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राधाकृष्णन बनाम इंदिरा

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।।सुरेंद्र किशोर।।इंदिरा गांधी के विरोध के कारण डॉ एस राधाकृष्णन दोबारा राष्ट्रपति नहीं बन सके थे. इस तरह डॉ राजेंद्र प्रसाद ही एक मात्र व्यक्ति थे जिन्हें लगातार बारह साल तक राष्ट्रपति बने रहने का अवसर मिला. इंदिरा गांधी 1966 में प्रधानमंत्री बनी थीं. उससे पहले वह लाल बहादुर शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना व प्रसारण […]

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।।सुरेंद्र किशोर।।
इंदिरा गांधी के विरोध के कारण डॉ एस राधाकृष्णन दोबारा राष्ट्रपति नहीं बन सके थे. इस तरह डॉ राजेंद्र प्रसाद ही एक मात्र व्यक्ति थे जिन्हें लगातार बारह साल तक राष्ट्रपति बने रहने का अवसर मिला. इंदिरा गांधी 1966 में प्रधानमंत्री बनी थीं. उससे पहले वह लाल बहादुर शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना व प्रसारण मंत्री थीं. शास्त्री जी की 1966 में ताशकंद में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. जब वह सूचना मंत्री थीं, तभी उनकी यह शिकायत रहती थी कि देश को चलाने में लाल बहादुर शास्त्री उनकी सलाह नहीं ले रहे हैं. इंदिरा गांधी में एकाधिकारवाद की प्रवृत्ति शुरू से ही थी.

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इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के एक ही साल बाद ही राष्ट्रपति पद का चुनाव था. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज ने इंदिरा जी से यह आग्रह किया था कि वह डॉ राधाकृष्णन को दोबारा राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की मंजूरी दें. उनका यह तर्क था कि डॉ राजेंद्र प्रसाद को जब यह सुविधा दी गयी थी तो राधाकृष्णन को क्यों नहीं. पर इंदिरा और उनके सलाहकार इस पक्ष में नहीं थे. इंदिरा खुद अपनी पसंद का राष्ट्रपति चाहती थीं. राधाकृष्णन तो नेहरू की पसंद थे. कामराज ऐसे नेता थे जिन्होंने 1964 में लाल बहादुर शास्त्री को और 1966 में खुद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. पर, इंदिरा जी ने इस मामले में उनकी भी राय नहीं मानी. पूरे कार्यकाल तक राधाकृष्णन से इंदिरा जी का सामान्य संबंध रहा.

1967 में इस पद को लेकर कांग्रेस के भीतर खींचतान शुरू हो गयी. शायद कामराज को यह मालूम नहीं था कि इंदिरा गांधी ने जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति बनाने का मन बना लिया था. राधाकृष्णन को जब इस बात की भनक मिली तो उन्होंने इस दौर से खुद को बाहर कर लिया. हालांकि नेहरू राधाकृष्णन को 1957 में ही राष्ट्रपति बनवा देना चाहते थे. राधाकृष्णन पंडितजी से एक साल बड़े भी थे.

1962 में चीन के हाथों हुए अपमान के कारण प्रधानमंत्री क्षुब्ध थे. राधाकृष्णन की सलाह पर ही नेहरू ने कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री पद से हटाया था. राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री से कहा था कि वह दोस्ती के बदले कर्तव्य को प्रमुखता दें. खुद प्रधानमंत्री मेनन को हटाने के पक्ष में नहीं थे. 1957 में कांग्रेस के कई बड़े नेता राजेन बाबू के पक्ष में थे. इसलिए नेहरू जी ने उनकी बात मान ली. नेहरू जी अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक मिजाज के थे. पर इंदिरा गांधी वैसी नहीं थीं. इंदिरा जी ने भी देखा था कि किस तरह पंडितजी पर भावनात्मक दबाव डालकर राधाकृष्णन ने मेनन को मंत्री पद से हटवा दिया था.

जब राजेन बाबू 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गये, तो राधाकृष्णन ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे देने का मन बना लिया था. उन्हें नेहरू जी ने किसी तरह इस शर्त पर मनाया कि उन्हें 1962 में मौका मिलेगा. नेहरू ने तो अपनी बात रखी, पर इंदिरा गांधी ने राधाकृष्णन के बारे में अपने दलीय सहयोगियों की बातों को नजरअंदाज करके 1967 में डॉ जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति बनवा दिया. 1966 में राधाकृष्णन ने अपने एक भाषण में कहा था कि सरकार अपने अनेक कर्तव्यों से विमुख हो रही है. उन्होंने यह भी कहा था कि समाज रसातल में जा रहा है और राजनेतागण शानो-शौकत में व्यस्त हैं.

उन दिनों आम चर्चा थी कि राधाकृष्णन अपने प्रधानमंत्रियों को बेबाक सलाह दिया करते हैं. उनके कार्यकाल में नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं.डॉ राधाकृष्णन को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने की कोशिश में कामराज की संभवत: यह भी सोच रही होगी कि उत्तर भारत के राजेंद्र बाबू को दोबारा अवसर मिला तो दक्षिण भारत के राधाकृष्णन ही इस अवसर से वंचित क्यों रहें? कामराज 1964 से 1967 तक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे.

राधाकृष्णन ने विवादरहित परिस्थितियों में राष्ट्रपति भवन में प्रवेश किया था. पर 1967 में राजनीतिक कारणों से देश का तब तक का यह सर्वाधिक विवादास्पद पद हो गया. खुद राधाकृष्णन दोबारा इस पद के लिए चुना जाना चाहते थे या नहीं, यह तो नहीं मालूम, पर जब उन्होंने देखा कि इस पद के लिए विवाद हो रहा है तो उन्होंने खुद को इस झमेले से अलग कर लिया. राधाकृष्णन 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक राष्ट्रपति रहे. 1967 के गणतंत्र दिवस पर राधाकृष्णन ने राष्ट्र के नाम संदेश में एक तरह से अपना विदाई संदेश दिया था.

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