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गो फर्स्ट मामला उड्डयन क्षेत्र के लिए सबक

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भारत सरकार ने सेना के लिए देश में ही जहाजों के निर्माण को व्यापक तौर पर बढ़ाना शुरू किया है. इसके लिए विदेशी कंपनियों को भी भारत आमंत्रित किया जा रहा है.

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सुधीश शर्मा

उड्डयन विशेषज्ञ

sudhish.nice@gmail.com

बहुत तेजी से बढ़ते भारतीय उड्डयन क्षेत्र के लिए गो फर्स्ट एयरलाइन का बंद होना एक बड़ा झटका है. आम तौर से उड़ान कंपनियों के बंद होने के जो मामले होते हैं, उनसे यह प्रकरण अलग है. इसके लिए कंपनी के संचालन और प्रबंधन को दोष नहीं दिया जाना चाहिए. इस कंपनी के पास 60 के आसपास जहाज हैं, जिनमें से 30 जहाज उड़ पाने की स्थिति में नहीं हैं. उसकी वजह यह है कि इन जहाजों के इंजन खराब हैं.

हवाई जहाजों की खरीद और रखरखाव के जो समझौते होते हैं, उसके तहत इंजन की आपूर्ति का प्रावधान भी होता है. इंजन की आपूर्ति के लिए गो फर्स्ट का करार अमेरिकी कंपनी प्रैट एंड व्हिटनी से है. यह अमेरिकी कंपनी पिछले तीन साल से इंजन नहीं दे रही है. पहले गो फर्स्ट के तीन जहाज खराब हुए, फिर सात जहाज उड़ाने के लायक नहीं रहे और 31 मार्च तक ऐसे जहाजों की संख्या 30 हो गयी.

आधी क्षमता के साथ उड़ने के कारण इस एयरलाइन को अपने प्रमुख मार्गों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. उड़ान कंपनियों का आर्थिक मामला अन्य उद्योगों से हटकर होता है. उनका मुख्य खर्च ईंधन की खरीद तथा जहाजों की लीज मनी चुकाने पर होता है. तो, हुआ यह कि गो फर्स्ट के 30 जहाज कमा रहे थे, पर उसे 60 जहाजों की लीज मनी और हैंगर आदि का खर्च उठाना पड़ रहा था.

इस कंपनी ने अप्रैल तक तो किसी तरह खींचा, लेकिन आगे चला पाना संभव नहीं रहा. बहुत लंबे समय से प्रैट एंड व्हिटनी इसे टरका रही थी कि इंजनों की आपूर्ति जल्दी ही होगी. आखिरकार, गो फर्स्ट को सिंगापुर में अमेरिकी कंपनी के खिलाफ मामला दर्ज करना पड़ा, जिसमें गो फर्स्ट को जीत भी मिली. उस फैसले में अमेरिकी कंपनी को 30 अप्रैल तक कम से कम 10 इंजन मुहैया कराने का आदेश दिया गया. उसमें उसके बाद हर महीने 10 इंजन देने के लिए भी कहा गया था.

जो 30 जहाज उड़ रहे थे, उनमें से भी कुछ जहाज इस माह जमीन पर आ जाने थे. उस समय तो प्रैट एंड व्हिटनी ने तो कह दिया कि इंजन उपलब्ध कराया जायेगा, लेकिन वास्तव में एक भी इंजन गो फर्स्ट को नहीं मिला. उल्लेखनीय है कि इस कंपनी के सामने कोई वित्तीय संकट नहीं है. वाडिया ग्रुप की इस कंपनी ने पिछले तीन साल के भीतर उड़ान सेवा में तीन हजार करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया है. एयर इंडिया प्रकरण में भारत सरकार द्वारा बनाये गये नियमों के तहत भी इसे डेढ़ हजार करोड़ रुपये के आसपास मिले हैं.

इसके बावजूद तीन साल में कम जहाज उड़ने और कोविड महामारी से पैदा स्थिति के कारण कंपनी का घाटा लगभग 11 हजार करोड़ रुपये पहुंच गया है. अभी तक तो कंपनी लीज मनी और अन्य खर्च उठा रही थी, लेकिन कंपनी ने सोचा है कि अभी यह एक स्वस्थ कंपनी है, तो उसे इनसॉल्वेंसी प्रक्रिया में जाना चाहिए ताकि लीज मनी के देनदार और अन्य कर्जदाता अधिक दबाव नहीं बना पायेंगे. इस मामले में सरकार को ध्यान देना चाहिए. आज की दुनिया में अर्थव्यवस्था को कमजोर करने की बाहरी कोशिशें भी होती हैं. यह एक गंभीर मसला इसलिए भी है कि कई एयरलाइन कंपनियों में इंजन की आपूर्ति प्रैट एंड व्हिटनी ही करती है.

इंडिगो एयरलाइन के लिए भी इंजन वहीं से आता है और उसका एक भी जहाज जमीन पर नहीं है. लेकिन ऐसी किसी समस्या से बचने के लिए इंडिगो प्रबंधन ने समझदारी दिखाते हुए एक अन्य अमेरिकी कंपनी से इंजन के लिए करार कर लिया है. हमारे यहां लगभग दर्जन कंपनियां हैं, जो उड़ान सेवाएं देती हैं. ऐसे में अगर एक कंपनी बंद हो जाती है, जिसकी बाजार में हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से अधिक हो, तो यह उड्डयन क्षेत्र के लिए चिंताजनक है.

भारत का उड्डयन क्षेत्र कमोबेश 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, जो बेहद उत्साहजनक है. भारत सरकार ने उड़ान योजना के तहत छोटे-बड़े सौ हवाई अड्डे बनाये हैं. इससे क्षेत्रीय जुड़ाव में बड़ी बढ़ोतरी हुई है. बड़ी संख्या में लोग जहाज पर चढ़ रहे हैं. अभी तो यह क्षेत्र विकसित होना शुरू ही हुआ है और आगे इसमें बड़ी संभावनाएं हैं.

ऐसे में अगर एक भी उड़ान कंपनी बैठ जाती है, तो यह न केवल इस क्षेत्र के लिए, बल्कि लोगों के भी नुकसानदेह है. देश में जो भी मुख्य मार्ग हैं, उनका किराया 10-12 हजार रुपया बढ़ गया है. गो फर्स्ट के लगभग दर्जन भर विदेशी गंतव्य भी हैं. उन मार्गों का किराया भी बढ़ रहा है. इस संकट का सबसे अहम सबक यह है कि हमारी उड़ान कंपनियों को इंजन और कल-पुर्जों के लिए किसी एक कंपनी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.

कारोबार का यह स्थापित सूत्र है कि आप किसी भी आवश्यकता के लिए एक स्रोत पर सौ प्रतिशत निर्भर नहीं रह सकते हैं. जहाज और इंजन आदि की जो हम खरीद करते हैं, वह पैसा देश के बाहर जाता है. भारत सरकार ने सेना के लिए देश में ही जहाजों के निर्माण को व्यापक तौर पर बढ़ाना शुरू किया है. इसके लिए विदेशी कंपनियों को भी भारत आमंत्रित किया जा रहा है.

अब हमें यात्री जहाजों के इंजन बनाने की दिशा में भी आगे बढ़ना चाहिए. आज के समय में ऐसा करना भारत के लिए बड़ी बात नहीं है. ऐसा होने पर यह सस्ते भी होंगे और हमारी भविष्य की जरूरतें भी आसानी से पूरी हो जायेंगी. दुनिया के माहौल को देखते हुए इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कभी बाहरी कंपनियां देश पर दबाव डालने के लिए अपने एकाधिकार का इस्तेमाल करें.

यदि सरकार और गो फर्स्ट के देनदार प्रयास करें, तो तात्कालिक तौर पर बाहर से इंजनों की व्यवस्था कर जहाजों को फिर उड़ाने लायक बना सकते हैं. ऐसा करने में पैसे की उपलब्धता की कोई समस्या नहीं दिखती है. गो फर्स्ट की ओर से पिछले कुछ समय में जो कोशिशें हुई हैं, उनसे यही लगता है कि कंपनी अपनी सेवाओं को बंद नहीं करना चाहती है. उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि कंपनी के कर्ज डूबे नहीं हैं. यह बैंकों के लिए बड़े राहत की बात है.

यह भी उल्लेखनीय है कि अभी तक कंपनी से किसी भी कर्मचारी को निकाला नहीं गया है. आशा है कि उड्डयन क्षेत्र इस प्रकरण से सबक लेते हुए आगे बढ़ेगा. सभी उड़ान कंपनियों को अपने जहाजों की स्थिति का लेखा-जोखा करना चाहिए. इससे उड़ान सुरक्षा भी बेहतर होगी और जहाज की संभावित आवश्यकताओं का आकलन भी मिल जायेगा. इस आधार पर जरूरी इंजन और कल-पुर्जों के लिए समय रहते व्यवस्था करने में सुविधा होगी. सरकार को उड़ान क्षेत्र पर और अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि गो फर्स्ट जैसी स्थिति फिर न बने.

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