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आर जगन्नाथन, मुख्य संपादक, फ स्र्ट पोस्ट

कई मायनों में दिल्ली का चुनाव असाधारण है. दरअसल हाल के चुनावों से यह हर तरह से अलग है. इसका कारण अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की भारी जीत नहीं है. दिल्ली के नतीजे को जो तथ्य अलग करता है, वह यह है कि पिछले कुछ दशकों में पहली बार किसी पार्टी को 50 फीसदी से अधिक मत मिले हैं.
2014 में भाजपा और नरेंद्र मोदी को मात्र 31 फीसदी मत ही मिले थे. 2012 में उत्तर प्रदेश में बहुमत लानेवाले अखिलेश यादव को 30 फीसदी से कम वोट मिले थे. बहुमत प्राप्त करनेवाली शायद ही किसी पार्टी को 35-40 फीसदी से अधिक मत नहीं मिले हैं. रुझानों के मुताबिक 54 फीसदी से अधिक मत पानेवाली आम आदमी पार्टी के वोट भाजपा से 22 फीसदी अधिक हैं और कांग्रेस को तो 10 फीसदी से भी कम वोट मिले हैं. बाकियों का स्कोर मूंगफली जैसा है. शायद ही किसी पार्टी को देश में कभी किसी विभाजित चुनाव में ऐसा जनादेश मिला हो. इस जनादेश की तुलना किसी और उदाहरण से नहीं की जा सकती है.
इस परिणाम के निहितार्थो पर चर्चा से पहले परिणाम का मूल्यांकन आवश्यक है. सीटें जीतने में फिसड्डी रही भाजपा अपना जनाधार बचाने में कामयाब रही है. पिछली बार से उसे ज्यादा मत मिले हैं, लेकिन उसे अन्य मत नहीं मिल सके, जो उसे आगे ले जा सकें. उसे कांग्रेस के मतों के पतन या पहली बार मतदान करनेवाले का फायदा नहीं मिल सका. इसका मतलब यह है कि उसके पास अपनी ताकत बढ़ाने का आधार तो है, लेकिन प्रासंगिक बने रहने के लिए उसे आनेवाले समय में नये समूहों को अपनी तरफ आकर्षित करना होगा.
कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई है. 2013 के चुनाव की तुलना में उसके पास एक-तिहाई मतदाता ही बचे हैं. इसका अर्थ यह है कि पार्टी दिल्ली में निरंतर अप्रासंगिक होती जा रही है, जहां उसने प्रभावी तरीके से 15 वर्षों तक शासन किया है, जो 2013 के दिसंबर तक चला था. अन्य पार्टियों में एक फीसदी से अधिक वोट पानेवाली एकमात्र पार्टी बहुजन समाज पार्टी है. इससे खास संकेत यह निकलता है कि दिल्ली का मतदाता जाति और समुदाय के विभाजन से ऊपर उठने लगा है. इंडियन नेशनल लोक दल (जाट-आधारित) और अकाली दल (सिख-आधारित) एक फीसदी वोट भी नहीं पा सके हैं.
इसे अलग कोण से देखें, तो दिल्ली का यह नतीजा देश के अन्य हिस्सों में भाजपा की तुलना में क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ा खतरा है. संभवत: यह पहली बार हो रहा है, हालांकि इसकी एक झलक 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिखी थी, कि दिल्ली में वर्गीय आधार पर मतदान हुआ है, वैसे यह भी एक तथ्य है कि आप को सभी वर्गो में समर्थन प्राप्त है. भले ही सभी समुदायों में आप का प्रदर्शन अच्छा रहा है, लेकिन वंचित और अल्पसंख्यक समुदाय आप के समर्थन के मुख्य आधार थे.
जिस बात ने सभी समुदायों को एकताबद्ध किया है (कम-से-कम अस्थायी तौर पर), वह भ्रष्टाचार कम करने और सुशासन का विचार है, लेकिन यह टिकाऊ नहीं होगा. सीमित संसाधनों वाले किसी भी राज्य को यह निर्धारित करना पड़ेगा कि वह अपने व्यय का आवंटन किस तरह करेगा. वह पप्पू, रहीम और सिंह को एक समान रूप से नहीं दे सकता है. उसे अपनी प्राथमिकताएं चुननी होती है, और इस प्रक्रिया में, वह कुछ समूहों को अपने से दूर भी कर सकता है.
तार्किक रूप से आप के लिए आगे की राह यह है कि वह अपनी राजनीतिक स्थिति की दीर्घकालीन व्यावहारिकता बनाने के लिए अच्छा सार्वजनिक प्रशासन देने- कानून-व्यवस्था, स्वच्छ पानी, भ्रष्टाचार में कमी, बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ अच्छा सामाजिक और भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर-तथा निजी लाभों (मुफ्त सुविधाएं, सस्ती बिजली, खाद्य और अन्य सब्सिडियों) पर थोड़ा संयम बरतने पर ध्यान दें. हालांकि आप के घोषणापत्र में इन मामलों में बहुत ज्यादा वादे किये गये हैं.
आप राज्य की पहुंच को अंतहीन विस्तार देकर सफल नहीं होगा, बल्कि वह सार्वजनिक सेवा और सुविधाओं को देने के मामले में प्राथमिकताओं के निर्धारण में अपनी भूमिका को पुनर्भाषित कर ही सफल हो सकता है. व्यक्तिगत सेवा व सुविधाएं अपवाद ही होनी चाहिए. लेकिन ‘आम आदमी’ का उसका आधार अधिक मुफ्त चीजों की मांग करता रहेगा. यहीं वोटों में आप की 50 फीसदी से अधिक की हिस्सेदारी चिंताजनक है. इसका अर्थ यह है कि सभी ने अपने विशेष कारण के आधार पर उसे मत दिया है, और इसलिए सभी की अपरिमित अपेक्षाओं को पूरा कर पाने की संभावना दूर तक नहीं है. मैं इस समय अरविंद केजरीवाल के स्थान पर होना पसंद नहीं करूंगा, क्योंकि उनको मिला जनादेश वास्तव में डरावना है.
(फस्र्टपोस्ट डॉट कॉम से साभार)
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