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प्रश्न समानता और सबके विकास का है

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार यह सच है कि एक साल में भ्रष्टाचार और घोटाले का कोई बड़ा मुद्दा नहीं आया, क्रोनी पूंजीवाद विकसित नहीं हुआ. डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना की बातें हुई हैं. लेकिन, मोदी की चिंता में संपूर्ण भारत नहीं है. मोदी सरकार के एक वर्ष पर जितना कहा-लिखा जा रहा […]

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रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
यह सच है कि एक साल में भ्रष्टाचार और घोटाले का कोई बड़ा मुद्दा नहीं आया, क्रोनी पूंजीवाद विकसित नहीं हुआ. डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना की बातें हुई हैं. लेकिन, मोदी की चिंता में संपूर्ण भारत नहीं है.
मोदी सरकार के एक वर्ष पर जितना कहा-लिखा जा रहा है, वह अभूतपूर्व है. पहले किसी भी सरकार की एक वर्षीय उपलब्धियों और नाकामियों की इतनी अधिक चर्चा नहीं हुई थी. दरबारी समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल्स उपलब्धियों का बखान करते थक नहीं रहे हैं. सरकार की ओर से उपलब्धियों के बखान में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है. मोदी विदेश में ‘दुख भरे दिन बीते रे भैया’ सुना रहे हैं. एक वर्ष में सबसे बड़ी बात यह हुई है कि पहले जो भारत में जन्म लेना दुर्भाग्य मानते थे, अब वे सब अपने को सौभाग्यशाली मानने लगे हैं. एक वर्ष की तुलना पिछले साठ वर्ष से की जाने लगी है.
संसद की सीढ़ियों पर नतमस्तक मोदी ने संसद की गरिमा और लोकतंत्र के पवित्र मंदिर के प्रति अपने उद्गार व्यक्त किये थे. 26 मई, 2014 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. आज 25 मई को मथुरा में उनकी रैली है. सभी सांसदों को निर्देश दिया गया है कि वे उनका भाषण सुनें. दिल्ली विधानसभा चुनाव छोड़ कर पिछले एक वर्ष में हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भाजपा ने जीत हासिल की. मई, 2014 में सात राज्यों में राजग की सरकार थी.
अब उनकी सरकार 13 राज्यों में है. मोदी सबसे ऊपर हैं. उनकी व्यवस्था ऐकिक, एकात्मक है. एक व्यक्ति, एक विश्वास, एक संस्था. उनकी उपस्थिति दृश्य-अदृश्य रूप में सर्वत्र है. मोदी संवाद प्रिय नहीं हैं. लोकतंत्र में संवाद सवरेपरि है. वे संसद में कम उपस्थित रहे हैं. गुजरात विधानसभा उनके कार्यकाल में कभी एक वर्ष में 23 दिनों से अधिक नहीं बैठी. उनका विश्वास ‘मन की बात’ सुनाने में है. दूसरों की बात वे कम सुनते हैं. पहले मनमोहन सिंह चुप रहते थे. अब केंद्र की सरकार चुप है, मंत्रिमंडल चुप है. संभव है, पहली वर्षगांठ पर सभी मंत्री बोलें. फिलहाल अरुण जेटली सरकार की उपलब्धियां बता रहे हैं. उनकी सरकार सूझ-बूझ की सरकार कही जा रही है. यह सूझ-बूझ कैसी है?
मोदी ने चुनाव-प्रचार में बार-बार विदेशों से कालाधन वापस लाने, ‘सबका साथ-सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की बात कही थी. चुनावी नारे वोट पाने के लिए दिये जाते हैं. वे अमल में लाये नहीं जाते. ‘गरीबी हटाओ’ का नारा इंदिरा गांधी को विजय दिलाने के लिए था. मोदी ने अपेक्षाएं अधिक जगायीं, अधिक आश्वासन दिये, वादे किये. मोदी के लिए सरकार की भूमिका फैसिलिटेटर की है. अमित शाह के अनुसार सरकार योजनाओं की मार्केटिंग करती है.
मोदी ‘विकास’ को अपना एकमात्र एजेंडा मानते हैं. किसका विकास? कैसा विकास? सरकार की भूमिका किसे आगे बढ़ाने में रही है? वह जिम्मेवार नहीं है. मोदी कॉरपोरेटों के शुभैषी हैं. 45 मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता है. एक वर्ष में 18 देशों की यात्र करने वाले प्रधानमंत्री ने भारत के 18 गांवों की यात्र नहीं की है. वे एक वर्ष में आत्महत्या करने वाले 18 किसानों के परिवारों में नहीं गये हैं. भारत की 60 प्रतिशत आबादी किसानों की है. ‘सबका साथ-सबका विकास’ में किसान कहां हैं?
किसानों की पीठ पर किसी का हाथ नहीं है. मोदी की पीठ पर ‘अंबानी’ का हाथ था. मंगोलिया को बुनियादी ढांचे के विकास के लिए मोदी ने एक अरब डॉलर का कर्ज दिया. भारतीय किसानों को आत्महत्या से रोकने के कौन से उपाय किये गये? मोदी नारे गढ़ने, मुहावरे बनाने और शब्द-क्रीड़ा में निपुण हैं. ये कलाएं चुनाव के लिए हैं, विकास के लिए नहीं.
मोदी के विकास का सूत्र किसान-विरोधी है. डेविड हाव्रे ने जिसे ‘डेवलपमेंट बाई डिसपजेशन’(बेदखली द्वारा विकास) कहा है, वह विकास चंद व्यक्तियों के लिए है. भारत में अरबपतियों की संख्या इस विकास-नीति के दौर में ही सर्वाधिक बढ़ी है. अरबपतियों का यह दुनिया का दूसरा बड़ा देश है. मोदी ने जिस नयी अर्थव्यवस्था की बात कही थी, वह मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था से भिन्न नहीं है. यह बाजार आधारित अर्थव्यवस्था है. धर्माधारित राजनीति इससे अलग नहीं है.
मोदी के कार्यकाल में अवैज्ञानिक सोच और धार्मिक विश्वास, अंध विश्वास को बढ़ावा दिया गया है. इंडियन साइंस कांग्रेस में अब अवैज्ञानिक बातें कही जा रही हैं. भारत को कांग्रेस मुक्त नहीं, तर्क-विवेक-मुक्त बनाया जा रहा है. वैज्ञानिक चेतना के स्थान पर धार्मिक-सांप्रदायिक चेतना फैलायी जा रही है. प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने देश में वैज्ञानिक वातावरण बनाने की पहल की थी. मोदी का कार्य इसके विपरीत है.
मंत्री गिरिराज सिंह के कई बयान उत्तेजक-आक्रामक रहे हैं, साक्षी महाराज ने हिंदू महिलाओं को चार बच्चे पैदा करने की सलाह दी, योगी आदित्यनाथ ने ‘घर वापसी’ को एक सतत प्रक्रिया कहा, ‘लव जेहाद’ के नाम पर मुसलिम समुदाय को निशाना बनाया. प्रधानमंत्री मौन रहे. सुषमा स्वराज ने गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ बनाने की मांग की. क्रिसमस को ‘सुशासन दिवस’ बनाया गया. इसी दौर में मोदी के नेतृत्व में भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की बात भी कही गयी. विकासाधारित राजनीति व धर्माधारित राजनीति का यह सह मेल है.
मोदी के कार्यकाल का आकलन किस नजरिये से किया जाये? उनकी कार्यपद्धति एकाधिकारवादी है. उन्हें न शिक्षा की गुणवत्ता से मतलब है, न पर्यावरण की चिंता. इस कार्यकाल में अल्पसंख्यकों में असुरक्षा बढ़ी है. ‘सबका साथ-सबका विकास’ में क्या गरीब, दलित, आदिवासी, बेरोजगार, अशिक्षित सब आयेंगे?
विकास का उनका मॉडल समावेशी नहीं है. स्मार्टसिटी के लिए एक लाख करोड़ रुपये और शिक्षा के मद में? जोया हसन ने अपने लेख ‘नो अच्छे दिन फॉर हायर एजुकेशन’(द हिंदू, 20 मई, 2015) में शिक्षा के प्रति मोदी के अगंभीर रवैये पर प्रकाश डाला है. मोदी जो देश में हैं, वे विदेश में नहीं. बाहर वे हंसमुख, अनौपचारिक और सहज हैं.
देश में उनका रूप भिन्न है. प्रधानमंत्री जन-धन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना से अच्छे दिन नहीं आयेंगे. केंद्रीय सूचना आयुक्त, कंद्रीय सतर्कता आयुक्त, केंद्रीय चुनाव आयुक्त के पद खाली हैं. संवैधानिक संस्थाएं कमजोर की गयी हैं.
यह सच है कि एक साल में भ्रष्टाचार और घोटाले का कोई बड़ा मुद्दा नहीं आया, क्रोनी पूंजीवाद विकसित नहीं हुआ. डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना की बातें हुई हैं. लेकिन, मोदी की चिंता में संपूर्ण भारत नहीं है. एक ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ सबका विकास या समावेशी विकास नहीं कर सकता. प्रश्न समानता और सबके विकास का है. मोदी प्रचारक और उपदेशक की भूमिका में हैं. वे विदेश मंत्री का कार्य स्वयं कर रहे हैं. मोदी सेल्फी पीएम हैं. उनके लिए निजी छवि महत्वपूर्ण है, भारतीय जन की छवि नहीं.

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