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धुएं में लिपटा न्यूयॉर्क दुनिया के लिए एक बड़ा सबक

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जब भी पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों की बात आती है तो पश्चिम के देश इस पर ग्लोबल साउथ के साथ बात करना तक पसंद नहीं करते क्योंकि उनके अपने देशों में पर्यावरण असंतुलन का कोई बड़ा असर नहीं दिखता है. लेकिन अब इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि न्यूयॉर्क जैसा शहर जब धुंध और नारंगी कोहरे में डूब जाए...

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कुछ दिन पहले बदलते रंगों में लिपटे न्यूयॉर्क की छवियां अब पूरी दुनिया में फैल चुकी हैं. पहले सफेद और फिर सलेटी रंगों से होते हुए नारंगी रंग में लिपटा न्यूयॉर्क हमारे समय की वह तस्वीर है जिसे हम शायद देखना नहीं चाहते हैं. जिन्होंने न्यूयॉर्क का नीला आसमान देखा है उन्हें पहली नजर में शायद यह खूबसूरत और किसी कलाकार की कल्पना लगी होगी. लेकिन न तो यह कल्पना ही थी और न ही कोई खूबसूरती. यह हमारे समय की बदलती तस्वीर है जहां हम अब ऐसे समय में हैं जिसमें कोई भी एक-दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है.

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नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन की शुरुआत के साथ जब दुनिया कथित रूप से एक-दूसरे से जुड़ गयी थी, तो इसके आलोचकों ने हमें आगाह किया था कि ग्लोबलाइजेशन असंतुलित है क्योंकि इसका सारा लाभ पश्चिम के देशों को मिल रहा है और ग्लोबल साउथ, यानी कि विकासशील और पिछड़े देश इस ग्लोबलाइजेशन के फायदों से न केवल वंचित हैं बल्कि हाशिये पर फेंक दिये गये हैं. पिछले तीसेक सालों में विकास की जो आंधी पूरी दुनिया में चली उसने भी ग्लोबल साउथ को अधिक प्रभावित किया है. बांग्लादेश में चक्रवात, भारत के बड़े महानगरों में लगातार बारिश, अफ्रीका के सूडान और साहेल क्षेत्रों में सूखा और ऐसी तमाम समस्याएं सभी के सामने आती रही हैं. ऐसे में यदा-कदा अमेरिका का कटरीना तूफान और ऐसी ही कुछ और प्राकृतिक आपदाओं ने दुनिया का ध्यान पर्यावरण की चुनौतियों की तरफ खींचा.

लेकिन, पर्यावरण की चुनौतियों के साथ एक दिक्कत हमेशा से यह रही है कि इसके प्रभाव रोमांचक नहीं होते. दिल्ली में पिछले कुछ सालों में प्रदूषण के स्तर पर कम ही बहस होती है. नवंबर और दिसंबर के महीनों में मुंह पर कपड़े बांधे, घरों में एयर फिल्टर लगाते और मोबाइल पर एक्यू का स्तर मापते हुए हम कभी नहीं सोचते कि इसके पीछे मूल कारण दिल्ली में बढ़ते वाहनों की संख्या, लगातार बढ़ता अनियंत्रित कंस्ट्रक्शन और उद्योग-धंधे हैं. दिल्ली के प्रदूषण के लिए पंजाब के किसानों के पराली जलाने वाले हार्वर्ड के उस शोध की कमियों को कई लोगों ने उजागर किया है जो हमें बताता है कि पराली जलाने के कारण भी असल में पूंजीवादी खेती के तौर-तरीकों से जुड़े हैं.

असल में जब भी पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों की बात आती है तो पश्चिम के देश इस पर ग्लोबल साउथ के साथ बात करना तक पसंद नहीं करते क्योंकि उनके अपने देशों में पर्यावरण असंतुलन का कोई बड़ा असर नहीं दिखता है. लेकिन अब इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि न्यूयॉर्क जैसा शहर जब धुंध और नारंगी कोहरे में डूब जाए, तो क्या किया जाए. न्यूयॉर्क की इस नयी छवि के बारे में जानकारी जुटाने वाले अब जान चुके हैं कि कनाडा के जंगलों में लगी आग से उठे धुएं और धुंध ने न्यूयॉर्क को घेरा था.

असल में न्यूयार्क का जो नजारा पूरी दुनिया ने देखा है वह अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में आम है. कैलिफोर्निया के कई इलाकों में हर गर्मी में जंगलों में लगने वाली आग अब आम खबर बन चुकी है, लेकिन यह आग क्या खुद लगती है या लगायी जाती है इस पर लोगों ने चुप्पी साध रखी है. पिछले साल प्रतिष्ठित गार्डियन अखबार में छपी खबर हमें बताती है कि कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी आग की दो सबसे बड़ी घटनाओं के लिए अमेरिकी कंपनी पैसिफिक गैस एंड इलेक्ट्रिक को दोषी पाया गया है जिसकी पावर लाइनों की गड़बड़ी के कारण ये आग लगी थी.

हालांकि, इस समय कनाडा में लगी जिस आग के कारण न्यूयार्क का आसमान नारंगी हो गया है उसके पीछे बिजली गिरने को कारण बताया गया है. आग लगने से किसे फायदा होता और किसे नुकसान, यह हम भारतीय अब खूब समझते हैं. जंगलों में लगी आग के बाद जब पेड़-पौधे जल जाते हैं और जमीन खाली हो जाती है तो उस पर बड़े बिल्डर कब्जा कर लेते हैं और विकास के नाम पर अगले दसेक सालों में इन इलाकों में नये-नये टाउनशिप, मॉल और इमारतें खड़ी हो जाती हैं. लेकिन हम सब तब तक आग लगने की घटना को भूल जाते हैं.

अगर इसका भारतीय उदाहरण दिया जाए, तो सबसे मुफीद है मुंबई, जहां समंदर की जगह को घेर-घेर कर इमारतें बनायी गयी हैं. मुंबई मे आने वाली सालाना बाढ़ असल में बाढ़ नहीं है. वह पानी की अपनी जगह है जिस पर लोगों ने घर बना लिये हैं. पर्यावरण का मसला पेचीदा है. इस पर ध्यान लोगों का तभी जाता है जब कोई बड़ी आपदा होती है या फिर मुंबई की बाढ़ या कैटरीना के तूफान के बाद की वीभत्स तस्वीरें हमारे सामने आती हैं. हाल में न्यूयार्क की तस्वीर भी एक ऐसा मौका है जब पूरी दुनिया को इस पर सोचना चाहिए. अब तक दिल्ली में खांसते लोग दुनिया के अखबारों में दिखते थे. उम्मीद है कि न्यूयार्क का नारंगी आसमान पश्चिम के विकसित देशों को यह संदेश देगा कि हम एंथ्रोपोसीन के जिस युग में रह रहे हैं उसमें न्यूयार्क और दिल्ली बराबर हो चुके हैं. पर्यावरण सही मायनों में ग्लोबल है और उसको होने वाले नुकसान से कोई अछूता नहीं रह पायेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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