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चकचंद तो है, पर नहीं दिखता ढबुआ

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।। दीपक कुमार मिश्र ।। प्रभात खबर, भागलपुर गांव में स्कूली शिक्षा के दौरान चकचंद व शिक्षक दिवस का इंतजार रहता था. 15 अगस्त के बाद चकचंद का इंतजार और तैयारी शुरू हो जाती. पिताजी पर ढबुआ (डांडिया जैसी स्टिक) लाने का दबाव बढ़ जाता. शाम को जब वह बाजार से लौटते, तो पहला सवाल […]

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।। दीपक कुमार मिश्र ।।
प्रभात खबर, भागलपुर
गांव में स्कूली शिक्षा के दौरान चकचंद व शिक्षक दिवस का इंतजार रहता था. 15 अगस्त के बाद चकचंद का इंतजार और तैयारी शुरू हो जाती. पिताजी पर ढबुआ (डांडिया जैसी स्टिक) लाने का दबाव बढ़ जाता. शाम को जब वह बाजार से लौटते, तो पहला सवाल यही होता- ढबुआ लाए? उस समय यह दो से पांच रुपये में रूप-रंग और आकार के अनुसार मिलता. कुछ बच्चे घर में ही लकड़ी का बनाते, उसे रंगते और उस पर चित्रकारी करते.
आज भी चकचंद उसी उत्साह से मनाया जाता है, लेकिन ढबुआ कब और कैसे कहां गायब हो गया पता ही नहीं चला. लाल, गुलाबी, पीला, नीला और हरा ढबुआ का परंपरागत रंग था. सच कहा जाय तो ढबुआ का रंग हमारे जीवन के रंग से जुड़ा था. चकचंद को लेकर कितना उत्साह होता, मैं इसे शब्दों में नहीं पिरो सकता. सुबह से से बच्चों की टोली झोला लेकर गुरुजी के साथ निकल जाती. स्कूल के एक-एक बच्चे के घर पहुंचता. अपना घर नजदीक आने पर दौड़ कर घर पहुंचते. जिसके घर पहुंचते, उस बच्चे की आंख पर पट्टी बांध कर हमलोग ढबुआ बजा कर बड़े तनमयता से गाते- लल ढबुआ, लल ढबुआ खेल रे बबुआ.. माय के अरज निका रे बबुआ, बाप के अरज निकाल रहे बहुआ.. उसके बाद घरवाले पैसा या चावल देते.
इसमें हमलोग थोड़ी शरारत भी करते, किसी-किसी बच्चे की आंख कस कर बांध देते. लेकिन कोई गिला शिकवा नहीं करता. आज तो सुनने में आता है कि फलां बच्चे ने दोस्त की कोई बात नहीं मानी, तो उसके खिलाफ तरह-तरह की साजिश रचने लगा. दिन भर में कई किलोमीटर का चक्कर लग जाता. मास्ससाब के घर तक चावल ढोकर पहुंचाते. सच मानिए, इतना मजा आता कि बता नहीं सकता. अब जब चकचंद के बारे में सोचता हूं, तो लगता है कि यह हम बच्चों के बीच में सामाजिक समरसता, दोस्ती, भरोसे की एक अहम कड़ी थी. अब तो न ढबुआ रहा और न आपसी समरसता का वो रंग. ऐसे भी उस समय बच्चों में जातिवाद था कहां . सरजू तुरी हमलोगों को आम का टिकौला खिलाते, तो मुन्ना यादव का दही बड़ा मीठा लगता. अनिल साह का भूंजा बड़ा अच्छा लगता. मेरे घर की निमकी सबको पसंद थी. चकचंद की तरह से शिक्षक दिवस का इंतजार रहता.
बुश्शर्ट की जेब पर शिक्षक दिवस का टिकट लगता. कई दिन तक वो टिकट जेब पर लगा रहता. स्कूल से टिकट लगा कर बड़े शान से घर लौटता था. जब सैनिक या पुलिस के लोग अपने सीने पर कोई मैडल लगाते होंगे तो जिस गर्व का अहसास उनके मन में होता होगा, वही अहसास हमलोगों को शिक्षक दिवस का टिकट लगा कर होता था. क्या परंपरा थी और उसके पीछे छिपा एक सच्च निहतार्थ! इस निहतार्थ की आज बड़ी जरूरत है. जिस तरह आपसी भरोसा टूट रहा है, वैसे में इन परंपरागत चीजों को फिर सामने लाने की आवश्यकता आन पड़ी है.

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