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राजनीति का पोंटीकरण

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-हरिवंश- यह फार्मूला (पोंटी चड्ढा=दलों का चरित्र) भारत के मौजूदा मध्यमार्गी या क्षेत्रीय दलों (अपवाद छोड़ कर) का चरित्र बताता है. इनकी असल चाल, चेहरा और चरित्र समझना हो, तो पोंटी चड्ढा को समझें. यानी भारतीय राजनीति की दिशा, दशा, असल व्यक्तित्व जानना या समझना है, तो पोंटी चड्ढा की कहानी (काल्पनिक नहीं, असल) जीवंत […]

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-हरिवंश-
यह फार्मूला (पोंटी चड्ढा=दलों का चरित्र) भारत के मौजूदा मध्यमार्गी या क्षेत्रीय दलों (अपवाद छोड़ कर) का चरित्र बताता है. इनकी असल चाल, चेहरा और चरित्र समझना हो, तो पोंटी चड्ढा को समझें. यानी भारतीय राजनीति की दिशा, दशा, असल व्यक्तित्व जानना या समझना है, तो पोंटी चड्ढा की कहानी (काल्पनिक नहीं, असल) जीवंत डॉक्युमेंट है. दुनिया स्तर पर मशहूर एक समाजविज्ञानी मित्र का तो यह निष्कर्ष है कि भारतीय राजनीति का ही पोंटीकरण हो गया है. एक इंसान पूरी भारतीय राजनीति का पर्याय या प्रतीक बन गया. जीते जी.
पहले इस पोंटी चड्ढा का असल जीवन जान लीजिए. सड़क से शीर्ष तक पहुंचने की कथा! चालीस वर्ष की उम्र तक पोंटी चड्ढा शारीरिक रूप से अक्षम (अपंग) माने जाते थे. एक अर्थ में वह सड़क के हॉकर थे. ठेले पर अपने पिता के संग मुरादाबाद की एक शराब दुकान के सामने स्नैक्स (नाश्ता) बेचते थे. भदेस भाषा में कहें, तो शराब पीनेवालों के लिए तली मछली या चखना बेचते थे. महज डेढ़ दशक बाद यानी कुल पंद्रह वर्षों की अवधि में पोंटी चड्ढा एक बड़े व्यवसाय समूह के मालिक हो गये. यह व्यवसाय बीस हजार करोड़ का है या पच्चीस हजार करोड़ का है या तीस हजार करोड़ का है या इससे भी अधिक का है, इस पर मीडिया में कयास लगाये जा रहे हैं. महज पंद्रह वर्षों में मुरादाबाद के इस सड़क हॉकर के पास कई राज्यों के शराब का व्यवसाय था. अनेक चीनी मीलें थीं.
रियल स्टेट (जमीन-घर का) का बड़ा धंधा था. बिजली, कागज, फिल्म निर्माण, प्रदर्शनी, नदियों की बालू खुदाई-ढुलाई, बेबी फूड्स, फिल्म निर्माण और वितरण, साफ्ट ड्रिंक बाटलिंग, जल विद्युत योजनाएं, शिक्षा, स्कूल वगैरह से जुड़े धंधे थे. 80 के दशक में पोंटी चड्ढा की शादी हुई, तो कहते हैं कि निमंत्रण पत्र छपवाने के लिए भी पैसा नहीं था. इतनी जल्दी ठेले वाली दुकान से इतने बड़े व्यवसाय तक किसी की पहुंच नहीं बनी. छह राज्यों में पोंटी चड्ढा का साम्राज्य था. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान और छत्तीसगढ़.
इस साल के फरवरी महीने में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले थे. आयकर विभाग ने पोंटी चड्ढा के नोएडा स्थित मॉल पर छापा मारा. टीवी चैनलों पर आरंभिक खबर आयी कि सौ करोड़ रुपये नकद मिले हैं. बाद में यह सूचना आने लगी कि तहखाने में पचास के महज दो नोट मिले. हाल ही में पोंटी चड्ढा ने एक इंटरव्यू दिया. उसमें कहा कि एक पतंग उड़ाने के प्रकरण में जब उनका एक हाथ कारगर न रहा, तो परिवार ने मुझ पर भरोसा खो दिया. पर मैंने वह संपत्ति बनायी है, जो अनेक पीढ़ियां भोग करेंगी.
डेढ़ दशक में यह चमत्कार हुआ कैसे? छप्पर फाड़ कर लक्ष्मी कैसे बरसीं? इसका राज जानना ही भारतीय राजनीति को समझना है. 1995 तक पोंटी चड्ढा ने शराब की दुकान या ठेले के व्यवसाय से इतनी बचत कर ली थी कि उन्होंने सामनेवाली शराब की दुकान खरीद ली.
जिस दुकान पर शराब बिकती थी और सामने ठेला लगाकर पोंटी चड्ढा की दुकान चलती थी, वे दोनों दुकानें एक हो गयी. मालिक एक हो गये. फिर सोचना शुरू किया कि सबसे बड़ा और सबसे ताकतवर होने का राज क्या है? यह सूत्र जानना कठिन था नहीं. पोंटी चड्ढा को लगा कि चार शब्दों से बनी, ‘राजनीति’ की दुनिया ही उन्हें मंजिल पर पहुंचा सकती है. बड़ा साफ और सीधा सोच था. फॉर्मूला सहज और प्रामाणिक.
राजनीतिक रसूख या राजनीति की दुनिया को समझें, उसमें पैठ बनायें, गहरे उतरें और बिजनेस को बढ़ायें. यही काम पोंटी चड्ढा ने किया.
डेढ़ दशक में यह चमत्कार कैसे हुआ? खाकपति से वह बेशुमार दौलत के मालिक कैसे बने? न टाटा-बिड़ला जैसी पैतृक संपत्ति, न अजीम प्रेमजी या नारायणमूर्ति जैसी ज्ञान संपदा, न कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि. फिर यह सब कैसे हुआ?
राजनीति के जोर से. राजनीति के बल से. और महज राजनीति से. अन्य शब्दों में कहें, तो सिर्फ और सिर्फ राजनीति के सौजन्य से. 1995 में पोंटी चड्ढा ने मुरादाबाद में शराब की दुकान खरीदी.
2002 में उन्हें पहला राजनीतिक संरक्षण मिला. पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह से. कांग्रेस की छत्रछाया में पांच वर्षों में पोंटी चड्ढा ने चमत्कार किया. पंजाब के सबसे स्थापित, पुराने और समृद्ध शराब व्यवसायियों को पटखनी दे दी. धनबल से नहीं, जनबल से नहीं, प्रबंध कौशल से नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण और रसूख से. कांग्रेसी मुख्यमंत्री, अमरेंद्र सिंह ने संरक्षण दिया. उनके कार्यकाल यानी पांच वर्ष के अंदर पोंटी चड्ढा पूरे पंजाब के एकमात्र शराब विक्रेता बन गये (सोल लिकर डिस्ट्रीब्यूटर).
पोंटी चड्ढा को तुरंत धनवान बनने का राज मालूम हो गया. 2003 में वह उत्तर प्रदेश के व्यवसाय में मुड़े. मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे. मुलायम सिंह से मिले. मुलायम सिंह ने भांप लिया कि इस आदमी में क्षमता है. हुनर है. यह जुगाड़ कर सकता है. फिर पोंटी चड्ढा पर मुलायम सिंह की कृपा-मेहरबानी बरसने लगी. उत्तर प्रदेश में पोंटी चड्ढा के पिता पाकिस्तान से एक रिफ्यूजी बनकर आये थे. उसी राज्य में आधे से अधिक शराब दुकानें पोंटी चड्ढा की हो गयीं.
उनके नियंत्रण में आ गयीं. यही नहीं, शराब और ठेले पर मछली बेचते-बेचते पोंटी चड्ढा को हुए अनुभवों में राजनेताओं ने भारी अवसर देखा. मुलायम सिंह की सरकार ने उन्हें सरकारी ठेकेदार भी बना दिया. बच्चों के कल्याण के लिए शुरू की गयी सरकारी योजना आइसीडीएस (इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम) में तीन हजार करोड़ के अनाज आपूर्ति का ठेका भी पोंटी चड्ढा को मिल गया. याद रखिए, राजनीति के पारस पत्थर से स्पर्श पाकर आप क्या-क्या हो सकते हैं! ठेले से उठ कर शराब के एकमात्र शराब बिक्रेता बन सकते हैं. फिर आप बच्चों के विकास के लिए बनी सरकारी योजना के ठेकेदार भी बन सकते हैं.
एक ही आदमी सबकुछ. फिर लखनऊ व नोयडा में जमीन का कारोबार शुरू हुआ. मल्टीप्लेक्स का धंधा शुरू हुआ. लखनऊ और नोयडा में कीमती भूखंड मिलने लगे. यानी सरकार या राजनीति की ताकत ने एक हॉकर को सबसे बड़ा शराब व्यवसायी बनाया. फिर बच्चों के काम का ठेका देकर बड़ा सरकारी ठेकेदार बनाया. फिर भूखंड दे कर भूमिपति बनाया. यह है, भारतीय राजनीति का चमत्कार.
कांग्रेस और अमरेंद्र सिंह के सहयोग से पंजाब में पोंटी चड्ढा का उत्थान हुआ, पर पांच वर्ष बाद सत्ता में अकाली आ गये. अब असल खेल देखिए. अकालियों को भी पोंटी चड्ढा ने साध लिया.
वे उन पर और मेहरबान हो गये. कांग्रेस और अकाली, पंजाब के दो राजनीतिक शत्रु हैं. पर पोंटी चड्ढा के सिंहासन की पालकी ढोनेवाले भी हैं, साथ-साथ. यही हाल उत्तर प्रदेश में हुआ. मुलायम सिंह के कंधे पर चढ़ कर पोंटी चड्ढा का अवतरण हुआ. 2007 में मायावती सत्ता में आ गयीं. लोगों को लगा कि मुलायम और सपा से नफरत करनेवाली मायावती का रुख कड़ा है. पोंटी चड्ढा दलित नेता के गुस्से की आग में खाक हो जायेंगे.
पर पोंटी चड्ढा ने मायावती को भी साध लिया. 2009 में मायावती ने पोंटी चड्ढा को पूरे उत्तर प्रदेश के शराब व्यवसाय का एकमात्र सूबेदार बना दिया. मुलायम सिंह ने आधा राज्य सौंपा था, मायावती ने पूरा दे दिया. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के शराब व्यवसाय या कारोबार पर अब पोंटी चड्ढा का कब्जा था. एकमात्र राजा. अब ब्लेंडर्स प्राइड, सिग्नेचर ब्रांड की शराब पाउच में दुकानों पर बिकने लगी. नये-नये नामों के साथ. रंगीली, मयखाना, नशीली जवानी जैसे नामों से शराब की बिक्री शुरू हुई. छोटे या खुदरा व्यवसायियों को कौन-सी शराब और कैसी शराब मिलेगी, यह पीनेवाले शराबी तय नहीं करते थे.
यानी शराब के उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार शराब की दुकानों पर शराब नहीं आती थी. अपनी कंपनी के अतिरिक्त किन कंपनियों में बनी शराब कहां बिकेगी, यह भी पोंटी चड्ढा ही तय करते थे. कहा तो यह जाता है कि शराब की कीमतें उनके अनुसार तय होती थीं. 2010 में पोंटी चड्ढा ने राज्य सरकार की दुकानों से कोई भी भारतीय रम बेचने से मना कर दिया.
उनकी डिस्टीलरी से तैयार एक ही ब्रांड बिकता था. व्यापारिक कानून और प्रावधान खुलेआम तोड़े जाते थे. कहा तो यह जाता है कि पोंटी चड्ढा ने अतिरिक्त कर लगा दिया था. हर शराब बोतल या पाउच पर. इस अतिरिक्त कर को पोंटी टैक्स कहा जाता था और इस टैक्स से वसूला पैसा राजनेताओं के घर पहुंचता था. बात यहां तक पहुंच गयी कि शराब की बड़ी पार्टियों में जब शराब का नशा चढ़ता, तो लोग कहते, अरे! तुम पर तो पोंटी चढ़ गया है? एक व्यक्ति महज 15 वर्षों में व्यवस्था का विशेषण बन गया.
इसके बाद पोंटी चड्ढा का जबरदस्त फैलाव हुआ. कारोबार बढ़ा. नोएडा में उनके कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू हुए. दलित नेता मायावती के कार्यकाल में ही. नोएडा में वह 152 एकड़ का सिटी सेंटर बना चुके थे. वेब ग्रुप के मालिक बन चुके थे. आगरा, मेरठ, बरेली, मुरादाबाद और लखनऊ में 2008-09 से ही उनके जमीन-घर से जुड़े प्रोजेक्ट चल रहे थे. इस ग्रुप की योजना है कि नोएडा में दस हजार करोड़ की राशि से एक सिटी सेंटर टाउनशिप बसाया जाये. इधर उत्तर प्रदेश में पांच वर्षों बाद मायावती के खास दुश्मन सत्ता में आ गये. यानी मुलायम सिंह. अखिलेश यादव की सरकार बनी.
लोगों को लगा कि मुलायम सिंह के कंधे पर चढ़ कर जिसका उदय हुआ, वह मायावती का खास कैसे बन गया? इससे जरूर नयी सरकार नाराज होगी और बदला लेगी. वैसे भी दोनों दल, एक दूसरे के करीबियों को अप्रभावी करने में जी-जान से लगे रहते हैं. सत्ता संभालते ही एक दूसरे के समर्थक ब्यूरोक्रेटों का सफाया करते हैं. जांच कराते हैं. मुकदमा करते हैं. दुश्मनों को तबाह करते हैं. दोनों, एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखना चाहते. इनके समर्थक आपस में खून के प्यासे की भूमिका में दिखते हैं.
पर धन्य थी, पोंटी चड्ढा की ताकत और समझ. अखिलेश जी की सरकार भी तुरंत मेहरबान हो गयी और उसने आइसीडीएस में बच्चों के खाने का पूरा ठेका, फिर पोंटी चड्ढा को दिया. मायावती राज में यह ठेका तीन हजार करोड़ का था, तो अखिलेश राज में दस हजार करोड़ का हो गया. याद रखिए पंजाब में एक दूसरे के जानी दुश्मन जैसा बरताव करनेवाले अकाली और कांग्रेस, पोंटी चड्ढा की थैली में एक साथ थे. इधर उत्तर प्रदेश में एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू सपा-बसपा, पोंटी चड्ढा की कृपा पाने के लिए एक साथ उनके खैरख्वाह थे.
मत भूलिए, कांग्रेस, अकाली, सपा, बसपा, ये दल पोंटी चड्ढा की सीढ़ी रहे हैं. खबर तो यह भी आ रही है कि जो सुखदेव नामधारी नामक सज्जन इस हत्याकांड में संदिग्ध भूमिका में हैं, वे पोंटी चड्ढा के बालू के ठेके के विश्वस्त व्यक्ति थे. शुरूआती दिनों में उन्हें पोंटी चड्ढा का बाडीगार्ड भी बताया जा रहा है. वह उत्तराखंड के थे. उनका संबंध भाजपा से कहा जा रहा है. भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस सब पोंटी चड्ढा के इशारे पर चले या इन सभी दलों के इशारे पर अकेले पोंटी चड्ढा चले, यह तो और गहराई में उतर कर समझने का विषय है.
किसने, किसको साधा, किस ताकत, लोभ या आकर्षण से ये दुश्मन भी एक दूजे के हुए, पोंटी मंच पर. यह तो समझने की बात है. असल बात यह है कि एक आदमी ने इन सारे दलों को साध लिया था. इन दलों की मेहरबानी और कृपा बरसी, तो पोंटी चड्ढा खाकपति से कई हजार करोड़ के मालिक बन गये. यह असल रहस्य है.
पोंटी चड्ढा, दुनिया की सबसे महंगी चीजों के शौकीन थे. मुरादाबाद में काफी मशक्कत के बाद जीवन में पहला वाहन लूना-मोपेड वह पा सके. उनके पिता कुलवंत जी रावलपिंडी से आये एक रिफ्यूजी थे.
मुरादाबाद के गुरहट्टी चौराहे पर 50 के दशक में उन्होंने भांग व गांजा की दुकान की शुरुआत की. पोंटी चड्ढा, स्कूल के ड्रापआउट थे. उन्होंने अपना पहला व्यवसाय अपने पिता के साथ ही शुरू किया. लकड़ी के एक टूटे-फूटे ठेले जैसे टेबुल पर. एक केरोसिन स्टोव के बल. लेकिन बहुत जल्दी उनको इस व्यवस्था में क्लिक करने का राज समझ में आ गया.
उनके मित्रों की दुनिया राजनीति में थी. नौकरशाहों के बीच में थी. व्यवसायियों के बीच थी. फिल्मी दुनिया में भी. यानी पोंटी चड्ढा की सफलता = राजनेता (पालीटिशियन) + नौकरशाह (ब्यूरोक्रेट) + व्यवसायी (बिजनेसमैन) + सौंदर्य की दुनिया. वह अरमानी के मंहगे सूट पहनने लगे. इटली के जूते. हीरे लगी रोलेक्स घड़ी. दुनिया की सबसे महंगी गाड़ियां वेंटलेज, फेरारी और मर्सडीज उनकी पसंदीदा सवारी थीं. महंगे फार्महाउस, महंगी पार्टियां, फिल्मी सितारों की आसपास बढ़ती भीड़. बहुत कम समय में पोंटी चड्ढा उस जगह पहुंच गये, जहां उन्होंने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी. न कोई करता है.
उनकी यह सफलता भारतीय राजनीति की देन है. इस मौजूदा राजनीति के गर्भ की देन. नौकरशाहों की देन है. लगभग ध्वस्त हो चुके सिस्टम की देन. कोई यह सवाल पूछने को तैयार नहीं कि आखिर क्यों एक ईमानदार आदमी, सक्षम आदमी, पढ़ा-लिखा आदमी, तेज-तर्रार आदमी, कठोर परिश्रमी आदमी इस व्यवस्था में जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने में विफल है और दूसरी तरफ राजनीतिक कृपा से पोंटी चड्ढा जैसे व्यक्ति के उदय के चमत्कार होते हैं.
भारत की राजनीति में जरा भी शुचिता का प्रसंग होता, तो पोंटी चड्ढा के इस प्रकरण के बाद सभी दलों और इस व्यवस्था के बीच आत्ममंथन का दौर होता.
दिल्ली के छतरपुर स्थित एक फार्म हाउस पर पोंटी चड्ढा और उनके भाई के बीच मुठभेड़ हुई. मालिकाना हक को लेकर. और मुठभेड़ में दोनों के पास अधुनातन हथियार थे. एके 47, एके 56, 9 एमएम पिस्टल वगैरह जो सामान्य नागरिकों के लिए अनुपलब्ध हैं. कैसे ये हथियार इन लोगों तक पहुंचे? यह सवाल इस व्यवस्था की अंदरूनी स्थिति से जुड़ा है. कुछ महीनों पहले पोंटी चड्ढा के मुरादाबाद फार्म हाउस में अचानक खूब गोलियां चलने की घटना हुई.
घटना की जांच के बाद पुलिस-प्रशासन की रिपोर्ट आयी. लीपापोती करते हुए कहा गया कि बच्चों के जन्मदिन पर गोली चलाने की घटना हुई. बच्चों द्वारा. जश्न के रूप में.
यह रिपोर्ट अखिलेश राज के पुलिस-प्रशासन ने दी. उधर दिल्ली स्थित केंद्र सरकार के राज में, जहां पुलिस-प्रशासन चुस्त माने जाते हैं. उनके रसूख, ताप और प्रताप, केंद्रीय सत्ता के सबसे जीवंत प्रतीक हैं, वहां चड्ढा भाइयों ने एक दूसरे पर अत्यंत अधुनातन, महंगे और कालाबाजार से खरीदे गये हथियारों से हमला किया. यह है, देश के पुलिस-प्रशासन और व्यवस्था का असली नाकाम चेहरा. अगर आपके पास दौलत है, तो आप इस मुल्क में कुछ भी कर सकते हैं. अमीर और शासक वर्ग से अलग हैं, तो आपका सांस लेना भी जुर्म है.
एक सर्वे के अनुसार (टाइम्स आफ इंडिया, 25 नवंबर 2012) भारत में हर 100 लोगों पर तीन बंदूकें हैं. इस आंकड़े के अनुसार 178 मुल्कों में निजी हथियार रखनेवालों की दृष्टि से भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है. ये दो नंबरी हथियार है. एम्स के एक डॉक्टर एमसी मिश्र के अनुसार ऑल इंडिया इंस्टीटय़ूट ऑफ मेडिकल साइंस में हर दिन 2000 मरीज आते हैं. उनमें से तीन फीसदी गोलियों से हताहत या घायल होते हैं.
पोंटी चड्ढा प्रकरण में दिल्ली के छतरपुर फार्म हाउस में जिन अवैध हथियारों के बूते दोनों भाई टकराये, उससे उच्चतम न्यायालय भी स्तब्ध रह गया. समूचा देश भी. उच्चतम न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया और केंद्र सरकार से भारत में बंदूक नियमन की नीति मांगी है.
भारत में अवैध हथियारों का धंधा फल-फूल रहा है. इसका सामान्य कारण है कि यहां भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है. कानून का भय खत्म हो गया है. शासन करनेवाले बिकते हैं, तो अवैध हथियार बेचनेवाले व्यवस्था को खरीदते हैं. टाइम्स में छपी रिपोर्ट के अनुसार आज भारत में सबसे पसंदीदा हथियार हैं एके-47, एके-56. दिल्ली के करोलबाग में एक गफ्फार मार्केट है.
यह असली और नकली चीजों का बाजार है. हथियार के नये ब्रांडों का बाजार. सब कुछ सस्ते दाम पर. यहां एके – 47 भी मिलता है. सोवियत रूस का बना या इसका अधुनातन संस्करण एके-74 भी. 60,000 से पांच लाख के बीच बिकते हैं.
हथियारों के सही या नकली होने के अनुसार भाव. हंगरी, बुल्गारिया, पाकिस्तान, चीन में ये नकली हथियार बन रहे हैं. इनके अवैध हथियारों का बाजार भारत है. कहां है सरकार, पुलिस या प्रशासन? इन हथियारों का मूल निर्माता रूस का इजमैश कारपोरेशन अब एके-47 या एके-56 नहीं बनाता. रूस योजना बना रहा है कि कैसे वह भंडार में पड़े 50 लाख एके-47 को नष्ट कर दे.
रूसी विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार नहीं चेती, तो दुनिया के अवैध बाजारों में ये राइफलें अवैध रास्ते (कालाबाजार) पसर जायेंगी. भारत में नेपाल, नगालैंड, मणिपुर के सहारे ये बंदूकें आती हैं. बिहार का मुंगेर भी कभी इस तरह के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था. गोपनीय सूत्रों के अनुसार इस तरह के हथियार निर्माण के केंद्र यूपी, बिहार और झारखंड में भी हैं, जहां कट्टा मिलते हैं. भारत की चार करोड़ बंदूकों में से 85 फीसदी का रजिस्ट्रेशन नहीं है.
साफ है जिसके पास पैसा है वह कोई भी हथियार हासिल कर सकता है. उसके लिए लाइसेंस या सरकारी अनुमति की क्या जरूरत है? और यही काम पोंटी भाइयों ने किया.
कहां पहुंच गया है यह मुल्क? कहीं किसी को चिंता है? राष्ट्रीय एजेंडा या सार्वजनिक जीवन में ये सवाल हैं? किसी में यह साहस है कि चर्चिल, राजगोपालाचारी व डॉ बीआर आंबेडकर के कथनों को आज याद करे?
आजादी के समय चर्चिल ने कहा था, ‘सत्ता बदमाशों, दुर्जनों (शठ), लुटेरों (दस्यु) के हाथ में जायेगी. वे आपस में लड़ेंगे. राजनीति अराजकता में खो जायेगी..’ (देखें द पायोनियर में 29 नवंबर 12 को जम्मू-कश्मीर व असम के पूर्व गवर्नर एसके सिन्हा का लेख-नो टू साइकोफैन्सी करप्शन).
राजगोपालाचारी मनीषी थे. राजनीति में ऋषि. उन्होंने लिखा-‘जैसे ही हमें आजादी मिलेगी, चुनाव और उसके भ्रष्टाचार, धन का आतंक और प्रशासन की इनइफिशियन्सी (अक्षमता), जीवन को नरक बना देंगे. तब लोग पश्चाताप की दृष्टि से पुराने दिनों के न्याय, इफिशियन्सी, शांति और कमोबेश ईमानदार प्रशासन से तुलना करेंगे.’
आज डॉ आंबेडकर को रोज भज कर वोट लेने की परंपरा शुरू हो गयी है. पर डॉ आंबेडकर की कही बातें आज कितने लोगों को याद हैं? उनके अनेक लेख, चेतावनियां और महत्वपूर्ण बातें स्मरण करना, भारत को आज बचाये रखने के लिए जरूरी है. एक बार उन्होंने कहा था, ‘ धर्म भक्ति, आत्मा की मुक्ति या मोक्ष का रास्ता हो सकता है. पर राजनीति में भक्ति या हीरो वरशिप (नायक की पूजा) पतन की ओर जाने का निश्चित मार्ग है और अंतत: डिक्टेटरशिप तक पहुंचने का मार्ग भी’.
आज भारत का सबसे असल सवाल या मुद्दा यह है कि क्या बगैर नैतिकता कोई समाज या देश चल सकता है? सार्वजनिक जीवन का सबसे बड़ा सवाल. पर कितने लोग आज इस सवाल पर बहस या बात करते हैं? हमारी राष्ट्रीय नैतिकता है क्या? सिर्फ यह कहना कि आज भ्रष्टाचार लाइलाज है या चौतरफा है. इससे हालात सुधरेंगे?
दिनांक : 02.12.12

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