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वसंत के कांधे पर सवार हो आया फागुन

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Holi 2023: वसंत एक राग है, तो फागुन उस राग का सिरमौर. तन में फाग, मन में उमंग और चित्त में मृदंग की गूंज ही सगुन फागुन की पहचान है. पेड़ जब नये पत्ते धारण करते हैं, फूलों पर रंग और रस घुल जाता है, हवाओं में उल्लास का सुवास छा जाता है, ऐसे समय में अबीर-गुलाल लिये फागुन द्वार पर खड़ा हो जाता है.

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डॉ मयंक मुरारी, चिंतक व आध्यात्मिक लेखक

Holi 2023: बसंत एक राग है, तो फागुन उस राग का सिरमौर. तन में फाग, मन में उमंग और चित्त में मृदंग की गूंज ही सगुन फागुन की पहचान है. पेड़ जब नये पत्ते धारण करते हैं, फूलों पर रंग और रस घुल जाता है, हवाओं में उल्लास का सुवास छा जाता है, ऐसे समय में अबीर-गुलाल लिये फागुन द्वार पर खड़ा हो जाता है. फागुन का आगमन वसंत के सुवास में होता है. सर्दी की विदाई वेला में तपन का एहसास ही फागुन है. फागुन के साथ ही वसंत, पतझड़, चैत की गरमी सब एक-दूसरे से मिल जाते हैं और इस धरा को सुंदर बाग में बदल देते हैं, जहां फूलों, पत्तों, रंगों, रसों, हवाओं के संग प्रकृति उत्कृष्ट काव्य की रचना करती है.

‘इस सभ्यता में ऋतुओं ने भाव और कर्म को आधार दिया’

भारतीय जीवन में ऋतुएं संगीत की तरह आती हैं और हमारे जीवन में रच-बस जाती हैं. फिर जीवन यात्रा में ऋतुराग रचती रहती है, ताकि भीतर के उदास मन को सृजन के फुहार से दूर कर सके. हजार वर्षों की इस सभ्यता में ऋतुओं ने भाव और कर्म को आधार दिया है. यही कारण है कि नीरसता और उदासी के किसी पल में ऋतुओं का सुवास उसके तम को पसरने नहीं देता है, बल्कि रसरंग से एक रास्ता दिखाता है. ऋतुओं के कारण ही भारतीय चरित्र में सुविधा और सरलता के प्रति प्रेम का विकास हुआ. इस प्रवृति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक ओर आत्मत्याग और संन्यास की भावना तथा दूसरी ओर समय पर कठोर श्रमसाध्य चेष्टा रही है.

‘इस फुहार में तन, मन के साथ आत्मा भी भींग जाती’

प्रकृति के चाहे कितने ही रंग हों, कितने ही उत्सव हों, लेकिन फागुन जैसा कोई नहीं भींगाता है. इस फुहार में तन, मन के साथ आत्मा भी भींग जाती है. माना गया है कि जैसा ऋतु वैसा मन. जैसा मन वैसा वचन. ऋतु अगर फागुन हो, तो जीवन सगुण हो जाता है. यह सगुण हमारे लिए सात्विक अंतर्मन का निर्माण करता है. ऋतु चक्र जीवन की सनातन निरंतरता है. उसमें फागुन के रूप निराले हैं. रंग-बिरंगी, खिली अधखिली. विविध गंधों, विपुल रंगों एवं विभिन्न स्वादों के साथ प्रकृति हमारे आंगन में सगुण सौंदर्य को ले आती है. सौंदर्य के स्वर और रूप रचना में प्रकृति के हाथ जब रुकते हैं, तब फागुन अपने माधुर्य एवं रसधार से अंतर और बाह्य मन को भींगोता ही रहता है. पत्ते, फूल, कली, फल एवं टहनियों का रूप-रंग के साथ चाल-ढाल जब मस्ताना हो जाता है, तो फागुन का सुवास क्षितिज पर हर पहर इतराता फिरता है. आखिर ऐसा हो क्यों नहीं? भारत का फागुन तो ऋतुचक्र के साथ उलझकर ठहर-सा गया है, इसलिए इसके राग और रंग सालोंभर हमारे मन में बहते चलते हैं.

‘रंगों का त्योहार सबकुछ संग लाता है’

वसंत के कांधे पर सवार फागुन आता है तो संग में तितलियां, परिेदें, सरसों के फूलों की पीली चादर, पलास की आग, रंगों का त्योहार सबकुछ संग लाता है. यह जीवन में आता है और उमंग तथा उत्साह का उन्मुक्त वातावरण बनाकर चला भी जाता है. यह सावन-भादो की तरह भींगा, पूस-माघ की तरह सुबका-ठिठुरा, ज्येष्ठ-आषाढ़ की तरह तीखा-रुखा नहीं होता है. यह चैत-बैशाख की तरह पिघला और ठहरा भी नहीं होता है. यह तो बस उन्मुक्त और उड़ता-सा चलता जाता है. होली के साथ ही खेत-गांव-आंगन की माटी अबीरी और रंगीन हो जाती है. रंग के बादल घिर जाते हैं. गुलमोहर-सा जीवन दहक उठता है, फिर पिचकारियों में पूरी सप्तरंगी आभा सिमट जाती है. होलिका की लपटें आकाश छूती हैं, दूसरी ओर मानव मन उस लपटें में पकी बूटझंगरी में अमरता का बीज खोजता है. इस अमरता की खोज दूसरे दिन भी जारी रहती है. खुद रंगीन होना और दूसरे को रंगने की धुन में स्वर आती है- ‘‘मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा…’’

‘अकेलेपन को हराता है’

फागुन का ऋतुराग हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. यह अकेलेपन को हराता है, दुख को भरता है, आंसू को रोकता है और आहत को जोड़ता है. इसके गीत और नृत्यों की धुन वैदिक मंत्रों से लेकर रामायण और पुराणों के शब्दों में गूंजते हैं. वहीं राग कालीदास, कल्हड़, सूर-तुलसी के काव्य से होते हुए भक्तिकाल के संतों एवं नवजागरण के महापुरुषों के लिए जीवनधारा का काम करते हैं. राग और रस की धारा जो यमुना और ब्रज की दहलीज पर रची गयी, वही राग मीरा और सुर के काव्य में रचा-बसा. उस राग की एक धारा आज भी हमारे अंतर्मन के द्वार पर और यमुना की पानी एवं वृंदावन के पेड़ों पर अटका पड़ा है. ऐसा नहीं होता तो आखिर रसखान क्योंकर कहते- ‘‘फिर मनुष्य बन लौटूं तो इसी कदंब की छांव में बसूं….

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