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व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के जाल में विपक्ष

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बीते नौ साल में गिरफ्तार नेताओं में 95 प्रतिशत से अधिक विपक्ष से हैं. इससे विपक्ष भले चिंतित हो, लेकिन अभी भी उसके नेता अपने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर सड़क पर उतरने के लिए तैयार नहीं हैं.

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राजनीति में एकता मतों और विचारों की तार्किकता से निर्धारित होती है. ऐसी एकजुटता अक्सर इस सूत्र से पैदा होती है कि ‘मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त है.’ लेकिन भारतीय विपक्ष के व्यवहार में यह नहीं होता. विभिन्न क्षेत्रों और विचारों के विपक्षी नेताओं को बीते आठ सालों में केंद्रीय जांच एजेंसियों ने घेरा है और गिरफ्तार किया है, पर उनकी मोर्चाबंदी के कोई संकेत नहीं हैं.

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कुछ दिन पहले सीबीआइ ने आप के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया को दिल्ली सरकार के आबकारी नीति के घोटाले में कथित रूप से शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया, तो किसी भी बड़ी विपक्षी पार्टी या नेता ने औपचारिक बयान देने से ज्यादा कुछ नहीं किया. कुछ ने तो गिरफ्तारी की प्रशंसा भी की. गैर-भाजपा विपक्ष की ओर से तब भी सामूहिक निंदा की आवाज नहीं उठी, जब भयाक्रांत करने वाली इडी ने तृणमूल कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति, शिव सेना आदि दलों के नेताओं की घेराबंदी की.

विडंबना है कि विपक्षी दलों की सरकारें लगभग आधे राज्यों में हैं और उनके दो सौ से अधिक सांसद हैं. विभाजित विपक्ष से उत्साहित होकर एजेंसियों ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है और वे दागी नेताओं के अतीत और वर्तमान को खंगाल रही हैं. इससे वे चुनावी बोझ बन जायेंगे और विपक्ष कमजोर होगा.

शायद ही कोई ऐसा दिन होगा, जब एजेंसियां वैसे कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के कार्यालयों पर दस्तक न देती हों, जो दूर-दूर तक ऐसे व्यक्ति से संबंधित हों, जो कहीं भी भाजपा को चुनौती देते हों. मतदाताओं के लिए यह सामान्य मामला ही है. हाल में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के अभिनंदन समारोह में आधा दर्जन दलों के नेता शामिल हुए थे, पर वहां भी सिसोदिया को सहानुभूति नहीं मिली. इससे पहले राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी कई बड़े विपक्षी नेताओं ने अनदेखा किया था. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते नौ साल में गिरफ्तार नेताओं में 95 प्रतिशत से अधिक विपक्ष से हैं.

इससे विपक्ष भले चिंतित हो, लेकिन अभी भी उसके नेता अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर सड़क पर उतरने के लिए तैयार नहीं हैं. वे एक-दूसरे को तबाह करने के लिए विभाजित हैं. इसके उलट, आपातकाल में सभी पार्टियों ने एकजुट होकर ताकतवर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का सामना किया था. जयप्रकाश नारायण ने उन्हें एकजुट किया था.

सीटों के बंटवारे के बाद एक-दूसरे के जानी दुश्मन जनसंघ और सीपीएम ने चुनावी गठबंधन बनाया था. उनके साथ आने से उत्तर भारत में कांग्रेस केवल एक सीट जीत सकी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस-विरोधी ताकतों ने उच्च नैतिकता के साथ लड़ाई लड़ी थी. उनके नेता बेदाग थे. उन्हें जनता का भरोसा हासिल था. लेकिन जब राजीव गांधी के बाद कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई, तो केवल उसी में फूट नहीं पड़ी, बल्कि कई क्षेत्रीय दल भी बिखर गये.

गठबंधन युग का प्रारंभ नब्बे के दशक में हुआ. जाति एवं क्षेत्रीय आधार पर बनीं विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां कई राज्यों में सत्ता में आयीं. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह की सरकारों में उनका वर्चस्व था. राव के दौर में पहला शेयर बाजार घोटाला हुआ, तब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे. बाद में उनके समय में कई घोटाले सामने आये. नब्बे से 2020 तक के तीन दशकों में अनेक क्षेत्रीय दल राज्यों में सत्ता में आये.

उस दौर में उनके मंत्रियों और कार्यकर्ताओं ने बहुत भ्रष्टाचार किया, जो बदला लेने पर उतारू एजेंसियों के लिए काफी है. जो तौर-तरीका इंदिरा गांधी ने बनाया था, मोदी उसमें निपुण हैं. उन्होंने खेल और शासन के नियम बदल दिये हैं. भ्रष्टाचार विरोध और सुशासन के मुद्दे पर लगातार दो चुनाव जीतकर उन्होंने विपक्ष को भागने पर मजबूर कर दिया है.

विपक्ष का आपसी अविश्वास उसकी समस्या है. मोदी जानते हैं कि नैतिकता एकजुट करती है और अनैतिकता विभाजित करती है. उनकी टीम ने बड़ी मेहनत से सभी पार्टियों और संगठनों का ब्यौरा तैयार किया है. राजनीति बिना धन के नहीं हो सकती, इसलिए मोदी ने विपक्ष के पैसे का रास्ता ही तबाह कर दिया है. उनकी रणनीति है कि एक मुद्दे पर विपक्ष को लामबंद न होने दिया जाए.

भले ही ममता के एक दर्जन लोग जेल में हों या उनपर मुकदमा चले, वे लेफ्ट या कांग्रेस से समर्थन नहीं मांगेंगी. तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव कांग्रेस से सौदा नहीं करना चाहते, भले उनकी बेटी के खिलाफ जांच हो रही हो. मोदी से कहीं अधिक केजरीवाल और राहुल एक-दूसरे को नापसंद करते हैं. यही हाल अखिलेश और मायावती का है.

भूपेश बघेल और अशोक गहलोत पर एजेंसियां दस्तक दे रही हों, पर कांग्रेस नेतृत्व अन्य विपक्षी दलों से संपर्क करने से घबराता है. बीते कुछ हफ्ते में बघेल के निजी स्टाफ और कुछ कांग्रेसी विधायकों पर छापे पड़े हैं. फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को इडी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं तथा मुश्किल सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं.

केरल के मुख्यमंत्री विजयन की नींद उड़ी हुई है क्योंकि इडी ने उनके कार्यालय से संबद्ध एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी को गिरफ्तार कर लिया है. लालू प्रसाद का परिवार रोज किसी न किसी एजेंसी के दफ्तर का चक्कर लगाता है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के ऊपर तलवार लटक रही है. सोरेन और लालू प्रसाद को कहीं से भी भरोसेमंद समर्थन नहीं मिल सका है. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी विपक्ष को लामबंद करने में नाकाम रही है क्योंकि उसके दो पूर्व मंत्रियों पर राज्य और केंद्र के स्तर पर जांच चल रही है तथा वे जेल जाने को लेकर डरे हुए हैं.

विपक्ष के मुख्यमंत्रियों के एक-दूसरे से अलग-थलग रहने की वजह यह है कि वे इडी और सीबीआइ के छापों की आशंका को लेकर भयभीत हैं. यह उनका दुर्भाग्य ही है कि मोदी बेदाग हैं. मोदी पर राफेल लड़ाकू जहाजों की खरीद और भाई-भतीजावाद को लेकर जो आरोप लगे थे, उन्हें साबित कर पाने में विपक्ष असफल रहा है. साथ ही, सभी मामलों में अदालतों ने मोदी सरकार के पक्ष को ही जायज ठहराया है.

साल 2024 की वास्तविकता यह है कि राजनीतिक लड़ाई में भरोसा खो चुका विभाजित विपक्ष ताकतवर मोदी को मामूली नुकसान पहुंचाने की स्थिति में भी नहीं है. बदले की राजनीति करने के आरोप और नारेबाजी नाकाम रही. एजेंसियों ने कई अवैध कार्यों के लिए भी वैधता हासिल कर ली है. मौजूदा विभाजित विपक्ष देश को नहीं चाहिए. उनकी वजह से आज देश में सत्ताधारी पार्टी के विरुद्ध कोई भरोसेमंद वैकल्पिक आवाज नहीं बची है.

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