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प्रसिद्धि व धन के पीछे भागती युवा पीढ़ी

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लोकप्रियता के पीछे भागती युवा पीढ़ी इस वास्तविकता से परिचित नहीं हैं कि छद्म प्रसिद्धि अल्प आयु लेकर जन्म लेती है और अपने पीछे छोड़ जाती है सामाजिक विलगाव और कुंठाएं.

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हाल ही में दिल्ली मेट्रो में अत्यंत छोटे वस्त्र पहने एक लड़की का वीडियो वायरल होते ही सोशल मीडिया से लेकर मीडिया जगत के सभी मोर्चों पर बहस छिड़ गयी है. जैसा कि हमेशा से होता आया है, कट्टर नारीवाद समर्थक इसे महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला ठहरा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जिसे तथाकथित रूप से रूढ़िवादी समझा जाता है, वह सार्वजनिक स्थलों पर इस तरह के कपड़ों को पहनने के पक्ष में नहीं है. नारीवाद, यौन मुक्ति, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, ये तमाम अवधारणाएं आपस में कुछ इस तरह उलझी हुई हैं कि इनको अलग-थलग करके देखना और समझना बहुत मुश्किल काम है.

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दिल्ली मेट्रो की लड़की की वेशभूषा अश्लील है? यदि अश्लील है तो क्या उसके विरुद्ध वैधानिक कार्रवाई करने का कोई प्रावधान है? आईपीसी की धारा 292 और आईटी एक्ट 67 में उन सामग्रियों को अश्लील बताया गया है जो कामुक हैं अथवा कामुकता उत्पन्न करती हैं, या फिर जिन्हें देखने, पढ़ने और सुनने से कामुकता उत्पन्न होती है. बावजूद इसके, कानून में यह स्पष्ट नहीं है कि कामुक और कामुकता किसे माना जाए. कानून के दायरे में अश्लीलता का प्रश्न स्वयं में ही उलझा हुआ सा प्रतीत होता है. परंतु क्या यह आवश्यक नहीं कि इस संबंध में गंभीर रूप से चर्चा हो. क्या यह मुद्दा सिर्फ इसी एक लड़की से संबंधित है या फिर समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो छोटे एवं भड़काऊ कपड़ों को महिला सशक्तिकरण से जोड़कर देखता है? अपने शरीर पर स्वायत्तता का दावा करने वाला यह वर्ग किसी भी प्रकार के वस्त्र प्रतिबंध को स्त्री सशक्तिकरण के विरुद्ध समझता है. अब यह प्रश्न उठता है कि छोटे या अंग प्रदर्शित करने वाले परिधानों का क्या वाकई सशक्तिकरण और लैंगिक समानता से लेना-देना है, या यह सिर्फ एक फितूर मात्र है. देह प्रदर्शन से लैंगिक समानता पाना एक खोखला प्रयास है.

वास्तविकता तो यह है कि वे लोग जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था को लैंगिक समानता में बाधा मानते हैं, वे इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए वह सब करने को तत्पर दिखाई देते हैं जिससे उनका पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति विद्रोह और क्षोभ प्रदर्शित हो. यही कारण है कि चुस्त और अंग प्रदर्शित करने वाले वस्त्रों को सशक्तिकरण से जोड़कर देखा जाता है. परंतु बात मात्र इतनी सी नहीं है. एक जटिल सामाजिक और विकासवादी समाज में एक स्त्री जब देह प्रदर्शन का चयन करती है, तो उसे हल्के में लेने की भूल नहीं करनी चाहिए. वह तो वास्तव में एक चतुर खिलाड़ी की भूमिका निभा रही होती है. वह अर्थशास्त्र के इस नियम को भलीभांति जानती है कि प्रसिद्धि अपने साथ धन भी लाती है. प्रसिद्धि पाने का सबसे सहज रास्ता कुछ ऐसा करना है, जो समाज और सांस्कृतिक मूल्यों के खाके में सही न बैठता हो. क्या दिल्ली मेट्रो में छोटे कपड़े पहनने वाली लड़की इस तथ्य से परिचित नहीं थी कि उसके परिधान न केवल सभी का ध्यान आकर्षित करेंगे, अपितु चंद दिनों में ही वह देशभर में चर्चा का विषय बन जायेगी? यकीनन वह इस तथ्य से भली-भांति परिचित थी. सहजता से उपलब्ध यह प्रसिद्धि भविष्य में अनेक लड़कियों को इस तरह के देह प्रदर्शन के लिए उकसायेगी.

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मेलबर्न और न्यू साउथ वेल्स के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं ने आय असमानता, स्टेटस की आकांक्षा तथा महिलाओं के यौनकरण (सेक्सुअलाइजेशन) के मध्य संबंधों पर शोध किया. जिसमें 38 देशों के तीन सौ से अधिक प्रतिभागियों ने ऑनलाइन एक काल्पनिक समाज में भाग लिया. जब उनसे अपने सोशल स्टेटस के चुनाव के लिए कहा गया, तो महिला प्रतिभागियों ने देह प्रदर्शित करने वाली पोशाक का चयन किया. उनका मानना था कि इससे उनका सोशल स्टेटस बेहतर होगा. जनरल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित शोध के अनुसार, आय असमानता, सोशल स्टेटस के सभी स्तरों पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ाती है. इस प्रतिस्पर्धा में सही या गलत का विश्लेषण सामाजिक मानकों के अनुरूप न होकर आर्थिक-सामाजिक स्तर पर बेहतरी के आधार पर किया जाता है. प्रसिद्ध लेखक व मनोविज्ञानी मिच प्रिंस्टन के विश्लेषण के अनुसार ‘लोकप्रियता को समझना और उसका जुनूनी हद तक पीछा करना समाज के लिए गंभीर चुनौती बनकर उभरी है. विशेषकर सामाजिक स्वीकृति के विरुद्ध असामान्य नियमों या प्रवृत्तियों को स्थापित करने की चेष्टा तथा लोकप्रिय होने के लिए रणनीति बनाकर प्रयास करने की मानसिकता, अंततोगत्वा तनाव और मानसिक अवसाद की ओर ले जाती है’.

लोकप्रियता के लिए नित्य नये प्रपंचों को अपनाना युवा पीढ़ी के जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है और इस मानसिकता से लड़ना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है. क्योंकि सोशल मीडिया की दुनिया में स्वयं को स्थापित करने का इससे सहज और सरल रास्ता कोई और नहीं है. परंतु लोकप्रियता के पीछे भागती युवा पीढ़ी इस वास्तविकता से परिचित नहीं हैं कि छद्म प्रसिद्धि अल्प आयु लेकर जन्म लेती है और अपने पीछे छोड़ जाती है सामाजिक विलगाव और कुंठाएं.

( ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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