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प्रवासी भारतीयों के हितों की रक्षा

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यदि पूरी दुनिया के एनआरआइ, ओसीआइ और भारतवंशियों की गिनती की जाए, तो यह संख्या 10 करोड़ के करीब है. निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में भारत की प्रतिष्ठा विदेशों में बढ़ी है.

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कनाडा की लाइफलाइन हैं ट्रक. अगर ट्रक का चक्का जाम हो जाए, तो पूरा पूरा कनाडा (जिसका क्षेत्रफल भारत से करीब तीन गुना ज्यादा है) थम जायेगा. पिछले साल जब ट्रक के पहिये रुक गये थे, तब प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की सांस थमने लगी थी. मजे की बात है कि कनाडा या अमेरिका में ट्रक-ट्रांसपोर्ट प्रवासी भारतीयों के पास है. वहां जितने भी हाइवे अमेरिका को जाते हैं, सब पर ट्रक ड्राइवर कोई न कोई पंजाबी मिल ही जायेगा.

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या तो पंजाबी या अमेरिकी-अफ्रीकी, जिन्हें यहां ब्लैक कहा जाता है, ही अधिकतर ट्रक ड्राइवर हैं. कुछ श्वेत महिलाएं अवश्य राष्ट्रीय राजमार्ग फोर जीरो वन (401), यंग स्ट्रीट या क्वीन लेन में ट्रक चलाती मिल जायेंगी. यहां ट्रक ड्राइवरी का काम बड़ी मेहनत, लगन और धीरज का है. कनाडा तथा अमेरिका में ट्रक ड्राइवर का लाइसेंस बहुत मुश्किल से मिलता है. उसके लिए परिवहन विभाग की कई जटिल परीक्षाएं पास करनी पड़ती हैं.

इसीलिए ड्राइवरों को काफी अधिक पैसा भी मिलता है. कनाडा की सीमा सिर्फ अमेरिका से मिलती है, बाकी तीन तरफ महासागर तथा कुछ हिस्से में बर्फ है, जो उत्तरी ध्रुव तक जाती है. भारत के पंजाब से इसीलिए कनाडा जाने वालों की मारामारी रहती है. एक वजह तो पंजाब में कुशल ड्राइवरों का होना, दूसरे पंजाबी हर क्षेत्र में मेहनती होते हैं, चाहे वह ट्रक ड्राइवर का काम हो या खेती-किसानी का. दोनों जगह इनकी मांग भी बहुत है. कोविड काल के बाद जैसे ही उड़ानें शुरू हुईं, बहुत से आइटी प्रोफेशनल कनाडा चले गये. कुछ ने इटली, फ्रांस और पुर्तगाल का रुख किया.

मोटे अनुमान के अनुसार, इस समय करीब सवा तीन करोड़ भारतीय विदेश में बसे हैं. यह संख्या उन लोगों की है, जो आजाद भारत से बाहर गये और जिन्हें एनआरआइ (आप्रवासी भारतीय) कहा जाता है. इनमें से अधिकतर को ओसीआइ (ओवरसीज सिटीजंस ऑफ इंडिया) का दर्जा मिला हुआ है. ओसीआई के लिए वही भारतीय पात्र हैं, जो 26 जनवरी, 1950 के बाद भारत में पैदा हुए और विदेश जा कर बस गये तथा वहां की नागरिकता ले ली. ओसीआइ के बच्चों को भी यह नागरिकता मिल जाती है.

इसके लिए हर व्यक्ति को 275 अमेरिकी डॉलर देने पड़ते हैं. ओसीआइ दर्जा मिलने के बाद वह व्यक्ति भारत में निर्बाध आ-जा सकता है. उसे व्यापार करने और जमीन खरीदने की छूट होती है. ओसीआइ बस वोट नहीं दे सकता तथा सेना व पुलिस की नौकरी उसे नहीं मिलेगी. एनआरआइ और ओसीआइ के अतिरिक्त ब्रिटिश भारत से गये भारतवंशी भी विदेशों में खूब बसे हैं. गुयाना, फिजी, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, केन्या आदि देशों में भारतवंशी हैं. इनमें से फिजी, गयाना और मारीशस में तो दसियों साल से भारतवंशी ही राष्ट्राध्यक्ष हैं.

अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हेरिस और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक भी भारतवंशी हैं. कनाडा में तो आज 26 संसद सदस्य प्रवासी भारतीय हैं. वहां की रक्षा मंत्री अनीता आनंद भी प्रवासी श्रेणी में हैं, लेकिन वे कनाडा की नागरिकता ले चुकी हैं. यदि पूरी दुनिया के एनआरआइ, ओसीआइ और भारतवंशियों की गिनती की जाए, तो यह संख्या 10 करोड़ के करीब है. जब इतना बड़ा इंडियन डायस्पोरा है, तो निश्चय ही भारत की धमक होगी ही.

निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत की प्रतिष्ठा विदेशों में बढ़ी है. आज कहीं भी भारतीयों को किसी गरीब देश से आया व्यक्ति नहीं माना जाता. मेहनत, ईमानदारी और मेधा के बूते भारतीय विदेशों में सबसे होड़ ले रहा है. पैसों के मामले में भी वह संपन्न है और अपनी कार्यकुशलता में भी वह सबको टक्कर देता है.

यही कारण है कि विश्व की टॉप मानी जाने वाली कई कंपनियों के प्रमुख एनआरआइ हैं. एलन मस्क के पहले ट्विटर का सीइओ भी एक एनआरआइ ही था. यूं भी मस्क जिस टेस्ला कार कंपनी के कारण जाने जाते हैं, उस चालक रहित कार की डिजाइनिंग में भी भारतीय इंजीनियरों का योगदान था. आइटी पेशेवरों में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु के लोग खूब हैं.

व्यापार में नंबर एक पर गुजराती पटेल हैं, फिर राजस्थान व हरियाणा के लोग. उत्तर प्रदेश, बिहार के लोग वहां या तो आइटी के क्षेत्र में हैं या फिर वकील या डेंटिस्ट हैं. कनाडा में स्वास्थ्य सेवा भले सरकारी क्षेत्र में मुफ्त हो, किंतु दंत चिकित्सा इस दायरे से बाहर है. अमेरिका और कनाडा में इसलिए भी भारतीयों के पास धन है. अरब देशों में किसी विदेशी को नागरिकता नहीं मिल सकती, इसलिए भारतीय वहां की पीआर (परमानेंट रेजिडेंसी) लेकर रह रहे हैं.

वहां पर लगभग 33 लाख भारतीय हैं. चीन में भी सिर्फ ग्रीन कार्ड की मियाद ही बढ़ती है. कुछ देशों में भारी-भरकम रकम देकर भी नागरिकता मिल जाती है. इसलिए उनकी गिनती नहीं हो पाती. इसमें कोई शक नहीं कि विदेशों में बसे भारतीय उद्यमी हैं और वे अपनी भारतीय पहचान बनाये रखने को आतुर भी. मोदी सरकार से उन्हें उम्मीद है कि उनकी भारतीय पहचान से उनका गौरव बढ़ेगा. इसीलिए इस बार के आप्रवासी भारतीय सम्मेलन से उनकी आशाएं भी बढ़ी हैं और अपेक्षाएं भी.

नौ जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने इंदौर में सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रवासियों को भरोसा दिलाया कि विश्व में भारतीय कहीं भी रहें, भारत सरकार उनके हितों की रक्षा करेगी. विदेशों में बसे भारतीयों से हर साल ओसीआई फीस से सरकार को करोड़ों डॉलर प्रति वर्ष मिलते हैं. जब वे यहां आते हैं, तो दिल खोल कर खर्च भी करते हैं. अपने मां-बाप या नाते-रिश्तेदारों को पैसा भी भेजते हैं. यदि भारत सरकार विदेशों के लिए अपनी उड़ाने बढ़ाये, वहां से निवेश करने वालों के लिए सिंगल विंडो सिस्टम को चाक-चौबंद करे, भारत में जमीन खरीदने-बेचने व बैंकों में खाता खुलवाने के नियम आसान करे,

तो यकीनन देश में पैसा भी आयेगा और प्रवासी भारतीयों को भी भारत से लगाव बढ़ेगा. अभी तो स्थिति यह है कि विदेशों में बसे भारतीयों को जब छुट्टियों में भारत आने की इच्छा होती है तो फ्लेक्सी किराये के नाम पर हवाई किराया बढ़ा दिया जाता है. ऐसे में भारत आने वाला एनआरआइ किसी और मुल्क की सैर कर आता है. भारतीय दूतावास, उच्चायोग और वाणिज्य दूतावास को भी वहां बसे भारतीयों से निरंतर संपर्क में करें. उनकी काउंसिलिंग करें ताकि प्रवासी सम्मेलन के मकसद पूरे हों. महामारी के दो वर्षों में प्रवासी सम्मेलन स्थगित रहा, इसलिए यह 17वां प्रवासी सम्मेलन था. अब इसके नतीजे देखने हैं.

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