्रवाई की मांग बताते हैं. मगर, उनका असल निशाना गहलोत हैं. पायलट ने अपनी पार्टी और अपने संरक्षकों को यह समझाया है कि वह आलाकमान से केवल यह कह रहे हैं कि वे चुनाव से पहले उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के वादे को पूरा करे. मगर आलाकमान को लगता है कि उम्र सचिन के पक्ष में है, वह थोड़ा और इंतजार कर सकते हैं. उसने पायलट को गहलोत सरकार को अस्थिर करने की उस नाकाम कोशिश के लिये माफ नहीं किया है, जब वे 19 विधायकों को लेकर बाहर चले गये थे. इस कदम के पीछे भारतीय जनता पार्टी का दिमाग बताया जा रहा था. मगर कांग्रेस के भीतर जारी रस्साकशी में जाति असल कारण है.

गहलोत ने 1998, 2008 और 2018 में तीन बार अपना कार्यकाल पूरा कर पहले ही एक रिकॉर्ड तोड़ दिया है. वह 1998 में जब मुख्यमंत्री बने थे तब केवल 47 वर्ष के थे. वे राजस्थान में पिछड़ी जाति (माली) के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने प्रदेश की राजनीति में ऊपरी जाति का दबदबा खत्म कर दिया. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को तब पटखनी दी थी, जब उस पर ताकतवर ठाकुर नेता भैरों सिंह शेखावत का नियंत्रण था. पायलट जाति और योग्यता दोनों के आधार पर सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं. उनके पास डिग्री भी है और वंश का नाम भी. वह पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट के बेटे हैं और विदेश में पढ़े हैं.

कांग्रेस ने उन्हें भारत का सबसे युवा केंद्रीय मंत्री ही नहीं, पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया. मगर अपने पिता से अलग, जो राष्ट्रीय राजनीति के खिलाड़ी थे, सचिन ने जाति और समुदाय की विरोधाभासी राजनीति को चुना. राजेश पायलट को अपनी सीमाओं का अंदाजा था और इसलिए वह राज्य की राजनीति से किनारा कर राष्ट्रीय राजनीति के बड़े नेता बने. मगर सचिन ने राजस्थान को अपनी कर्मभूमि और रणभूमि दोनों बनाया. उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 2018 मेंं लगभग 100 सीटें जीतीं, जिसके बाद वे राजस्थान के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हो गये.

मगर नीति निर्धारकों के बीच स्वीकार्यता की बदौलत गहलोत दौड़ में आगे रहे. कांग्रेस के कई नेताओं को लगता है कि सचिन राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं और वह खुद को प्रदेश में बांधकर अपनी योग्यता बर्बाद कर रहे हैं. उनका अनुमान है कि गांधी परिवार की युवा पीढ़ी के साथ उनकी घनिष्ठता है, जिससे पार्टी में उनका कद तेजी से बढ़ सकता है. हालांकि, गांधी परिवार यह तो समझता है कि सचिन का युवा होना और स्वच्छ छवि पार्टी के लिये एक पूंजी है, मगर उनकी जाति बोझ बन जाती है. वे गूजर समुदाय से हैं, जिनकी राज्य की आबादी में हिस्सा दो अंकों में भी नहीं पहुंचता. सचिन की सबसे बड़ी भूल अपनी पहचान गूजर समुदाय से जोड़ना थी, जब वे गूजरों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज दिलाने की मांग को लेकर जेल गये. ऐतिहासिक तौर पर गूजर, जाट और ठाकुर एक-दूसरे को पसंद नहीं करते. ठाकुरों ने गूजरों की कीमत पर फायदा उठाया, जबकि जाट अभी भी सत्ता में हिस्सेदारी के लिये लड़ रहे हैं. यह बस संयोग भर नहीं है कि राजस्थान में आज तक कोई गूजर या जाट मुख्यमंत्री नहीं हुआ.

आजादी के बाद से प्रदेश में बने 28 अंतरिम या औपचारिक मुख्यमंत्रियों में से, 24 कांग्रेस से थे. भारतीय जनता पार्टी से केवल दो बने. यह दिलचस्प है कि पहला अंतरिम मुख्यमंत्री एक ब्राह्मण था. उसके बाद कांग्रेस ने तीन ब्राह्मणों को मुख्यमंत्री बनाया- जय नारायण व्यास, टीका राम पालीवाल और हरि देव जोशी- जिनका राज, कुल मिलाकर, एक दशक से कम समय तक रहा. यह महत्वपूर्ण है कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने आपस में लड़ती उच्च जातियों के झगड़े को शांत करने के लिये कम महत्वपूर्ण बनिया समुदाय के नेताओं को प्रदेश चलाने दिया. जैन समुदाय के मोहन लाल सुखाड़िया चार कार्यकालों में 17 वर्षों से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे. वर्ष 2018 में, पिछड़े समुदाय से आने की वजह से गहलोत को गद्दी मिली. वहीं भारतीय जनता पार्टी ठाकुरों या राजघरानों पर निर्भर रही. केवल वसुंधरा राजे, जो कि अपने पैतृक राज्य मध्य प्रदेश से राजस्थान आयीं, वह सर्व समाज की नेता की छवि गढ़ सकीं क्योंकि उनके पारिवारिक संबंध गूजरों और जाटों, दोनों से रहे हैं.

कांग्रेस ने जाति संतुलन रख सुरक्षित रणनीति अपनायी, और किसी एक प्रभावशाली जाति को हावी नहीं होने दिया. सचिन को मुख्यमंत्री बनाने में दिखती हिचकिचाहट इस वास्तविकता से उपजी है कि अन्य समुदायों के भीतर गूजरों के बहुत सारे दुश्मन हैं. पार्टी गहलोत को एक स्थिरता और शांति बनाये रखने वाला नेता मानती है, जो फिर से चुनाव जिता सकते हैं. हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि उनकी जगह सचिन जैसे युवा नेता को लाया जा सकता है, मगर चुनाव जीत लेने के बाद. उधर भारतीय जनता पार्टी में उपेक्षा से रूठीं वसुंधरा राजे के बाद, मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदारों- भूपेंद्र यादव (अहीर), अश्विन वैष्णव (ब्राह्मण और मारवाड़ी), गजेंद्र सिंह शेखावत (ठाकुर) और ओम बिरला (बनिया)- की छवि अपनी जातियों के नेताओं की अधिक है. ये सभी अपने-अपने समुदायों के सम्मेलनों में शामिल होते रहे हैं. राजस्थान एक सामाजिक बदलाव से गुजर रहा है, जिसमें ऊंची जाति और अभिजात्य गुट सत्ता की लड़ाई से बाहर हो चुका है. वहां बस पिछड़ा बनाम पिछड़ा की लड़ाई है. गहलोत और सचिन दोनों ही भारतीय समाज के शतरंज के नये खेल का हिस्सा बन चुके हैं. प्यादा कौन है और बादशाह कौन, इसका फैसला प्रदेश की जातियों के क्षत्रप करेंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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