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चिंताजनक होते पंजाब के हालात

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पंजाब में नशीले पदार्थों का कारोबार बढ़ा और उसी के साथ वहां गिरोह बनने लगे, उस पर भी निगरानी होनी चाहिए थी कि कैसे इन सबका संबंध आतंकवाद के साथ बन रहा है. यह बात केवल पंजाब पर ही लागू नहीं होती. दुनियाभर में नशे के कारोबार, हथियारों की तस्करी जैसी गतिविधियों का नेटवर्क आतंक से जुड़ा होता है.

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पंजाब में जो हालात आज हम देख रहे हैं और जो हालिया घटनाएं हुई हैं, उनकी पृष्ठभूमि कई वर्षों से तैयार हो रही थी. इस तरह की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन उन्हें काबू में लाने के लिए कोशिशें नहीं की गयीं. एक बार फिर भारत के खिलाफ दुष्प्रचार चल रहा है, खालिस्तान की मांग फिर उठायी जा रही है, इससे संबंधित विचारधारा (चाहे वह कट्टर हो या नरम हो) का प्रचार-प्रसार हो रहा है. इसका प्रतिकार कैसे हो, इसे कैसे रोका जाए, इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है. कई साल पहले से स्थिति बिगड़नी शुरू हुई थी, जब भिंडरावाले के पोस्टर गुरुद्वारों में लगाये जाने लगे थे. दूसरी बात यह है कि विदेशों में खालिस्तान के आंदोलन को फिर से हवा दी जा रही थी.

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वह एक अहम कारक था. हमें तभी सतर्क हो जाना चाहिए था. हमें याद रखना चाहिए कि सत्तर और अस्सी के दशक में खालिस्तान का मामला विदेश, मुख्य रूप से इंग्लैंड, से शुरू हुआ था. बाद में उसका केंद्र कनाडा चला गया, लेकिन आज इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी, इटली आदि अनेक देशों में यह प्रोपेगैंडा चल रहा है. हमें इसलिए भी सतर्क हो जाना चाहिए था क्योंकि उन देशों में जो पाकिस्तानी राजदूत और कूटनीतिज्ञ हैं, वे गुरुद्वारों में जा रहे थे और अलगाववादियों के कार्यक्रमों में भाग ले रहे थे. इस संबंध में कई तस्वीरें मौजूद हैं.

जिस तरीके से पंजाब में नशीले पदार्थों का कारोबार बढ़ा और उसी के साथ वहां गिरोह बनने लगे, उस पर भी निगरानी होनी चाहिए थी कि कैसे इन सबका संबंध आतंकवाद के साथ बन रहा है. यह बात केवल पंजाब पर ही लागू नहीं होती. दुनियाभर में हमने देखा है कि नशे के कारोबार, हथियारों की तस्करी जैसी गतिविधियों का नेटवर्क आतंक के साथ जुड़ा होता है. पंजाब के भीतर जिस तरह की राजनीति हो रही थी, उससे भी संकेत मिल रहे थे. दीप सिद्धू बेअदबी के मुद्दे को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को निशाना बना रहा था. डेरा सच्चा सौदा के विरुद्ध मुहिम चल रही थी. राज्य में ऐसी अनेक घटनाएं हो रही थीं. ये सब वैसी ही घटनाएं हैं, जो किसी-न-किसी रूप में सत्तर और अस्सी के दशक में भी घटित हो रही थीं. लेकिन इन बातों को लेकर हमारे यहां ठीक से सोच-विचार नहीं हुआ. अगर सोच-विचार हुआ भी, तो कुछ किया नहीं गया. शायद सरकारें राजनीतिक मर्यादाओं में बंधी हुई थीं. आज स्थिति खतरे की घंटी से कहीं आगे निकल चुकी है.

कुछ दिन पहले तक जो एक मामूली आदमी था, वह अमृतपाल सिंह आज चर्चा के केंद्र में आ गया है. न केवल पंजाब में, बल्कि पूरे देश की मीडिया में उसका कवरेज हो रहा है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी उसके बारे में जानने की दिलचस्पी पैदा हो गयी है. ऐसी स्थिति जब भी बनती है, तो बहुत से लोग ऐसी गतिविधियों से जुड़ने लगते हैं. उसकी विचारधारा को इन सब चीजों से और ताकत मिलेगी. सरकारें अभी भी फंसी हुई हैं. केंद्र सरकार कह रही है कि यह मामला राज्य सरकार के अधीन आता है.

केंद्र को समझना होगा कि राज्य सरकार भी उनके अंतर्गत आती है. पंजाब कोई अलग मुल्क तो नहीं है. दूसरी ओर, राज्य सरकार कह रही है कि यह मुद्दा गंभीर नहीं है और इस पर बेमतलब इतनी चिंता जतायी जा रही है. जहां तक राजनीतिक पार्टियों का सवाल है, तो वे अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगी हैं. वे अपने सियासी फायदे के अनुसार चल रही हैं. कुल मिलाकर, यह कहा जाना चाहिए कि मौजूदा हालात का सामना करने के लिए कोई सोची-समझी रणनीति नहीं है. स्थिति यह हो गयी है कि अनेक देशों में भारतीयों पर हमले हुए हैं और उन मामलों में खालिस्तानी तत्वों के शामिल होने की बात कही जा रही है.

हमें यह भी समझना होगा कि पाकिस्तान की ओर से कई वर्षों से यह कोशिश हो रही थी कि पंजाब को अस्थिर किया जाए, वहां फिर आग लगायी जाए. नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी के जरिये पाकिस्तान एक-डेढ़ दशक से अपनी बिसात बिछा रहा था. विदेशों में भी उनके द्वारा खूब भारत-विरोधी दुष्प्रचार किया जाता रहा है तथा वे अलगाववादी समूहों को सहयोग देते रहे हैं. जैसा मैंने पहले कहा, पंजाब में इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया गया और आखिर पानी सर के ऊपर आ गया. पंजाब में आतंकवाद को खत्म तो किया गया, लेकिन वह जो विचारधारा थी, उसके कुछ-न-कुछ तत्व बचे रह गये.

इन तत्वों को समय-समय पर कोई-न-कोई हवा देता रहता था. हमें क्या तब नहीं चेत जाना चाहिए था, जब संगरूर में लोकसभा का उपचुनाव हुआ? उस चुनाव में सिमरनजीत सिंह मान, जो कि घोषित रूप से खालिस्तानी हैं, को जीत हासिल हुई. एक ऐसा व्यक्ति, जिसे दो-तीन हजार से अधिक वोट नहीं मिल पाता था, वह लोकसभा का चुनाव जीत गया. उस समय भी सभी लोग सोये रहे. उस समय ही संकेत समझ लेना चाहिए था कि दुबारा से पंजाब में कुछ हो रहा है. उसी समय राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर इस समस्या से निपटने की तैयारी शुरू हो जानी चाहिए थी.

अब चूंकि समस्या विकराल रूप ले चुकी है, तो जागना पड़ा है. सरकारी तंत्र और एजेंसियों की ओर से कहा जाने लगा है कि रिपोर्ट बनायी जा रही है और निगरानी रखी जा रही है. अब जब अलगाववादी तत्वों को सुर्खियों में जगह मिलने लगी है, तो शासन-प्रशासन की ओर से भी कुछ करने की बातें होने लगी हैं. इन्हें स्वीकार करना चाहिए कि इन्हें पहले से ही पता था, पर इन्होंने समय रहते कदम नहीं उठाया. हमें सरकारों और एजेंसियों से यही उम्मीद है कि इस सिलसिले को यहीं पर रोक दिया जाए और इसे आगे न बढ़ने दिया जाए. इस गंभीर मसले पर राजनीति नहीं खेली जानी चाहिए. अगर आज राजनीति हुई, तो फिर वही गलती दोहरायी जायेगी, जो सत्तर और अस्सी के दशक में हुई थी. इन्हें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए और न ही यह कहना चाहिए कि कुछ नहीं हो रहा है क्योंकि सच यह है कि पंजाब में बहुत कुछ हो रहा है. साथ ही, हमें न केवल भाईचारे का, बल्कि उस सांस्कृतिक ताना-बाना को लेकर भी प्रयास करना होगा, जिससे पंजाबी समाज परस्पर जुड़ा हुआ है. हिंदू और सिख समाज में बहुत निकटता है, एक ही परिवार में हिंदू भी हैं और सिख भी, रोटी-बेटी का नाता है. इसे भूला नहीं जाना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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