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My Mati: आदिवासी युवा और बिजनेस की चुनौतियां

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हाल के दिनों में ऐसे अनेक आदिवासी युवा हैं जिन्होंने एक लंबी उड़ान का प्रयास किया है. ऐसे अनेक उदाहरण उन्होंने स्थापित किये हैं, जिनमें आदिवासी युवाओं ने संस्थागत रूप से व्यवसाय को एक कैरियर के रूप में चुना है. उनका नेटवर्क निश्चित ही मजबूत हुआ है लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि बाजार उपभोक्ता आधारित है.

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डॉ अभय सागर मिंज : जब मैं कहता हू‍ं कि क्यों आदिवासी युवा बिजनेस नहीं कर सकता, तो यहां दो दृष्टिकोण हैं. पहला कि आदिवासी युवा सफल व्यवसायी क्यों नहीं बन सकता है- जिसके पीछे सामाजिक सांस्कृतिक कारक है और दूसरा कि आदिवासी युवा में भी क्षमता है कि वह सफल व्यवसायी बन सकता है. कुछ माह पहले अपने पैतृक गांव जाना हुआ था. गुमला जिले का कांसीर बाजार दशकों पुराना हाट है. शुक्रवार का दिन था. मैं बचपन की यादों को जीने के लिए वहां रुका. मेरे बचपन के मित्र बिनई वहां टमाटर बेचने आये थे. हम दोनों मित्र मिले. उरांव/सादरी भाषा में संवाद शुरू हुआ. उस दिन बिनई का ‘सौदा’ अच्छा हुआ था. हाट सप्ताह में दो दिन लगा करता था, शुक्रवार और मंगलवार. बिनई खुश होकर बोला- “होलक मोर सप्ताह भाईर कर”. मैंने कहा- “ने ना, मंगर के नी आबे? बिनई चहकते हुए बोले, ‘नाहीं, होलक कि”. इस छोटे से संवाद में गहराई है. मेरा मित्र सप्ताह भर के लिए धनोपार्जन कर के संतुष्ट था, और यहां हम सात पुश्त के लिए जोड़ने में लगे हैं.

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टमाटर का एक बड़ा झोला उसने जबरन मेरी गाड़ी में रख दिया. मैं अभी संशय में ही था कि पैसे दूं या नहीं क्योंकि मुझे डर था कि वह इसे अन्यथा ना ले ले. उसने सफल सौदे के उपलक्ष में कहा- “ चल भई, सुक्रो भौजी जग तानि हांड़ी पियब ”. हम दोनों मित्र वहां गये और सीमित मात्रा में हंड़िया का सेवन किया और इधर उधर की बातें की. जब वहां से चलने की बारी आयी तो मैंने हिम्मत कर के कहा- “राह ना, सुक्रो भौजी ले कचिया मोय देबुं ”. वही हुआ, जिसका डर था. पलट कर उसने कहा- “ बड़का साहब बईन गेले तोयं तो ”. मैं शांत हो गया. सोचने लगा कि अब तो शहर में हम बिल को ‘स्प्लिट’ किया करते हैं और यह अपनी मित्रता के लिए अपने छोटे-से खजाने को लुटाने के लिए तैयार था.

इस वाकये का जिक्र यहां महत्वपूर्ण है. आदिवासी समाज में आर्थिक संरचना अन्य समाज से भिन्न है. बीसवीं शताब्दी के मध्य से आदिवासी समाज की आर्थिक संरचना का अध्ययन का आरंभ हुआ था. कार्ल पोल्यनि की बहुचर्चित पुस्तक- ‘ट्रेड एंड मार्केट इन द अर्ली एंपायर्स’ उपरोक्त घटना को स्पष्ट करती है. आदिवासी समुदाय में आर्थिक संबंध से भी अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक संबंध होते हैं. इस संबंध में नफा-नुकसान कहीं परोक्ष में धूमिल अवस्था में रहते हैं. दूसरा महत्वपूर्ण कारक है, हमारा सामुदायिक स्वामित्व. जो जल-जंगल-जमीन मेरी है, वह उतनी ही मेरे समाज के प्रत्येक व्यक्ति की है. कुछ दशक पहले तक, आदिवासियों में व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा ही नहीं थी. इसलिए, ‘सात पुश्त’ तक धन-संपत्ति का संचय अर्थहीन था.

इस प्रकार की आर्थिक संरचना हमें विश्व के अनेक समुदायों में देखने को मिलती है. अफ्रीका के जूनी, न्यूजीलैंड के माओरी या उत्तरी अमेरिका के क्वाकिटुल आदिवासी समुदाय में ऐसे अनेक सामाजिक सांस्कृतिक प्रथाएं हैं, जो सामुदायिक स्वामित्व को बनाये रखते हैं और साथ ही धन संपत्ति के संचय को होने नहीं देते. क्वाकिटुल आदिवासियों में एक ऐसी ही प्रथा है जिसे हम ‘पोटलैच’ के नाम से जानते हैं. इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति धन-संपति संचय के लिए स्वतंत्र होता है किंतु जब वह इसे अर्जित कर लेता है तो फिर उसे किसी दिन सामूहिक भोज देना होता है. यह इतना भव्य होता है कि भोज के बाद उस व्यक्ति के पास अगले दिन कुछ भी नहीं होता है. यह चक्र उस समाज में अनेक लोगों के द्वारा चलता रहता है.

आदिवासी समाज के सामाजिक-आर्थिक संरचना को कार्ल मार्क्स के सहयोगी मार्सेल मॉस ने अपनी पुस्तक- ‘द गिफ्ट’ में बेहतर ढंग से समझाया है. जब आप उपहार देते हैं या प्राप्त करते हैं तो अनेक बार वह सीधे तौर पर भोज्य नहीं होता है. ऐसे में किसी उपहार का आर्थिक महत्व, सामाजिक एवं व्यक्तिगत महत्व की तुलना में कम होता है. यही सामाजिक प्रगाढ़ता आदिवासी समाज की आर्थिक संरचना का आधार है. ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से हमें कभी जोड़-तोड़ करना आया ही नहीं. आज जब हम अपने गांव घर से निकल आये हैं और कुछ व्यवसाय के लिए प्रयासरत हैं, हमारी सांस्कृतिक मनःस्थिति वृहद् समुदाय के जोड़ घटाव से अभी भी सानिध्य नहीं रख पाती हैं. यह कठिन है. अनेक ऐसे आदिवासी युवा हैं जो कठिन प्रयास कर के व्यवसाय के क्षेत्र में उड़ान भरने की कगार पर हैं. जब हम बाजार संरचना को निकट से देखते हैं तो यह उपभोक्ता आधारित होता है. बिना सामाजिक सहयोग के, मात्र स्वयं के प्रयास से आप आगे बढ़ सकते हैं, किंतु वह चुनौतीपूर्ण और संघर्षमय होगा. सामाजिक सहभागिता और सहयोग अनिवार्य हो जाता है. और इसलिए लगता है कि आदिवासी युवा बिजनेस नहीं कर सकता.

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दूसरा दृष्टिकोण है-क्यों, बिजनेस नहीं कर सकता क्या आदिवासी युवा? बिलकुल कर सकता है. आदिवासी समाज में व्यवसाय करने की क्षमता है. हाल के दिनों में ऐसे अनेक आदिवासी युवा हैं जिन्होंने एक लंबी उड़ान का प्रयास किया है. ऐसे अनेक उदाहरण उन्होंने स्थापित किये हैं, जिनमें आदिवासी युवाओं ने संस्थागत रूप से व्यवसाय को एक कैरियर के रूप में चुना है. इस क्रम में उनका नेटवर्क निश्चित ही मजबूत हुआ है. किंतु जैसा मैंने कहा कि बाजार उपभोक्ता आधारित है. ऐसे में समाज का यह उत्तरदायित्व बनता है कि ऐसे युवाओं को सहयोग करे और उन्हें प्रोत्साहित करे. यह भी आवश्यक हो जाता है कि जो बाजार की नीतियां हैं, उन्हें व्यक्तिगत संबंधों से दूर रखें. नवयुवकों को भी अपने व्यवसाय के प्रति गंभीरता दिखानी होगी. आपके उत्पाद एवं सेवा उत्कृष्ट होनी चाहिए. कोई भी व्यवसाय एक अकेले व्यक्ति के द्वारा नहीं चलता है. यह एक शृंखला होती है, जहां श्रम शक्ति की समग्रता देखने को मिलती है. यहां अनेक हितधारक होते हैं और जब सभी में एक सामंजस्य बैठेगा तभी कोई भी व्यवसाय सफल हो पायेगा.

आदिवासी युवा सीमित संसाधन एवं सीमित सहयोग में यदि अपने व्यवसाय को स्थापित करने में आंशिक रूप से सफल हो पाये हैं तो निश्चय ही वे प्रशंसा के पात्र हैं. ऐसे ही मेरे एक छात्र हैं विकास पूर्ति. इस वर्ष के मानवशास्त्र स्नातकोत्तर में ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ और मेरे विचार से जीवन में भी. सड़क से बिजनेस शुरू कर के आज मात्र 26 की उम्र में वो लाखों का व्यवसाय कर रहे हैं. कठिन परिश्रम का कोई शॉर्टकट नहीं होता है. जिस दिन शॉर्टकट की आदत हो जाएगी, आपकी स्टैमिना स्वतः लंबी दौड़ के लिए कम हो जाएगी. और जिंदगी एक लंबी दौड़ है. विकास कठिन परिश्रम से कभी नहीं भागे, मन में कभी अहम नहीं रखा, सीखने की गजब की ललक है, पढ़ने का शौक है. बिना किसी एमबीए की डिग्री के भी, छोटी उम्र से ही देख कर, सुन कर, पूछ कर, उन्होंने बिजनेस के गूढ़ नियमों को जाना. अनुभव से बड़ा कोई ‘गुरु’ नहीं.

आने वाली पीढ़ी को हमें सबलता प्रदान करनी होगी, नहीं तो आज के जो युवा अधपकी शिक्षा हासिल कर रहे हैं, ना तो वे हल पकड़ने में सक्षम हैं ना ही नौकरी पाने में. आज का युवा डेढ़ जीबी में व्यस्त है और जीवन मस्त है.

(सहायक प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपाेलॉजी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची)

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