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हिंदी को प्रासंगिक बनाए रखने की चुनौती

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चिंताजनक बात यह है कि विश्व हिंदी सम्मेलन या अन्य ऐसे आयोजनों में हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर कोई गंभीर विमर्श नजर नहीं आता है. इस विश्व हिंदी दिवस के सत्रों में भी अव्यवस्था का आलम था.

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फिजी के नादी शहर में 12वां विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हो गया. इस तीन दिवसीय सम्मेलन में मुझे भी हिस्सा लेने का अवसर मिला. सम्मेलन में ऐसे कई वक्तव्य दिये गये, जो राजनयिक और भाषाई दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. भारतीय विदेश मंत्री डॉ सुब्रमण्यम जयशंकर ने कहा कि विश्व हिंदी सम्मेलन एक महाकुंभ की तरह है. उन्होंने उम्मीद जतायी कि यह हिंदी के विषय में एक वैश्विक नेटवर्क का मंच बनेगा और हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि किस तरह से हिंदी वैश्विक भाषा बने.

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विदेश मंत्री ने फिजी के राष्ट्रपति रातु विलियम कातोनिवेरे से अपनी बातचीत का जिक्र करते हुए कहा कि राष्ट्रपति कातोनिवेर ने बताया कि उनकी पसंदीदा फिल्म ‘शोले’ है और उन्हें ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ गाना हमेशा याद रहता है. फिजी के उप प्रधानमंत्री बिमान प्रसाद ने आयोजन को फिजी के लिए ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री सितवेनी राबुका के नेतृत्व वाली सरकार देश में हिंदी को मजबूत करने के लिए सभी संभव कदम उठा रही है.

फिजी में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्‍त है. उन्होंने जानकारी दी कि फिजी में हिंदी भाषा का प्रचार और प्रसार पिछले 140 वर्षों से हो रहा है तथा हमारे पूर्वज अपने साथ रामायण व गीता के साथ अपनी संस्कृति भी साथ लाये थे. बिमान प्रसाद ने स्पष्ट शब्दों यह भी कहा कि पिछले 10-15 सालों में हिंदी के प्रचार-प्रसार को कमजोर बनाया गया, लेकिन मौजूदा सरकार ने हिंदी को मजबूत बनाने के लिए ठोस कदम उठाये हैं.

इस सम्मेलन में 30 से अधिक देशों के कई हिंदी विद्वानों व लेखकों ने भाग लिया तथा देश-विदेश में हिंदी के प्रचार, प्रसार व विकास के लिए काम कर रहे 25 विद्वानों व संस्थाओं को सम्मानित किया गया. इस सम्मेलन की खास यह थी कि विदेशी प्रतिनिधियों के अलावा अहिंदी भाषी राज्यों के हिंदी विद्वान भी मौजूद थे. विश्व आर्थिक मंच के आकलन के अनुसार हिंदी विश्व की 10 शक्तिशाली भाषाओं में से एक है. विद्वानों का मत है कि आने वाले समय में भारत का अंतरराष्ट्रीय महत्व और बढ़ेगा.

साथ ही, भाषा और संस्कृति की अहमियत भी ज्यादा होगी. फिजी जैसे आयोजन हिंदी के समक्ष जो चुनौतियां हैं, उनसे भी रूबरू कराते है. सबसे बड़ी चुनौती कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में हिंदी को प्रासंगिक बनाये रखने की है. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को अपनाना होगा, तभी वे प्रासंगिक बनी रह सकती हैं. सबसे अहम बात यह है कि उन्हें रोजगार से जोड़ना होगा, अन्यथा उनके पिछड़ने का खतरा है.

हिंदी भारत के लगभग 40 फीसदी लोगों की मातृभाषा है. अंग्रेजी, मंदारिन व स्पेनिश के बाद हिंदी दुनिया की चौथी सबसे बड़ी भाषा है, पर यह राष्ट्रभाषा नहीं है. इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है. राजभाषा वह भाषा होती है, जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है. हम सब जानते हैं कि नौकरशाहों की भाषा अंग्रेजी है या यूं कहें कि ल्यूटन दिल्ली की भाषा अंग्रेजी है यानी ज्यादातर सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही होता है. हिंदी भाषी भी अंग्रेजीदां दिखने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं.

गुलामी के दौर में अंग्रेजी प्रभु वर्ग की भाषा थी और हिंदी गुलामों की. यह ग्रंथि आज भी देश में बरकरार है. कई लोग दलील देते मिल जायेंगे कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, जबकि रूस, जर्मनी, जापान और चीन जैसे देशों ने यह साबित किया है कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान के अध्ययन में कोई कठिनाई नहीं आती है. इस सम्मेलन में जापान से आये 81 वर्षीय हिंदी के विद्वान तामियो मिजोकामी से मिलना बेहद सुखद था.

वे आयोजन में हर दिन अपने कोट पर भारत सरकार द्वारा दिये गये पद्मश्री का तमगा लगाये हुए मिले. उन्होंने जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में 40 साल तक हिंदी पढ़ाया और अवकाश ग्रहण करने के बाद वहीं मानद प्रोफेसर के रूप में जुड़े हुए हैं. उन्होंने कहा कि जब जापानी और जर्मन भाषा में काम करते हुए अनेक वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार जीत सकते हैं, तो हिंदी में काम कर भारतीय वैज्ञानिक ऐसी उपलब्धि क्यों नहीं हासिल कर सकते हैं.

लेकिन चिंताजनक बात यह है कि विश्व हिंदी सम्मेलन या अन्य ऐसे आयोजनों में हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर गंभीर विमर्श नजर नहीं आता है. इस सम्मेलन के सत्रों में भी अव्यवस्था का आलम था. किस सत्र में कौन-कौन भाग ले रहे हैं, उनकी क्या विशेषज्ञता है, इसका सत्र के शुरू होने तक किसी को पता नहीं था. विमर्श का फल क्या निकला, मुझे नहीं लगता कि इसका भी किसी को पता होगा.

विदेश मंत्रालय और आयोजन समिति में समन्वय का अभाव था. विदेश मंत्रालय का भले ही हिंदी विभाग हो, उसकी कामकाजी भाषा अंग्रेजी ही है. मंत्रालय के अधिकतर निर्देश अंग्रेजी में ही थे. यह स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि कोई भी सरकार आए, नौकरशाही के तौर तरीकों को आप बदल नहीं सकते हैं. यह भी कटु सत्य है कि हमारे कथित हिंदी प्रेमियों और सरकारी हिंदी ने हिंदी को बड़ा नुकसान पहुंचाया है.

अगर सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाए, तो हिंदी का बंटाधार होने से कोई नहीं रोक सकता है. आम बोलचाल की हिंदी के स्थान पर आप सरकारी हिंदी का दुराग्रह करेंगे, तो आप हिंदी को ही नुकसान पहुंचायेंगे. मैं इससे भी सहमत हूं कि अगर हिंदी का ऐसा शब्द उपलब्ध है, जिससे बात स्पष्ट हो जाती है, तो बेवजह अंग्रेजी का शब्द इस्तेमाल करना उचित नहीं है. हिंदी में अद्भुत माधुर्य है. मुहावरे और लोकोक्तियां उसे और समृद्ध करते हैं.

यह तो मानना होगा कि मौजूदा मोदी सरकार हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर गंभीर है. कुछ समय पहले गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदीभाषियों को संदेश दिया था कि जब तक हम अन्य स्थानीय भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करके हिंदी को सर्वग्राही नहीं बनाते हैं, तब तक इसका वास्तविक प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकेगा. उन्होंने जानकारी दी थी कि केंद्रीय कैबिनेट का 70 फीसदी मसौदा अब हिंदी में तैयार किया जाता है.

हम सब जानते हैं कि तमिलनाडु का हिंदी से बैर पुराना है, लेकिन हिंदी पट्टी के क्षेत्रों में भी हम कहां हिंदी पर ध्यान दे रहे हैं. हम पाते हैं कि हमारे नेता, लेखक और बुद्धिजीवी हिंदी की दुहाई तो बहुत देते हैं, लेकिन जब अपने बच्चों की पढ़ाई की बात आती है, तो वे अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों को ही चुनते हैं. यह सही है कि भारत अनेक भाषाओं का देश है और हर किसी का अपना महत्व है, लेकिन पूरे देश में एक भाषा का होना बेहद जरूरी है. आज भारत को एकता की डोर में बांधने का काम कोई भाषा कर सकती है, तो निश्चित रूप से वह हिंदी ही है.

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